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अधिकारियों को राहत

पदोन्नति नौकरियों में एक महत्वपूर्ण रोल अदा करती है। अधिकारों का विस्तार, बेहतर सुख-सुविधाएं, वेतन में सुधार अर्थात आर्थिक, सामाजिक व व्यावसायिक उन्नति, इसके प्रमुख प्रतिफल में से कुछ एक हैं। ध्यान से देखें तो नौकरीपेशा हर एक आदमी इसकी जोड़-तोड़ में लगा रहता है। अपने उच्च अधिकारी के आदेश का सदा पालन, उसकी जी-हुजूरी व चापलूसी करने के पीछे यह एक मुख्य वजह है। इन सब को करने के लिए प्रोमोशन एक कैटलिस्ट का काम भी करता है। पदोन्नति का नाम सुनते ही उत्साहवर्द्धन होता है, एक विशिष्ट जोश उत्पन्न होता है। यह उमंग भी पैदा करती है। पदोन्नति के पश्चात हमारी दिनचर्या, कार्यप्रणाली व कार्यक्षेत्र में बदलाव भी आता है, अन्यथा एक ही नाम, एक ही पद, एक ही तरह का काम करते-करते आदमी ऊब जाता है। कई बार क्षमता का विकास भी अप्रत्याशित रूप से होता देखा गया है। पदोन्नति के बाद मिलने वाले कुछ एक पद तो इतने साधन-संपन्न एवं शक्ति संपन्न होते हैं कि आदमी इसके लिए अपना सब कुछ झोंकने को तैयार रहता है। राजनीतिज्ञ दांव-पेच, दोस्ती-संबंध, पैसे का लेन-देन यहां तक कि लोग अपना जमीर गिरवी रखने से भी पीछे नहीं हटते। किसी-किसी पद के लिए होने वाले घमासान की खबरें समाचारपत्रों में भी छपती रहती हैं। सत्य है, जितना गुड़ होगा उतनी ही चींटियां इकट्ठी होंगी। यही नहीं कई बार यह लड़ाई न्यायालय में जाकर ही दम लेती है।

पदोन्नति को सीधा, सरल, स्पष्ट और पारदर्शी बनाने के लिए वरिष्ठता को एक प्रमुख पैमाना बनाया जाता रहा है। लेकिन हर बार ऐसा ही हो आवश्यक नहीं। कुछ पदों के लिए यह जरूरी भी नहीं। योग्यता, सामर्थ्य, उपयोगिता व उम्र कुछ एक ऐसे पैमाने हैं जिस पर रखकर भी चुनाव किया जाता है। यह कई जगह उचित भी है। लेकिन फिर आउट ऑफ टर्न व पैनल सिलेक्शन कुछ ऐसे हथकंडे हैं जिनके माध्यम से बड़े छोटों का शोषण भी करते हैं। उपरोक्त परिस्थितियों से बचने के लिए सरकारी विभागों में नियमों की सूची बनायी गयी है। जिसमें समय-समय पर फेरबदल होता रहता है। सुधार भी किया जाता है। कई बार माननीय न्यायालयों द्वारा भी हस्तक्षेप किया जाता रहा है।

कॉनफिडेंशियल रिपोर्ट, जिसे किसी भी अधिकारी-कर्मचारी की पदोन्नति के लिए एक प्रमुख दस्तावेज माना जाता है, के अंतर्गत बॉस अपने अधीनस्थ कर्मचारी व अधिकारी के सालभर के कार्य व व्यवहार का लेखा-जोखा लिखता है। इन वार्षिक रिपोर्ट के द्वारा ही किसी अधिकारी की पदोन्नति का खाका तैयार किया जाता है। अधिकांश अधिकारी इन्हीं रिपोर्टिंग के द्वारा अपने अधीनस्थ अधिकारियों को नियमित व नियंत्रित करते हैं। यह एक प्रमुख डंडा है जिसे दिखा-दिखा कर उसे अपने पीछे चलने के लिए मजबूर किया जा सकता है। निःसंदेह कई स्थानों पर इसका दुरुपयोग जमकर होता है। जहां अधिक शक्ति होगी वहां समझ लीजिए इसका गलत उपयोग भी अधिक होगा। अब चूंकि यह अपने नाम के अर्थ से ही प्रदर्शित करता है कि यह एक गोपनीय दस्तावेज है इसीलिए यह लिखने वाले के अतिरिक्त किसी अन्य को पता नहीं होता। इन छुपे हुए शब्दों के भय में ही आदमी अपने बॉस के पूर्ण नियंत्रण में होता है। बॉस पूर्ण रूप से निरंकुश न हो जाए इसीलिए इन कॉनफिडेंशियल रिपोर्ट को एक और वरिष्ठ अधिकारी द्वारा पुनर्निरीक्षण किया जाता है। किसी एक अधिकारी द्वारा अपने अधीनस्थ का आकलन गलत भी हो सकता है, पक्षपातपूर्ण भी हो सकता है, पूर्वाग्रह से ग्रसित भी हो सकता है। यकीनन इसे निष्पक्ष बनाने के उद्देश्य से ही रिव्यू करने का प्रावधान रखा गया होगा। वास्तविकता में भी इससे बहुत कुछ समस्या का निराकरण संभव हुआ। वर्तमान में अराजपत्रित अधिकारी व कर्मचारियों के मामलों में, अधिकांश स्थान पर सीआर लिखने की व्यवस्था को और अधिक लचीला बना दिया गया है एवं इसकी उपयोगिता न के बराबर रह गयी है। परंतु उच्च अधिकारियों के बीच यह आज भी तनाव का प्रमुख कारण है। आज भी इस तरह की गोपनीय रिपोर्टों में एक सुनिश्चित दर्जे की टिप्पणी न मिलने पर पदोन्नति रोक दी जाती है। प्रारंभ से ही एडवर्स रिमार्क के लिखे जाने पर पदोन्नति की सूची से बाहर किया जाता था। लेकिन अधिकारी को अपनी कमी के बारे में पता भी नहीं चलता था। कुछ वर्ष पूर्व ही इस तरह के एडवर्स रिमार्क को सूचित किये जाने का आदेश दिया गया था। जिसके तहत रिपोर्टिंग आफिसर द्वारा अपने अधीनस्थ के लिए कोई प्रतिकूल टिप्पणी दिये जाने पर उसे सूचित करना आवश्यक है। यह कनिष्ठ अधिकारियों के लिए पहली राहत थी। दी गयी प्रतिकूल टिप्पणियों को लोग निवेदन के माध्यम से ठीक कराने की कोशिश किया करते हैं। यह व्यवस्था आज भी लागू है। इसके बावजूद इस गोपनीय रिपोर्ट का भूत सिर चढ़कर बोलता है और कई बार अधिकारीगण अपने बॉस की निरंकुशता से त्रस्त रहते हैं। इस गोपनीय रिपोर्टिंग में एक और पेच है, कुछ-कुछ टिप्पणियां जिन्हें सूचित करना आवश्यक नहीं है इसके ऊपर भी पदोन्नति रोक दी जाती है और हारा हुआ अधिकारी तिलमिला कर रह जाता है। इस तरह के केसों की संख्या कम नहीं। और कई न्यायालयों में इस तरह के केस विचाराधीन हैं।

