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अंडे का फंडा
ये मुर्गी के अंडे को आजकल क्या हो गया है? पिछले कुछ दिनों से इसमें स्वाद की कमी महसूस होती है। इतना ही नहीं कभी-कभी खाने में अटपटा भी लगता है। हालात ऐसे हो जाते हैं कि एक अंडा भी नहीं खाया जाता। वरना ठंड के मौसम में दो उबले अंडे यूं ही खा लिये जाते थे। यह जानने के लिए कि कहीं यह सिर्फ मेरे साथ ही तो नहीं हो रहा, मैंने कुछ नजदीकी दोस्तों से बातचीत की। चैकाने वाली बात कि उनका भी कुछ इसी तरह का अनुभव था। एक सामान्य ज्ञान के तहत एक मित्र ने यह भी जोड़ दिया था कि पता नहीं आजकल मुर्गियों को क्या-क्या खिलाया जाता है? और फिर शुरू हुई हार्मोन्स के इंजेक्शन और तमाम केमिकल फीडिंग की चर्चा। सच तो यह है कि इस तरह की बातें आजकल आम हो चुकी हैं। इस विषय पर तरह-तरह के मत, अचानक पिछले कुछ वर्षों से समाज में बहस का मुद्दा बन रहे हैं। कुछ एक के कारण तो आश्चर्य होता है तो कई बातों को लेकर भय भी उत्पन्न हो जाता है। मसलन, इस तरह की बातें आज आम की जाती हैं कि सब्जियों-फलों को रातोरात आधुनिक कृत्रिम रासायनिक खाद व दवाई आदि से बड़ा कर दिया जाता है, तो फिर ये शरीर के लिए हानिकारक भी होगी, ऐसे कई सवाल भी साथ में आम चर्चा में शामिल हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ मीट और मुर्गे को लेकर भी खबरें उड़ती रहती है। आम चर्चा के ये विषय खानपान में की जा रही मिलावट के अतिरिक्त है। यह दीगर बात है कि अधिकांश खरीददार के पास इन बातों पर अधिक सोचने के लिए वक्त नहीं और फिर बाजार में कोई विकल्प भी तो नहीं। मगर जिनके पास थोड़ा-सा भी अतिरिक्त पैसा और सहूलियतें हैं वे इनसे बचने की कोशिश में प्रयासरत हो चुके हैं। ये वर्ग, कई बार अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो जाता है जबकि ये भी नहीं जानते कि इन नये किस्म की फसलों की असलियत क्या है। हकीकत क्या है, आमजन की क्या बात करें, अच्छे पढ़े-लिखे को भी नहीं पता। सब सुनी-सुनाई बातों को आगे फैलाते रहते हैं। परिणामस्वरूप खरीदार और बेचने वाले दुकानदार के बीच विश्वास-अविश्वास का उबड़-खाबड़ दौर चल पड़ा है। यह सच है कि बेमौसमी सब्जियां और फल बाजार में आनी लगी हैं। आजकल तकरीबन सभी फल अत्यधिक मीठे होते हैं। कुछ समय पूर्व तक सुर्ख लाल मीठा तरबूज पूरे मौसम में कोई एक-दो मिल जाये तो बड़ी किस्मत की बात होती थी। अब तो दुकानदार दावे से हर तरबूज-खरबूज को काटकर-दिखाकर-खिलाकर फिर देने की बात करता है। फल व सब्जियां देखने में अत्यधिक ताजी, उनकी बाहरी त्वचा चमकीली व आकार में ये अमूमन बड़ी होने लगी हैं। किसी के मुंह से दो फीट लंबी लौकी की बात कभी गर्व से कहते हुए सुनी होगी, यह अब आम है। मगर इसके साथ ही ग्राहकों के बीच यह आम धारणा भी तेजी से फैलती जा रही है कि यह सब केमिकल सिंथेटिक खाद-पानी आदि का कमाल है, और शायद ऐसा ही कुछ मुर्गी और बकरे को बड़ा और हृष्ट-पुष्ट करने के लिए भी किया जाता है। इन सबके बीच सुनाई पड़ता है कि गाय-भैंस को भी अधिक से अधिक दूध देने के लिए, तरह-तरह के इंजेक्शन लगाये जाते हैं। अब ये सब कितना प्राकृतिक, सुरक्षित और आवश्यक है, पता नहीं, मगर आमजन के लिए चिंता का विषय जरूर बनते जा रहे हैं। अंधेरे में रहकर अज्ञानता में समझना तो और अधिक मुश्किल है। ऐसे हालात में इस संदर्भ की अफवाहें फैलने से कौन व कैसे रोक सकता है?
