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जनसैलाब की मानसिकता

आधुनिक युग ने मनुष्य के भावनात्मक पक्ष को सर्वाधिक प्रभावित किया है। जीवन मशीन बन चुका है। लोगों के पास, दूसरों की क्या बात करें? स्वयं के लिए भी वक्त नहीं है। कुछ समय पूर्व तक दूर की रिश्तेदारी में भी शादी-ब्याह और मौत पर पूरा कुटम्ब इकट्ठा हो जाता था। अब सगे-संबंधियों के घर के महत्वपूर्ण कार्यक्रमों तक में परिवार के लोग नहीं पहुंच पाते। शहरों में तो हालात और बदतर है। विवाह के आमंत्रण में लोग सीधे शादी के मंडप और मृत्यु की सूचना प्राप्त होने पर श्मशानघाट पहुंचकर अपनी हाजिरी लगा आते है। वो भी जरूरी नहीं है। स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि कई बार अंतिम यात्रा के लिए चार कंधे भी नहीं मिल पाते। महानगरों में गुमनाम जिंदगी के साथ-साथ गुमनाम मौत भी अब आम बात है। ऐसा बड़े और लोकप्रिय लोगों के साथ भी देखा जा सकता है। जहां अपने जमाने के मशहूर और सफल लोगों की लाश को भी लावारिस घोषित करने की नौबत आ जाती है।

ऐसे काल और समाज में किसी की मौत पर लाखों लोग इकट्ठा हो जाये तो अचरज होना स्वाभाविक है। मीडिया की रिपोर्टिंग पर यकीन करें तो बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए जितनी बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हुए थे वो ऐतिहासिक था। टेलीविजन के दृश्य को देखकर मैं भी कह सकता हूं कि इतनी बड़ी भीड़ मैंने पहले कभी नहीं देखी। कुछ मीडियाकर्मियों ने चेन्नई में अन्नादुरई के अंतिम संस्कार से इसकी तुलना की तो कुछ एक समाचारपत्रों के मतानुसार 1920 में तिलक की अंत्येष्टि में भी ऐसा ही जनसमूह मुंबई में उमड़ पड़ा था। इस दौरान टेलीविजन पर महात्मा गांधी, नेहरू और इंदिरा की अंतिम यात्रा का भी जिक्र हुआ। मेरे मतानुसार इस तरह की घटनाओं की तुलना भावनात्मक रूप से ही नहीं हर तरह से अनुचित है। वैसे भी समय, काल, स्थान और परिस्थितियां इस पर बहुत ज्यादा असर डालती हैं इसलिए भी ऐसा कोई तुलनात्मक विश्लेषण करना ठीक नहीं। कुछ एक आलोचकों के मतानुसार महानगरों की बढ़ती जनसंख्या, मीडिया का प्रभाव, अवकाश का दिन और संबंधित राजनीतिक पार्टी का डर, इतनी बड़ी भीड़ के इकट्ठा होने का कारण हो सकती है। मगर ये सब अर्थहीन व अंतहीन बहस का विषय है। इन मतों को काटने वाले सैकड़ों तर्क भी दिये जा सकते हैं और दिये गये। चाहे जो भी हो और जिस तरह भी कहा जाये, यह उस संदर्भित व्यक्ति की लोकप्रियता का पैमाना तो है ही। साथ ही यह अवाम से उसके भावनात्मक जुड़ाव का प्रदर्शन भी करता है। बहरहाल, इस तरह के घटनाक्रम मानवीय सोच एवं आम आदमी के व्यक्तित्व की गुत्थियों को और उलझा देते हैं। कैसे कुछ एक व्यक्ति लाखों-करोड़ों लोगों को प्रभावित कर जाते हैं जबकि सामान्य अवस्था में लोग एक-दूसरे की सही बात स्वीकार कर लें, इसकी संभावना भी कम होती है। यह एक रहस्य है। इंसानी मानसिकता का एक ऐसा पक्ष जिसे समझ पाना आसान नहीं। बुद्धिजीवी इसे तरह-तरह से परिभाषित कर सकते हैं। नये-नये अकादमिक नाम दिये जा सकते हैं, और फिर इसके समर्थन में तरह-तरह के दृष्टिकोण रखे जा सकते हैं। लेकिन सच तो यह है कि इसे किसी भी तरीके से शब्दों में सीधे-सीधे नहीं कहा जा सकता। आमजन की मानसिक गुत्थियों को सुलझाया नहीं जा सकता। मानवीय समझ के बंद दरवाजे की कुंडी खोलकर पीछे छिपे अंधेरे को पढ़ा नहीं जा सकता। इसके कोई पैमाने सुनिश्चित नहीं किये जा सकते।

