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जीत-हार का खेल

हर खेल की अंतिम परिणति जीत या हार ही होती है। एक ही समय में, एक ही व्यक्ति या समूह की, जीत व हार दोनों नहीं हो सकती। हर खिलाड़ी का लक्ष्य भी जीत ही होता है। हार के लिए शायद ही कोई खेलता हो। यह दीगर बात है कि आधुनिक युग में सब कुछ संभव है और स्वयं ही हार जाने की कीमत लगा दी जाने लगी है। बहरहाल, सामान्य अवस्था में कमजोर से कमजोर, जिसे इस बात का अंदाजा होता है कि वह हारने वाला है, मगर उसे भी मन ही मन में कहीं न कहीं जीत की उम्मीद होती है। यही उसे खेलने के लिए प्रेरित करता है। यहां तक कि दर्शक भी जीत व हार के कारण ही उत्साहित और रोमांचित होते हैं। वो किसी न किसी के पक्ष में पहले से ही होते हैं या खेल के दौरान हो जाते हैं, फिर उसकी जीत के लिए स्वयं ही स्वयं से मानसिक रूप से खेलने लग पड़ते हैं और फिर दर्शकदीर्घा से ही अपने पसंदीदा खिलाड़ी को जीत के लिए प्रोत्साहित करने लग पड़ते हैं। दर्शकों के खेलने का ढंग यहां भिन्न हो सकता है मगर उनकी भागीदारी को कम करके नहीं आंका जा सकता। और फिर जीत की खुशी का अहसास खिलाड़ी के साथ-साथ संबंधित दर्शक को भी बराबर से कई बार अधिक ही होता है। यह एक तरह का भावनात्मक रिश्ता है जो खिलाड़ी और दर्शक के बीच न जाने कैसे और कब मजबूती से बन जाता है। इसे शब्दों में ठीक-ठीक परिभाषित नहीं किया जा सकता।

जीत में रोमांच है, उत्साह है, उमंग है। यह आत्मविश्वास को बढ़ाता है। यह स्वयं में श्रेष्ठ होने का गुण पैदा करता है। औरों से बेहतर होने को प्रमाणित करता है। इससे आत्मसम्मान बढ़ता है। यह गौरव प्रदान करता है। अब तो यह वैभव से भी जुड़ गया है। नाम-दाम सब प्राप्त होने लगते हैं। समाज में रुतबा हो जाता है। अगर यह कहा जाये कि आजकल जीत खेल से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शायद यही कारण है कि अब जीत-हार का भी खेल होने लगा है। और तो और इसको विस्तारित किया जा रहा है। सभी किस्म के दांवपेंच से लेकर राजनीति सब कुछ की जाती है। हार-जीत के साथ जितना अधिक मान-सम्मान व लाभ जुड़ा होगा उतना ही इसमें जोड़-तोड़ शुरू हो जाती है। अब तो समाज के हर क्षेत्र को खेल ही नहीं प्रतिस्पर्धा में परिवर्तित कर दिया गया है। फलस्वरूप मनुष्य भी जीत-हार के खेमे में बंटकर रह गया है।

ऐसा नहीं कि जीत-हार का यह खेल आज का है। यह युगों से चला आ रहा है। राजाओं के बीच युद्ध होते रहते थे जो फिर जीत-हार पर जाकर ही रुकते थे। इससे गुलामी तक हो सकती थी, राजपाट चला जाता था। अधिकांश हारे हुए राजाओं की जान ले ली जाती थी। जबकि जीतने वाले राजा का मान-सम्मान ही नहीं, राज विस्तार से लेकर अहंकार तक बढ़ जाता था। उन दिनों जीत सीधे-सीधे सैन्य संख्या बल व शक्ति से निर्धारित होती थी। मगर यह पूर्ण सत्य नहीं है। नेतृत्व की कुशलता, बुद्धि, साहस और चतुर-चालाक नीति भी काम करती थी। फिर नेतृत्व के संयोजन व प्रबंधन क्षमता का अपना महत्व तो होता ही था। और सबसे बड़ी बात किस्मत को कैसे छोड़ा जा सकता है। ये सब आज के वर्तमान युग के हर खेल में भी उतने ही उपयोगी व संदर्भित हैं और प्रासंगिक भी जितने पहले होते थे। संक्षिप्त में कहें तो हार में सब कुछ हारा जा सकता था जबकि जीत तो फिर जीत है। मगर यह भी कोई जरूरी नहीं। संधि का खेल भी चतुर-चालाक धूर्त राजाओं ने बीच के एक रास्ते के रूप में निकाल रखा था। यही कारण है कि कई हार के बाद भी अनेक राजाओं की राजसत्ता बरकरार रही। यही नहीं कइयों ने बिना किसी युद्ध के संधि-समझौतों से सदा राजसुख व ऐश किया है। यही क्यों? युद्ध के समानांतर बहुत कुछ और घटनाक्रम भी होते रहते थे। धोखा, छल, कपट से भी युद्ध जीते जाते थे। लालच, भ्रष्ट आचरण, बगावत और विभिन्न माननीय कमजोरियां तो उन दिनों भी उतनी ही थीं। और जो अधिक से अधिक और पहले इसका उपयोग कर ले, बाजी उसकी हो जाती थी। दुश्मन को इन हथकंडों के द्वारा कमजोर किया जाता था। जीत के जुनून में अकसर उच्चवर्ग ने इन सभी नकारात्मक गुणों को भी कूटनीति के अंतर्गत रखकर महिमामंडित कर रखा था। और फिर बुद्धिजीवियों से यह भी प्रचलित करवा दिया था कि युद्ध में सब जायज है। जीत के लिए खेल (युद्ध) के नियम तक परिवर्तित कर दिये जाते थे। बेशक बाद में फिर इतिहास चाहे जो लिखे जीत तो फिर जीत ही है, जब तक जीतने वाला तो अपना फल ले ही चुका होगा। और फिर इतिहास लिखने वाला भी तो जीतने वाले के विरुद्ध जाकर अधिक कुछ नहीं लिख सकता। उधर, हार वाले का सर्वनाश तो हो ही जायेगा, चाहे फिर उसे जैसे भी मारकर हराया गया हो। असल में सच तो यह है कि हर युद्ध का अंतिम सत्य जीत ही है। और फिर इसके समर्थन में कह दिया गया कि जो जीता वही सिकंदर, चाहे फिर वह बंदर ही क्यों न हो। यही नहीं, राजाओं ने अपने हास-परिहास के खेल में भी सभी उपरोक्त गुण-अवगुणों का समावेश कर रखा था। तभी तो उन्हें चौपड़-चौसर खेलना पसंद था। इसमें भी हार-जीत का एक लंबा रोचक इतिहास रहा है। जहां राजपाट के साथ-साथ रानियां भी दांव पर लगा दी जाती थीं। क्या आधुनिक युग में ऐसा कोई खेल है? शायद नहीं। और अगर हो भी तो दुनिया की निगाह से छिपकर, नैतिकता के आवरण में ढककर खेला जाता होगा।