जटिल कृषि विज्ञान को समझना आमजन के लिए तो वैसे भी मुश्किल है। मगर संबंधित कृषि वैज्ञानिकों से आम शब्दों में बात की जाये तो इसके पक्ष में उनके द्वारा कई दलीलें दी जाती हैं। एक सफर के दौरान कृषि विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर से इसी मुद्दे पर बातचीत हो रही थी। उनका कथन मुझे आज भी याद है कि यह हमारी मात्र शंका है जबकि हकीकत में पैदावार आखिरकार उसी प्रक्रिया या कह लें रास्ते से तो हो रही है, उसी प्राकृतिक माध्यम के द्वारा हो रही है, यह किसी कारखाने में तो बनाई नहीं जा रही, इसीलिए इस पर किसी भी तरह की चिंता करना उचित नहीं। यह सच है कि कुछ समय पूर्व जब रासायनिक खादों का प्रचलन अचानक बढ़ा था तब भी, इस प्रकार की कई शंका-कुशंका प्रकट की जाती थी। अच्छी उम्र के अधेड़ और वृद्धजनों को याद होगा कि रासायनिक खादों के उपयोग से पूर्व और बाद के खानपान के स्वाद में कितना फर्क आया था। लेकिन फिर समय के साथ धीरे-धीरे आदत पड़ गयी। और फिर जो भी बाजार में उपलब्ध हुआ उसे स्वीकार कर लिया गया था। इसके समर्थन में सबसे बड़ी बात यह भी थी कि इससे पैदावार बढ़ी थी। और फिर फसलों को टिड्डी, कीट व खरपतवार से नष्ट होने से बचाना भी जरूरी था। कई जगह बंजर भूमि में भी खेती संभव हुई थी। अधिक से अधिक, जल्दी से जल्दी, ज्यादा से ज्यादा फसल लेने की कोशिश ने ही खाद के प्रचलन को बढ़ाया। ठीक भी है, जनसंख्या के विस्तार का मुकाबला भी करना था। साथ ही विभिन्न बीमारियों से खेती को बचाने के लिए भी इन कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता था। मगर लगता है कि कृषि वैज्ञानिक अपनी इसी राह में काफी आगे बढ़ चुके हैं। कृषि अनुसंधान और शोध में नये-नये उपाय किये जा रहे हैं। ठीक बात भी है, पिछले कुछ वर्षों से जिस तेजी से जनसंख्या का विस्तार हो रहा है, अनाज की पैदावार बढ़ाने का कोई न कोई तरीका निकालना ही होगा। एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर मकान-कारखानों का विस्तार हो रहा है, स्वाभाविक है कि खेत-खलिहान सिकुड़ रहे हैं। यह अनाज उत्पादन पर एक तरह से दोहरी मार है। ऐसे में फसल की पैदावार को बढ़ाने में लगे वैज्ञानिकों का कोई भी तरीका समाजशास्त्रियों और राजनेताओं को स्वाभाविक रूप से मान्य होगा। इसके फायदे-नुकसान की गहराई में जाना उनके लिए व्यावहारिक रूप से संभव नहीं। मगर दूसरी तरफ जागरूक उपभोक्ता के मन में दुविधा का होना लाजिमी है। और फिर कम जानकारी के कारण कई तरीके के सवाल समाज में पैदा हो रहे हैं। बहरहाल, यहां इस खेल में भी अब कई नाटक शुरू हो चुके हैं। आर्गेनिक फूड (जैविक खानपान) का चलन तेज से बढ़ रहा है। बड़े-बड़े जमींदार व रईस अपने घर-परिवार के लिए खेत के छोटे से टुकड़े व फार्म-हाउस में बिना खाद-रासायन के फल और अनाज पैदा करते हैं। बड़े-बड़े स्टोरों में आर्गेनिक फूड के नाम से विभिन्न खाद्यान्न अच्छे ऊंचे दामों में बेचे जाते हैं। यह कितना वास्तव में सही या मात्र दिखावा है, कहना मुश्किल है। विकसित देशों में इस संबंध में कई नियम और दिशा-निर्देश आ रहे हैं। मगर ये अब तक अपर्याप्त हैं। हिन्दुस्तान में जहां नव-धनाढ्य की संख्या बढ़ रही है तो पश्चिमी नकल के चक्कर में इसका प्रचलन यहां भी आ पहुंचा