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अजब देश की गजब कहानी
देशवासियों को अपने राष्ट्र से प्रेम होता है, होना भी चाहिए। वो देशभक्ति के नाम पर मर-मिटने को तैयार भी हो जाता है। दुनिया में सैकड़ों देश हैं। सबकी अपनी पहचान और विशिष्टता है। कोई भौगोलिक रूप से छोटा है तो कोई बड़ा, कोई गरीब तो कोई अमीर, कोई विकसित तो कोई पिछड़ा, अस्थिर, मजबूत, कमजोर आदि-आदि। और सबकी अपनी-अपनी कहानी है। इस मामले में हम भारतीय थोड़ा अलग हटकर हैं। यूं तो हम भी राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होकर प्रवाह में बहते हुए देखे जा सकते हैं। यह दीगर बात है कि यह हमारे संदर्भ में बड़ा क्षणिक होता है और आजकल अमूमन क्रिकेट के मैच के दौरान ही उभरता है मगर खेल के समाप्त होते ही खत्म भी हो जाता है। बहरहाल, इसी का कमाल है कि आईपीएल रातोंरात चमक गया, और अब हम कोलकाता, चेन्नई, मुंबई व पुणे आदि के नाम से उत्साहित और एकजुट हो जाते हैं। ठीक भी तो है, यह देश अति विशाल और विविधताओं से भरा पड़ा है। एक तरफ बर्फ से ढका हिमालय है तो दूसरी ओर दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान और फिर तीनों तरफ समुद्र। एक ओर जंगल और हरियाली है तो दूसरी ओर पथरीला क्षेत्र। बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक विपदायें, दुनिया के शायद ही किसी देश में एकसाथ होती हैं। मगर हमारे देश में यह हर साल होता है। ज्यादा चिंता करने की बात नहीं, इसे झेलने की हमारी आदत पड़ चुकी है। ऐसा नहीं कि इसे नियंत्रित और नियोजित नहीं किया जा सकता। मगर जब ऐसा होते रहने पर कइयों को फायदा हो रहा हो तो बुद्धि और ऊर्जा लगाने की आवश्यकता क्या है? और फिर ऐसा भी नहीं कि यहां बौद्धिक क्षमता की कमी है, हमारे बुद्धिजीवी विदेशों में झंडे गाढ़ते रहे हैं।
चलिये, वर्तमान से निकलकर थोड़ा पीछे चलते हैं। इतिहास पर नजर डालते हैं। हम इसके गौरवशाली होने का जोर-शोर से बखान करते हैं, और बड़ा गर्व करते हैं, करना भी चाहिए। मगर फिर गौरव को ढूंढ़ने पर पता चलता है कि हमारे अतीत का लंबा काल गुलामी से भरा हुआ है। दुनिया की शायद ही कोई सभ्यता हो, जिसने हम पर आक्रमण न किया हो और तत्पश्चात यहां की संस्कृति के साथ मिलकर नयी खिचड़ी न बनाई हो। हो सकता है हास्यास्पद लगे, मगर शायद तभी ‘अतिथि देव समान’ यहां का स्वभाव बना। और शायद तभी विदेशी शासकों के निर्माण कार्य, जो हमारी गुलामी की याद दिलाते हैं, राष्ट्रीय प्रतीक और ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सुरक्षित किये गये। इतना ही नहीं ये स्थानीय पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं, इन पर अभिमान किया जाता है और इतराकर साथ खड़े होकर फोटो खिंचवाई जाती है। और तो और विदेशी शासकों के अत्याचारों को भुलाकर उन्हें आज भी कई तरह से जिंदा रखा गया है। उन्हें महिमामंडित किया जाता है। हम उनके नामों पर गली, मोहल्ले, रास्ते, इमारतों के अतिरिक्त अपना वर्तमान भी न्योछावर करने को तैयार हैं। इसके समर्थन में हमारे शब्द और तर्क बड़े शक्तिशाली होते हैं, तभी हम अपनी कमजोरियों पर सुनहरी चादर डाल पाते हैं।