अब इसी घटनाक्रम को विश्लेषित करें तो अनेक समर्थकों के लिए वे एक महान व्यक्ति, साफ व सीधा बोलने वाले, अपनी बात पर अडिग रहने वाले, स्थानीय व गरीब के समर्थन में खड़े होने वाले निडर व सच्चे राजनीतिज्ञ थे। मगर दूसरी तरफ कई लोगों के मतानुसार वे एक विवादास्पद व्यक्ति थे। उनके आलोचकों की बात मानी जाये तो उन्होंने जीवनपर्यंत वो सब किया जो सामान्य अवस्था में समाज में समाज के लिए समाज को स्वीकार्य नहीं हो सकता। अगर हर दूसरा व्यक्ति उन्हीं की तरह आचरण करने लगें तो अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है। उनसे संबंधित ऐतिहासिक घटनाक्रम के कई ऐसे पक्ष हैं जिनके बारे में, उनके अंतिम संस्कार के दौरान भी, मीडिया में लोग कहने से नहीं चूके। फिर चाहे वो मुंबई की यूनियन की हड़ताल को कमजोर व सेठ-साहूकारों को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देने का मामला हो या फिर भाषा व क्षेत्रवाद के नाम पर दूसरे प्रदेशों से आये हुए अपने ही देश के नागरिकों को प्रताड़ित करने का मामला हो। डर, दंगे व असामाजिक तत्वों जैसे कई बिंदु हैं जिन पर भी अपने-अपने पक्ष रखे गये। मगर कोई भी इस बात का सही-सही जवाब नहीं दे पाया कि अगर यह सब सच है तो इतनी बड़ी तादाद में आम जनता किसी व्यक्ति विशेष के साथ क्यों जुड़ती है? कुछ लोगों ने इसके पीछे भय की राजनीति का कारण गिनाया। मगर इस पक्ष और पहलू को कौन समझायेगा कि डर कर आदमी घर में दुबक जाता है, और तो और किसी अप्रत्याशित घटना का अंदेशा भी अगर हो तो उस स्थान पर जाना छोड़ उसे देखकर भी अनदेखा करने की कोशिश करेगा। कम से कम अंतिम संस्कार में खुलकर भाग लेने की तो कोई नहीं सोचेगा। सच तो यह है कि डरा-धमकाकर इतनी बड़ी तादाद में भीड़ को चुनाव की रैली तक के लिए इकट्ठा करना संभव नहीं। प्रलोभन और फुसलाने पर भी कई दिनों का निरंतर प्रयास चाहिए। और फिर इस तरह से इकट्ठा की गई भीड़ से कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती। जबकि उपरोक्त जन-सैलाब पूरी तरह से गमगीन व भावुक होते हुए भी पूरे दिन तमाम रास्ते शांत और व्यवस्थित बना रहा। आज के आधुनिक युग के महानगरीय व्यक्ति के पास स्वयं के लिए भी कई बार वक्त नहीं होता तो फिर पूरे-पूरे दिन सड़कों पर अनुशासित होकर चलना सामान्य बात नहीं। वो भी तब जब आपको यह पता है कि आप जिस कार्य के लिए जा रहे हैं शायद वो अर्थात अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन भी हो पायेंगे या नहीं, जरूरी नहीं। यही मानवीय व्यवहार का रहस्यात्मक पक्ष है। जहां हम अपने ही जैसे किसी हाड़-मांस के व्यक्ति के लिए कुछ भी करने के लिए आतुर हो जाते हैं। इसे