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वर्तमान युग ने हार-जीत के खेल को विस्तारित किया है। अब चूंकि हर बात में जीत-हार महत्वपूर्ण हो चुकी है तो खेल भी तरह-तरह से खेला जाने लगा है। हर खेल में राजनीति आ गयी है तो राजनीति भी अब खेल हो चुकी है। क्या प्रजातंत्र आपको एक किस्म का खेल प्रतीत नहीं होता? बिल्कुल! खेल व युद्ध के सभी रंगों व रूपों का मिश्रण यहां देखने को मिलता है। सच तो यह है कि अब खेल के विभिन्न रंग-रूप जीवन के हर क्षेत्र में उपस्थित हैं। जीत के लिए कुछ भी करेगा का सिद्धांत अब अपने चरम पर है। और हो भी क्यों न, जब जीतना ही परम उद्देश्य बन जाये तो फिर बाकी कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। कैसे जीत हुई? बाद में कोई नहीं पूछता। और अगर पूछ भी लिया तो उसका क्या महत्व रह जाता है? अब जीत सिर्फ बेहतर गुणों व शक्ति के कारण नहीं होती। सामने वाले की हार भी, फिर चाहे वो किसी भी कारण से हुई हो, आपके जीतने का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए स्वयं के शक्ति-गुण को चाहे जितना बढ़ाओ, मगर सामने वाले को कितना कमजोर कर रहे हो, बांट व भेद रहे हो, यह अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। और फिर निर्णायक मंडल भी तो अपनी भूमिका अदा कर सकता है। आवश्यकतानुसार चुपचाप नियमों में फेरबदल की जा सकती है। शक का मौका देख किसी एक पक्ष को फायदा पहुंचाया जा सकता है। संक्षिप्त में कहें तो खेल से ज्यादा इन बातों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। आधुनिक युग का सच तो यह है कि चुनाव का दंगल हो या फिर कार्पोरेट-वार से लेकर आम पहलवानी का मल्लयुद्ध, जीत-हार के सभी दांव-पेंच यहां झोंक दिये जाते हैं। मजबूत से मजबूत खिलाड़ी के आत्मविश्वास को दर्शक ही नहीं आम जनता से लेकर मीडिया भी निरुत्साहित करके हरा सकती है। इनका क्या है, वो तो जिसके लिए भी ताली बजाने या तरफदारी करने पर आ जाये तो फिर रुकते नहीं। फिर चाहे यह भावना के लिए किया गया हो या फिर जाति, क्षेत्र या फिर पैसे के लिए। सच भी तो है पैसे का खेल हो या खेल में पैसा, भावनाओं से खेला जाये या खेल की भावना, सभी खेल का अंतिम उद्देश्य तो जीत ही है। हां, जीत के सौदे भी हो सकते हैं। कहने को तो सौदा तो एक शुद्ध व्यावसायिक प्रक्रिया है मगर फिर खेल भी तो अब व्यवसाय बन गया है। उधर, व्यवसाय को भी खेला जाता है। इस जीत-हार ने खेल शब्द को कितना तोड़ा-मरोड़ा है, इस पर शोध किया जाना चाहिए।

बहरहाल, कोई हार कर भी जीत सकता है और कोई जीतकर भी हार सकता है। मगर सबसे बड़ी मुश्किल इस बात की है कि हमने जीवन को भी खेल बना दिया है। इसे भी जीत-हार के चक्रव्यूह में डाल दिया है। तमाम जिंदगी मनुष्य कोई न कोई खेल ही खेलता रहता है जिसमें सब कुछ दांव पर लगा दिया जाता है। मगर हम अमूमन यह भूल जाते हैं कि अगर अंत में जीवन ही हार गये, तो?