वैसे तो यह एक अधीनस्थ अधिकारी का पक्ष हुआ। दूसरी ओर वरिष्ठ अधिकारी को अपने-अपने अधीनस्थ कार्य करने वाले लोगों को नियंत्रित करने के लिए किसी न किसी रूप में पॉवर की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता। यह किसी भी व्यवस्था का महत्वपूर्ण पक्ष है। एक ऐसा शस्त्र जिसके माध्यम से अधिकारी कर्मचारियों को नियंत्रित कर सके। पदोन्नति व वार्षिक रिपोर्ट के अतिरिक्त स्थानांतरण ही एकमात्र भय का कारण हो सकता है। सरकारी नौकरियों में नौकरी से निकालना असंभव है। लेकिन प्राइवेट कंपनी में यह एक प्रमुख शक्ति है इसीलिए वहां दूसरे अस्त्र की आवश्यकता नहीं। वैसे भी प्राइवेट कंपनी में परिस्थितियां भिन्न हैं। वहां न तो पदोन्नति का चक्र, न गोपनीय रिपोर्ट का महत्व, न ही स्थानांतरण की तलवार। वहां सब कुछ ठीक होने के बावजूद भी मालिक का खुश होना अतिआवश्यक है। यह अस्थायी नौकरी की परिस्थितियां ही लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। लेकिन सरकार में मामला ही दूसरा है। वैसे तो वरिष्ठ एवं अधीनस्थ के बीच एक संतुलन, सामंजस्य व समझदारी की आवश्यकता है लेकिन वर्तमान युग में अव्यवस्था इतनी बढ़ गई है कि लोगों के मन में कार्य करने के प्रति इच्छा ही नहीं रह गयी। परिस्थितियां इतनी खराब हो गई है कि संपूर्ण व्यवस्था को नये रूप में नये ढांचे में बांधने की आवश्यकता है। वरिष्ठ लोग जहां नीचे के लोगों को कुचलने के लिए तैयार खड़े मिल जायेंगे, वहीं अधीनस्थ अधिकारी-कर्मचारी अनुशासनहीनता का हर वो कार्य करने को तैयार हैं जिसे देखकर कभी-कभी हैरानी होती है। इस माहौल में माननीय सुप्रीमकोर्ट के यह विचार कि गोपनीय वार्षिक रिपोर्ट की टिप्पणी को संबंधित अधिकारी को बताया जाना चाहिए, एक नया मोड़ है, एक नया अध्याय। इसका एक ही मकसद समझ आता है, इसके माध्यम से अधीनस्थ अपनी कार्यप्रणाली में सुधार कर सकता है, बेहतरी ला सकता है, अपने अधिकारी के साथ सामंजस्य बना सकता है। यकीनन इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह कितना प्रभावकारी या अपने उद्देश्य में सफल होगा, यह तो भविष्य ही तय करेगा मगर इसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। इस संदर्भ में शासकीय कार्यालयों में हलचल है, सुगबुगाहट है, चर्चा है। बाकी जब यह पूर्ण रूप से कार्यप्रणाली में लाया जायेगा तब इसका असली असर देखा जा सकता है। इसी तरह के और भी कई फैसले पूर्व में भी आते रहे हैं। कभी कर्मचारियों के पक्ष में तो कभी विपक्ष में। फिलहाल इस आदेश के बाद, बाकी कुछ हो न हो, इतना अवश्य है कि इसका नाम ‘गोपनीय रिपोर्ट’ से कुछ और रखना होगा।