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जीवन की अनिश्चितता

क्या कोई भी व्यक्ति अपने अगले पल के बारे में दावे से कुछ भी कह सकता है? बिल्कुल नहीं। संक्षिप्त में कहें तो जीवन कितनी अनिश्चितताओं से भरा पड़ा है। बड़ी से बड़ी घटना-दुर्घटना का अनायास होना, जीवन में अचानक सफलता-असफलता का प्राप्त होना, सुख-दुःख, भारी उतार-चढ़ाव, अप्रत्याशित लाभ-हानि, कभी भी कुछ भी हो सकता है। यही क्यों, जीवन-मरण व यश-अपयश इनमें से कुछ भी मिनटों में खेल बना-बिगाड़ सकते हैं। पूरे जीवन की कमाई एक मिनट में गंवाई जा सकती है और दरिद्र से दरिद्र अगले ही पल करोड़ों में खेल सकता है। इज्जत का क्या है यह तो मिनटों में खत्म हो सकती है। सांसें किसी भी पल रुक सकती है। सामान्यतः आम जीवन में ऐसा कुछ नहीं होता, और जब भी किसी के साथ होता है तो उसे हम अनहोनी व भाग्य से जोड़कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। मगर इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि कड़ी मेहनत के बाद भी पेट भरने लायक नहीं कमाया जा पाता तो कई बिना कुछ किये ही ऐशो-आराम की जिंदगी पा जाते हैं। इसे किस्मत से जोड़ दिया जाता है। भाग्य का विचार भी एक किस्म की अनिश्चितता से ही उपजता है। बहरहाल, इन कटु तथ्यों को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। मजेदारी तो इस बात की है कि इन सब अनिश्चितताओं के बीच भी हम कितने निश्चिंत होकर जीते हैं। जीना भी चाहिए। साथ ही आशावादी बनकर परिश्रम व प्रयासरत रहने की प्रेरणा भी देंगे। यह कह-सुनकर कितना अच्छा लगता है। अधिकांश इसे सकारात्मक रूप में लेंगे और इसका समर्थन करेंगे। सामान्य रूप में करना भी चाहिए। इस दृष्टिकोण में यहां तक तो सब उचित है, मगर इस भाव में बहकर हम जिस तरह से जीते हैं, जिसके लिए जीने लग पड़ते हैं, किसी आस व इच्छा को पालकर जीवन की चाहत बना डालते हैं और फिर उसे पाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, कई बार सोचने के लिए मजबूर ही नहीं करता हास्यास्पद भी हो जाता है।

एक आम कथन यहां सटीक बैठता है कि हम जीवन को इस तरह से जीते हैं मानों यहां से कभी कहीं जाना ही नहीं है और मृत्यु को इस तरह से लेते हैं कि मानों इसे कभी आना ही नहीं है। फलस्वरूप स्वयं को अमर मान बैठते हैं। तभी तो स्थायी निवासी के प्रमाणपत्र के चक्कर में रहते हैं जबकि हर एक रहने वाले का जीवन ही अस्थायी है। रुककर सोचें, एक मिनट के लिए झटका लगेगा। हम अपने-अपने निजी मकान बनाने के चक्कर में क्या नहीं करते? मार-काट, जोड़-तोड़, गलत-सही काम करने से भी नहीं हिचकिचाते। जबकि मकान तो स्थिर है मगर मानव अस्थिर। यही नहीं, ऐसी-ऐसी योजनाएं बनाते हैं जिसकी समय-सीमा सालों-साल ही नहीं दशकों के लिए होती है। और तो और कल का भरोसा नहीं और बचपन से ही बुढ़ापे की योजना शुरू हो जाती है। इन सब बातों में जवानी के आनंद के समय वृद्धावस्था की चिंताएं कर स्वयं को भयभीत करते रहते हैं। भविष्य के चक्कर में वर्तमान को नष्ट करते हैं। अब तो हर युवा को भविष्य की योजना बनाने के लिए प्रेरित किया जाता है। आधुनिक पाठशाला में उसे इस क्षेत्र में शिक्षित किया जाता है। विशेष करके आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के नाम पर, पैसों की योजना, विभिन्न स्कीम, बांड आदि-आदि की जानकारी दिमाग पर लाद दी जाती है। और इसकी नींव बचपन में ही डाल दी जाती है। इसी को विस्तार दें तो जमीन-जायदाद से लेकर बैंक-बैलेंस में आगे शून्य लगाने के चक्कर में जीवन को झोंक दिया जाता है। अमूमन किसी शहर में एक मकान के बना लेने से मन नहीं भरता और ये चाहत बढ़ती चली जाती है। इसकी फिर कोई सीमा तो होती नहीं। संग्रह करने की प्रवृत्ति कहां से शुरू होकर कहां तक चली जाती है, पकड़ पाना मुश्किल है। आश्चर्य तो सबसे बड़ा यहां यह है कि इस संग्रह करने की प्रवृत्ति के पीछे भी अनिश्चितता का भय ही होता है। कितना विरोधाभास है। ऐसे उदाहरण तो कई और भी हैं। एक तरफ बड़े से बड़ा असंभव से असंभव सपने देखने की बात की जाती है, अनंत विशाल आकाश को छूने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, साथ ही संतोष में ही सुख है और जो जितना जैसे मिले उसमें संतुष्ट रहने की कोशिश करना चाहिए, यह भी कहा जाता है। जब अगले पल का भरोसा नहीं कि जीवन रहेगा कि नहीं, इसे पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए हम इस बात के लिए अधिक चिंतित रहते हैं कि आने वाले समय में हमारे खाने-पीने-रहने का क्या होगा? यह डर शायद बुद्धि के विकास के प्रारंभिक काल से ही हो चुका होगा। हो सकता है कि अनाज का संग्रह व पशुओं को पालना मनुष्य ने तभी शुरू कर दिया हो। अकाल-सूखा और बाड़ की विभीषिका के अनुभव ने उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित भी किया होगा। जीवन के इस कटु अनुभव को उसने अपनी अगली पीढ़ी को भयाग्रस्त होकर समझाने व सिखाने की कोशिश की होगी। और यह डर भय बनकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी नये-नये अनुभवों के साथ स्वभाव के साथ सभ्यता में उतरता चला गया होगा। जहां हर पीढ़ी ने अपने-अपने तरह से इसका विस्तार किया होगा। और यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते हर क्षेत्र में पहुंच गया। आज यह अपने चरम पर है। अधिक जनसंख्या और सीमित साधन ने स्थिति को भयावह बना दिया है। भौतिक चाहतों ने हर एक की इच्छाओं को बढ़ाकर समाज में अराजकता का माहौल पैदा कर दिया है। कहने के लिए इसे प्रतिस्पर्धा और जाने क्या-क्या नाम दें मगर सब असुरक्षा और अनिश्चितता से ही उत्पन्न होता है।