है। मगर अभी इस बारे में बहुत-सी जानकारियां साफ और सही-सही आसानी से उपलब्ध नहीं है। मगर व्यापार में व्यवसाय का यह एक नया तरीका जरूर बनता जा रहा है। हिन्दुस्तान में देसी अंडा, देसी घी इस तरह के नामों का प्रचलन तो काफी समय से चला आ रहा था। ये आज भी बेहतर माने जाते हैं। इसकी कीमत भी अधिक होती है। अर्थात अब खान-पान के क्षेत्र में भी दो तरह के समाज की उत्पत्ति हो रही है। यह विभाजन किस हद तक जायेगा, आज की तारीख में कह पाना मुश्किल है।
बहरहाल, इस बात की गंभीरता से आवश्यकता है कि अधिक से अधिक संदर्भित जानकारी लोगों तक पहुंचाई जाये। इस मामले में भ्रम की स्थिति ठीक नहीं। यह स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है, ग्राहक को पता होना चाहिए। यह सच है कि नयी तकनीकी के बिना हम इतनी बड़ी आबादी का पेट नहीं भर सकते। मगर क्या हम अपनी गलतियों की सजा आने वाली पीढ़ियों को भी देंगे? बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के लिए आखिरकार कौन जवाबदार है? आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि जनसंख्या विस्तार को रोकने की अब हमने सारी कोशिशें भी छोड़ दी है। और तो और कई देश और समाज ने तो अब इस ओर सोचना भी छोड़ दिया है। तो क्या यह मान लिया जाये कि स्वार्थवश इसकी भयावहता से हम आंख मूंद लेना चाहते हैं? प्रकृति में हर तरह का संतुलन है। हर एक जीवित पशु-पक्षी की जनसंख्या को नियंत्रित करने के उसके अपने तरीके हैं। लेकिन हम इनसान ने अपनी फितरत में इस चक्र को भी तोड़कर प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश की है। विज्ञान के तथाकथित विकास ने आदमी के जीवन का विस्तार कर दिया, यहां तक तो सब कुछ उचित जान पड़ता है, मगर थोड़ा-सा रुककर सोचने पर कुछ और बातें भी निकलकर सामने आती हैं। उपरोक्त अंडे के फंडे पर एक दोस्त से बाचतीत के दौरान उसके एक कथन को इस संदर्भ में लिया जा सकता है कि नये-नये तरीके से मुर्गी से अंडा तो पैदा किया जा रहा है, मगर इसके पीछे भी ऊपर वाले की माया ही है, आगे-आगे देखिये क्या होता है। उसकी कुटिल मुस्कान के पीछे छिपी भावना को मैं कुछ देर बाद ही समझ पाया था। कहीं प्रकृति ने हमारी तमाम होशियारी की इजाजत किसी खास मकसद से तो नहीं दे रखी?
अगर हम दर्शनशास्त्र की ओर न जायें तो भी, यह कैसा विकास है जहां जीवन में स्वाद ही नहीं। जिस तरह की बीमारियां, नये-नये असाध्य रोग रोज सुनने में आते हैं, कई बार तो अचरज होता है। याद कीजिए, ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब ठंड के मौसम में सड़क किनारे ठेले पर उबलते अंडे खाने का अपना एक अलग ही मजा था। चूंकि इसमें मिलावट की कोई संभावना नहीं होती थी, इसलिए यह सभी के लिए सुरक्षित माना जाता था। रोज मेहनत कर कमाकर खाने वाले से लेकर गाड़ी वाले अमीर भी रुककर गर्म-गर्म दो अंडे खा लिया करते थे। मात्र नमक डालने से उन अंडों को खाने में जो स्वाद महसूस होता था और जो गर्माहट प्राप्त होती थी उसका वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं है। अब उस स्वाद और गर्माहट को कहां से लाओगे? एक और दोस्त के मतानुसार अंडा तो अब मानों आलू बन चुका है। मगर फिर सवाल किया जा सकता है कि आलू में भी वो बात कहां रही?