ही राजनीतिक शब्दों में अमूमन करिश्माई व्यक्तित्व का नाम दे दिया जाता है। जिसकी कोई परिभाषा व पैमाना सुनिश्चित नहीं। और यह सच भी है, इतिहास के तमाम करिश्माई नेतृत्व को ध्यान से देखंे तो उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप-स्वरूप में, ज्ञान में, बोलने में, विचार में, व्यक्तिगत धन-संपदा, शारीरिक संरचना आदि में भी कोई अति विशेष बात नहीं होती। इसके विपरीत उनसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति उसी काल व स्थान पर, अनेक मिल जायेंगे। मगर एक व्यक्ति विशेष ही लाखों-करोड़ों को पसंद आने लगता है। कहा जाता है इन्हें अच्छा वक्ता होना आवश्यक है, मगर हर अच्छे वक्ता को जरूरी नहीं कि लोग पसंद ही करें। और तो और उस करिश्माई नेतृत्व की बातें कोई और कहे या करे तो शायद आम जनता उसे पसंद भी न करे। सारी हदें तब पार हो जाती हैं जब अच्छा-बुरा, गलत-सही इन लोगों के संदर्भ में कोई मायने नहीं रखता। इसीलिए कभी-कभी इस भीड़ को अंधसमर्थकों का नाम भी दे दिया जाता है।

मेरे मतानुसार, उपरोक्त घटनाक्रम के दौरान, आलोचकों द्वारा दिये गये तमाम बिंदुओं को ध्यान से देखें तो हिन्दुस्तान ही नहीं संसार की राजनीति के तमाम लोकप्रिय राजनेता इसी तरह के हथकंडों का इस्तेमाल, किसी न किसी रूप में, फिर चाहे वो उपयोग-दुरुपयोग ही क्यों न हो, करते रहे हैं। बस कई बार तरीके बदल जाते हैं। कुछ छुपाकर करते हैं तो कुछ खुलेआम कहते हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का खेल तो चलता रहता है। बस, जनसमूह का चेहरा बदल जाता है। सच तो यह है कि राजनीति कभी भी समस्त मानवगण के लिए नहीं की जाती। हर राजनेता ने हर काल व समाज में अपने-अपने समूहों का विशेष ध्यान रखा। या यूं कहें कि एक समूह का प्रतिनिधित्व कर पूरे समाज पर अपना एकाधिकार बनाया। ठीक भी है, समस्त मानव जाति को एक साथ संतुष्ट भी नहीं किया जा सकता। हरेक की अपनी-अपनी जरूरतें हैं, इच्छाएं हैं, मजबूरियां हैं, तकलीफें हैं। किसके साथ कौन, कब, किस हद तक स्वयं को जोड़ लेता है यही उस व्यक्ति की होने वाली लोकप्रियता का आधार बन जाता है। संवेदनशील मामलों के समर्थन या विरोध में कम राजनेता ही खुलकर सामने आते हैं। अधिकांश छिपकर अपना एजेंडा सुनिश्चित करते हैं। मगर यह भी हकीकत है कि भावनात्मक पक्ष को हवा दिये बिना जनसमर्थन मिलना असंभव है। लेकिन हर बार यह फार्मूला चल जाये, यह भी जरूरी नहीं है। इसीलिए अंत में कई बार राजनैतिक सफलता को किस्मत और समय से भी जोड़ दिया जाता है। यह भी सच है कि किसी करिश्माई नेतृत्व से किसी समाज में कोई विशेष या मूलभूत परिवर्तन हुआ हो, ऐसा भी दिखाई नहीं देता। फिर भी जनता इनकी दीवानी होती है। ये करिश्माई नेतृत्व सपने दिखाते हैं। सपनों में जीना सिखाते हैं, हकीकत में वो किस हद तक कार्यान्वित हो पाता है, कोई आवश्यक नहीं। मगर फिर भी वे लोगों के चहेते बने रहते हैं। बाला साहेब की अंतिम विदाई में लाखों लोगों का उमड़ना, उन मानवीय स्वभाव के रहस्यों को पुनः प्रदर्शित करता है जिसे हम समझ नहीं सकते।