यहां अब सिर्फ धन और धान्य की बात नहीं होती। पिछली कुछ पीढ़ियों से तो बच्चों की शादी-ब्याह की योजनाएं भी कम उम्र में बनाई जाने लगी। गहने, जेवर, जेवरात बना-बनाकर इकट्ठे कर लिये जाते। लेन-देन के वस्त्र, बेटी-बहू की साड़ियां खरीदकर रख ली जाती। मगर कितनी तकलीफ होती होगी जब कोई अनहोनी घट जाये। मगर यह सिलसिला आज भी चल रहा है। लेकिन आज तो कई बार स्थितियां हास्यास्पद हो जाती होंगी, जब बच्चे मां-बाप की इच्छा के विरुद्ध अचानक घर छोड़कर अपनी मर्जी से शादी कर लेते होंगे। कई बार तो माता-पिता को भी छोड़ देते है। अपने परिवार से अलग हो जाते हैं। यहां तक कि समाज के विरुद्ध भी चले जाते है। ऐसे में मां-बाप की सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती है। वो तमाम सामान अब किसी काम का नहीं रहता। यह कितना कष्ट देता होगा? इसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने ऐसे सपने लंबे समय तक पाल रखे हों। और फिर जिसके साथ ऐसा कुछ घटित हो जाये। ऐसे और भी कई उदाहरण मिल जायेंगे। कई शहरों में स्थित अपने मकानों में से किसी भी घर में व्यक्ति कई बार जीवनपर्यंत नहीं रह पाता। और कभी-कभी अंत में ऐसी जगह जीवन गुजारना पड़ता है जहां उसने कल्पना भी नहीं की होगी। आपके सपनें कब, कितने, किसके साकार होंगे? यह कोई दावे से नहीं कह सकता। सत्य तो यह है कि इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जबकि उसे ही पाल कर संजोने के लिए वर्तमान समाज सबसे ज्यादा उकसाता है।

उपरोक्त लेख को जीवन की नकारात्मकता के रूप में लिया जा सकता है। इसे निरुत्साहित करने वाले विचार कहा जा सकता है। इसे विज्ञान की भाषा में डिप्रेशन से उपजा भाव कहा जा सकता है। घिसी-पिटी पुरानी सोच कही जा सकती है। इसे आधुनिक युग बेशक सार्थक रूप से न ले, मगर जीवन के कटु-सत्य को कब तक झुठलाया जा सकता है? शायद तभी तक जब तक जीवन की अनिश्चितता से आपको स्वयं कभी किसी मोड़ पर दो-दो हाथ न होना पड़े। आप तभी तक सुरक्षित हैं, प्रतिस्पर्धी हैं, जब तक समय के थपेड़े आप पर आक्रमण नहीं कर रहे। जीवन जीने के लिए शायद सकारात्मक होना आवश्यक है। मगर अति तो फिर किसी चीज की खराब होती है फिर चाहे वो आत्मविश्वास हो या फिर जीवन की योजना। यह मानव को मशीन व जीवन को टाइम मशीन बना देता है। सच तो यह है कि जीवन की इस अनिश्चितता से बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है। यह मानकर जीना चाहिए कि वर्तमान हमारा है इसी में भरपूर जीने का आनंद उठा लेना चाहिए। इस सत्य को समझना होगा कि हर पल नया है, स्वतंत्र है। इसमें रहस्य है, रोचकता है। यह विचार भी तो रोमांच से भर देता है।

मनोज सिंह