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नर और नारी
सृष्टि ने पृथ्वी पर कई जीव की प्रजातियों में नर और मादा की अलग-अलग उत्पत्ति की। इसके पीछे निहित कारणों व आवश्यकताओं को समझ पाना हमारे लिये संभव नहीं। यह प्रकृति के अन्य रहस्यों की तरह गहरा ही होगा। हां, हम मानव अपनी आदत अनुसार इसका अनुमान जरूर लगा सकते हैं। मगर अनुमान भी क्या लगायें? क्या यह मात्र प्रजनन-जनन के लिए है? शायद नहीं। चूंकि कई जीव-जंतु ऐसे भी हैं जो अकेले ही अपने आपमें इस प्रक्रिया को पूर्ण करते रहते हैं। तो क्या यह मनुष्य प्रजाति के लिए एक साथी की आवश्यकताओं को पूरा करने का जरिया है? शायद यह बहुत हल्का तर्क होगा, क्योंकि नर और नारी के होने से ही हमें साथ होने का ज्ञान व अहसास हुआ है। अगर यह न होता तो हम इस शब्द की कल्पना भी नहीं कर पाते। बहरहाल, जिस भी मकसद से ये बनाये गये हों, यह तो स्पष्ट है कि नर और नारी मूल रूप से मानव होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। दोनों की अपनी शारीरिक संरचना है, विशिष्टता है, व्यवहार है। यहां तक कि सोच-समझ, दृष्टिकोण, तकरीबन सभी कुछ भिन्न है। यही नहीं, प्राकृतिक रूप से भी दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं और कार्यक्षेत्र है। उसी के अनुसार उनकी जीवनशैली बन जाती है। और फिर यही उनके व्यक्तित्व का आधार बनता है। संक्षिप्त में कहें तो प्रकृति ने एक ही मानव प्रजाति में दो-दो उपजातियां बनाई हुई हैं। और दोनों को अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान दी है। अब चूंकि दोनों एक ही प्रजाति के हैं तो मूल रूप से एकसमान तो प्रतीत होंगे परंतु तुलना करने लगे तो दोनों बिल्कुल भिन्न हैं। हां, बेहतर तालमेल के लिए दोनों में सामंजस्य पैदा किया गया। और इसे स्थिर और स्थायी बनाने के लिए एक-दूसरे पर निर्भरता बनाई गई। एक-दूसरे के बिना इनके जीवन में संपूर्णता नहीं। एक-दूसरे के ये पूरक कहलाते हैं। एक-दूसरे के प्रति आकर्षण भी प्राकृतिक रूप से दिया गया बंधन है। जो इनके संबंधों को परिभाषित करता है। और दोनों का भावनात्मक धरातल से लेकर शारीरिक स्तर पर इससे बच पाना संभव नहीं। विभिन्न भाव दोनों में नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होते हैं। इन मूल तथ्यों को न चाहते हुए भी स्वीकार करना होगा।
मानव के विकासक्रम की कहानी में नर और नारी का कार्य क्षेत्र, जिम्मेवारियां, जीवनशैली, अधिकार, कर्तव्य व पहचान समय और आवश्यकतानुसार बदलते रहे। हर सभ्यता में इसे अलग-अलग रूप-रंग में पाया जाता है। इसमें क्या अच्छा और बुरा, यहां बहस का मुद्दा नहीं। वैसे भी इसकी विवेचनात्मक व्याख्या करते समय हम समकालीन समाज की तत्कालीन भौगोलिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व सामरिक अवस्थाओं की अमूनन अनदेखी कर देते हैं। जबकि समाज-परिवार में नर-नारी के स्थान व संबंधों को परिभाषित करने में ये अपनी अहम भूमिका अदा करते रहे हैं। उदाहरणार्थ, युद्ध में रत सभ्यताओं में नारी की कहानी अलग है तो विलासिता में डूबी सभ्यता-संस्कृति में कुछ और। सभी धर्मों ने विभिन्न कारणों से समय-समय पर अपने-अपने ढंग से नर-नारी संबंधों का उपयोग-दुरुपयोग किया। बहरहाल, ये सब मध्ययुगीन काल की कहानियां हैं। अन्यथा आदिकाल में स्थितियां थोड़ी भिन्न थीं और होनी चाहिए। जहां नर-नारी मूल रूप में उपस्थित थे। अति प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष व उपलब्ध जानकारियों से यह ज्ञात होता है कि दोनों अपने-अपने ढंग से पूरी तरह स्वतंत्र मगर बेहतर तालमेल के साथ सामाजिक-पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे।तो क्या मानवीय सभ्यता के आधुनिक विकासक्रम ने प्राकृतिक व्यवस्था को तोड़ा-मरोड़ा है? शायद बहुत हद तक। और फिर उसका खमियाजा भी उसने अपने ही समय-काल में पूरी तरह से भोगा भी है। मगर आज के युग की कहानी ही कुछ और है। वर्तमान काल यूं तो स्वयं को शिक्षित-विकसित और ज्ञानी घोषित कर सर्वश्रेष्ठ कहलवाने में जरा भी नहीं झिझकता। मगर क्या यह सच नहीं कि नर और नारी को हम जिस रूप व दिशा में आगे बढ़ा रहे हैं वो शायद अब तक का सबसे आत्मघाती कदम सिद्ध हो जाये तो गलत नहीं होगा? आज नर और नारी के बीच में हर बात पर समानता की बात की जाती है। मगर समानता किस तरह की? किस बात की? कोई नहीं जानता। उधर, नारी स्वतंत्रता की खूब चर्चा की जाती है। और फिर इसके संदर्भ में तमाम दलीलें और तर्क दिये जाते हैं। इन बातों को भरपूर समर्थन भी प्राप्त होता है। बुद्धिजीवियों में तो होड़ मच जाती है। इस दौरान पूरे पुरुष वर्ग को दोषी करार देकर कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। मगर, कोई रुककर, ठहरकर सोचने-समझने को तैयार नहीं। और ऐसा करने वालों को महिला-विरोधी व पुरुष-प्रधान समाज का हितैषी घोषित कर दिया जाता है। बात यहां महिला के वस्त्र, शृंगार और आचरण संबंधी हल्के कथन देने वालों की नहीं हो रही जो कि महामूर्खता और यकीनन पुरुष की दकियानूसी विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं। मगर गंभीर चिंतन करने वाले भी कुछ कहने से डरकर बच रहे हैं। कारण बड़ा साफ है कि हम तीव्र परिवर्तन के अंधकाल से गुजर रहे हैं जहां समझना-सोचना मना है। यह भी सत्य है कि हम अपने अतीत से न जाने क्यों बेहद व्यथित और क्रोधित हैं? और सब कुछ बदल देना चाहते हैं। यह सच है कि स्त्रियों के साथ भेदभाव व अत्याचार हुआ है। उन्हें धर्म, समाज, रीति-रिवाज व संस्कारों में जकड़कर कई तरह की अति की गयी। मगर हम इसका सही हल निकालने के लिए गहराई में नहीं जाना चाहते, सच्चाई नहीं जानना चाहते। जबकि सच तो यह है कि नर और नारी हर युग में अपने-अपने हिस्से के स्वाभाविक गुण-अवगुण से लैस रहे हैं और दोनों ने एक-दूसरे पर मौके के हिसाब से वार किया है। विभिन्न समाज के भिन्न-भिन्न कालखंड में पितृसत्ता और मातृसत्ता देखी गई है। यहां कम और ज्यादा के पैमाने नहीं हो सकते और फिर यह कौन सुनिश्चित करेगा कि कौन अधिक हावी रहा है। वैसे भी नर और नारी के कार्य क्षेत्र का धरातल भिन्न-भिन्न रहा है। समाज की किसी भी समस्या का सरलीकरण या किसी एक वर्ग को जिम्मेदार ठहरा देना, क्या उचित होगा? मगर अमूमन ऐसा होता है और हम एक दिशा में बहने के लिए तैयार रहते हैं। माना कि पुराने कुछ एक संस्कार आज नारी-विरोधी प्रतीत होते हैं तो सती-प्रथा से लेकर बाल-विवाह आदि यकीनन अप्राकृतिक थे। और किसी भी कारण व अवस्था में स्वीकार नहीं किये जा सकते। नारी समाज में फैली अज्ञानता व अशिक्षा किसी अन्याय व पाप से कम नहीं। इसे दूर किया ही जाना चाहिए। मगर इन घोर अमानवीयता, जो कि इतिहास के किसी छोटे से क्षेत्र व कालखंड में पाये जाते हैं, के बाहर देखें तो पुरुष और नारी का कार्य क्षेत्र, कर्तव्य व अधिकार परिभाषित और सुनिश्चित थे और उसमें इनकी संपूर्ण स्वतंत्रता थी। महत्वपूर्ण बात कि एक-दूसरे पर निर्भरता व प्रकृति के मूल संबंधों को नहीं तोड़ा-मरोड़ा गया था। जबकि आज मुश्किल इसी बात को लेकर है कि हम समानता और स्वतंत्रता के लिए मूल सिद्धांतों पर प्रहार कर रहे हैं।
क्या पुरुष और महिला के बीच समानता हो सकती है? सवाल के जवाब में सवाल, क्या प्रकृति में कोई दो समान है? असल में तो हम यहां समानता शब्द को ही नहीं समझ पा रहे। एक बार फिर सवाल उठता है कि समानता किस बात में? किस तरह की? किसलिये? अच्छे कर्म व अधिकार के संदर्भ में तो इसे स्वीकार किया जाना चाहिए मगर क्या बुरे कर्मों व दृष्टिकोण की भी समानता चाहते हैं? शायद हां, तभी महिलाओं में भी भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अनाचार व अत्याचार पुरुष वर्ग की तरह ही फैल रहा है। मगर हम इसे देख नहीं रहे। सत्य तो यह है कि जब प्रकृति ने ही दोनों को भिन्न-भिन्न रूपों में जन्म दिया तो हम क्यों और किसलिए इन्हें एक-दूसरे के समान बनाने के लिए आतुर हैं। आज हम नारी की पूर्ण स्वतंत्रता की बात करते हैं। क्या यह संभव है? नहीं। मगर क्या पुरुष पूर्ण स्वतंत्र है? नहीं, समाज का अस्तित्व ही पूर्ण स्वतंत्रता के साथ संभव नहीं। और तो और जब प्रकृति ने ही एक विशिष्ट आकर्षण में दोनों को बांध दिया है, जनन-प्रजनन की प्रक्रिया के लिए एक-दूसरे पर आश्रित कर दिया तो फिर हम क्यों उससे मुक्त होना चाहते हैं? इसका सीधा अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम प्रकृति के विरुद्ध जा रहे हैं? आधुनिक युग ने वैसे भी प्रकृति की कभी चिंता नहीं की, और की भी तो दिखाने मात्र के लिए। चिंतन किया भी तो अमल कभी नहीं किया। माना कि पूर्व में कुछ सामाजिक समस्याएं हो सकती है मगर इसका अर्थ यह तो बिल्कुल भी नहीं कि हम एक समस्या से निकलने के लिए दूसरी बड़ी समस्याओं को जन्म दें। समाज की परिकल्पना के प्रारंभ से ही प्राकृतिक नर-नारी के स्वरूप, विशेषताओं और सीमाओं को ध्यान में रखा गया था। आगे भी विकास के तमाम घटनाक्रम में इस बात को पूरी तरीके से नजरअंदाज नहीं किया गया। मगर आधुनिक युग इससे बुरी तरह आंखें बंद कर लेना चाहता है। वह तो सिर्फ और सिर्फ नारी स्वतंत्रता और उसकी समानता की बात करता है। वह समानता-स्वतंत्रता शब्द के भावार्थ को नहीं समझना चाहता बस शब्दार्थ पर अटका हुआ है। आज जो कार्य, गलत या सही, पुरुष कर रहे हैं उसे महिलाओं के द्वारा किये जाने मात्र को समानता के रूप में लिया जा रहा है। और इसे हासिल कर लेने पर पीठ थपथपाई जाती है। बस यही आधुनिक युग का उद्देश्य रह गया है। असल में हम इस समान व स्वतंत्र बनाने की क्रिया के कारण होने वाली प्रतिक्रियाओं को नहीं समझ पा रहे। भविष्य में इससे होने वाले नुकसान का आकलन नहीं कर पा रहे।
बहरहाल, इस सोच का परिणाम कुछ और हो न हो, हम एक नये वर्ग-संघर्ष की ओर बढ़ चुके हैं। नर और नारी के बीच में प्रतिस्पर्धा के बीज बो दिये गये हैं। फलस्वरूप उत्पन्न हो गया है एक ऐसा युद्ध जिसमें नर और नारी आमने-सामने खड़े हैं। हर घर, हर समाज, हर वर्ग, हर क्षेत्र में। यह युद्ध किसी पारम्परिक अस्त्र-शस्त्र से नहीं लड़ा जायेगा। बल्कि यहां भावनात्मक धरातल, आर्थिक शक्ति, शारीरिक आकर्षण, सामाजिक अवस्था, बुद्धि-चातुर्य-कुटिलता आदि का शस्त्रों की तरह इस्तेमाल किया जायेगा। हम समय के एक ऐसे बिंदु पर पहुंच चुके हैं जहां नर-नारी प्रतिपल जीतने के लिए एक-दूसरे को हराने व बदला लेने को आतुर व तत्पर हैं। हम यह छोटी-सी बात भूल गये कि जीत भी गये तो किससे? अपनों से? असल में ऐसे में दोनों ही हारेंगे। हम यह भूल रहे हैं कि नर और नारी प्रतिस्पर्धी नहीं हो सकते, यह तो एक-दूसरे के पूरक हैं। यहां परस्पर सामंजस्य, सम्मान व संतुलन की आवश्यकता है, न कि समानता व स्वतंत्रता की। ये एक-दूसरे के साथ मिलकर ब्रह्म की संरचना कर सकते हैं मगर एक-दूसरे को विस्थापित कर विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।