भाषा जिस तरह से हर पचास किलोमीटर में हिन्दुस्तान में बदल जाया करती थी, ठीक उसी तरह जीवन के रहन-सहन भी विविधतापूर्ण थे। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं। मगर अधिक हैरानी तब होती है जब पता चलता है कि स्वतंत्र होते ही हम विदेशी भाषा के ऐसे गुलाम हुए कि सारा देश एक ही रंग में रंग दिया गया। दो शताब्दी के अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी उतनी स्वीकार्य नहीं थी जितनी आज गोरो के जाने के बाद इसका चलन है। हम सोचते अपनी मातृभाषा में हैं लेकिन लिखने और बोलने में अंग्रेजी का उपयोग कर अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। भारतीयों की त्वचा का रंग प्राकृतिक रूप से श्याम-वर्ण है मगर इसे क्रीम, पाउडर और कास्मेटिक से धो-धोकर अंग्रेज बनने का जितना प्रयास इस देश में होता है शायद ही कहीं होता हो। इसका व्यापार देश के खानपान के बजट के समतुल्य होना चाहिए। हम भूखे पेट रह लेंगे लेकिन सफेदी की क्रीम के बिना हमारा सामाजिक जीवन संभव नहीं।एकमात्र देश जहां पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, कम्यूनिस्ट तकरीबन सभी राजनैतिक विचारधाराएं एकसाथ फलती-फूलती हैं। हम आज भी राजशाही व सामंतवाद के साथ शान से जीते हैं मगर अपने आप को प्रजातंत्र का सबसे बड़ा उदाहरण के रूप में पेश करने से नहीं चूकते। इन सबके बीच में परिवारवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद को भी पूरा मौका मिला हुआ है और वे यहां खूब फलते-फूलते हैं। हम प्रगतिशील होने का दिखावा करते हैं मगर जातिवाद में डूबे हैं। अनजाने में ही सही, हम फासीवाद पर भी विश्वास रखते हैं। वंशवाद हमारे खून में है और राजनीति, व्यापार से लेकर सिनेमा, साहित्य, समाजसेवा व धर्म तक में इसका साम्राज्य है। क्या इतनी विविधता किसी और देश में हो सकती है? नहीं। हमारे आम चुनावों तक में इनके विभिन्न रंग-रूप देखे जा सकते हैं। देखने में तो यह नाटक लगता है लेकिन खेल खेल में ही हमारे शासक वर्ग सत्ता का भरपूर आनंद उठाते रहते हैं और शोषित वर्ग वहीं के वहीं पड़ा सड़ता रहता है। व्यक्तिवाद हमारी विरासत है तभी तो इतने विशाल जनसंख्या वाले देश में दसियों चुनाव प्रक्रिया के बाद भी वही मुट्ठीभर शासक वर्ग!! तभी ये जननेता नहीं राजनेता कहलाते हैं। इन राजनेताओं के कथन भी कम निराले नहीं माने जा सकते हैं। यहां की जीवन-संस्कृति में सिद्धांत और उसूलों की खातिर जान देने का जिक्र बड़े फख्र से किया जाता है। मगर राजनेताओ को इसकी पूरी छूट है। जरा-जरा सी बात को स्वाभिमान से जोड़कर पीढ़ियों तक दुश्मनी निभाने वाले इस देश में, सत्ता के लिए राजनीतिज्ञों द्वारा रिश्तों को तोड़ना फिर जोड़ना और जोड़कर फिर तोड़ देना आम बात है। और तो और सैकड़ों कैमरे की चमचमाती फ्लैश लाइटों के सामने ताल ठोंककर कहा भी जाता है कि राजनीति में हर तरह के गठजोड़ की संभावना हमेशा बनी रहती है। आम भारतीयों में शर्म-लिहाज सांस्कृतिक विरासत के रूप में कुछ ज्यादा ही है, मगर राजनीति का वर्ग इससे पूरी तरह अछूता है। सत्ता प्राप्ति के लिए हर किस्म की दबंगई यहां देखी जा सकती है। जुबान की कीमत व वचन निभाने के किस्से बड़े-बुजुर्ग बड़ी चाव से सुनाते हैं मगर कथनी और करनी में फर्क यहां खूब देखा जा सकता है। धोखा और षड्यंत्र तो यहां इतिहास के हर पन्ने में दर्ज है। राजा-महाराजा विश्वपटल से निकलकर इतिहास के पन्नों में गुम हो गये हों मगर इनके दर्शन इस देश में आज भी किये जा सकते हैं। ये जिला, राज्य और राष्ट्रीय हर स्तर पर मौजूद हैं। इनके राजमहलों में नतमस्तक होने वालों की अच्छी बड़ी संख्या है। दरबारी चापलूसों को आज भी यहां पनपते और युवराज की ताजपोशी में दीवाली मनाते देखा जा सकता है।
अर्थव्यवस्था का तो खैर क्या ही कहना। इतने बड़े राष्ट्र को बाजार में बदलने का घटनाक्रम बड़ा रोचक है। बेवकूफ बनाना तो यहां बड़ा आसान है। तभी तो मिट्टी भी बेच दी जाती है। इस दौरान दुनिया के अधिकांश अमीर यहां पनपे तो गरीब भी उसी अनुपात में बढ़े हैं। यहां के विशाल माल और चमचमाते एयरपोर्ट को घेरे मीलों झुग्गी-झोपड़ी का दृश्य देखकर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पांच सितारा संस्कृति और भुखमरी यहां एकसाथ विकसित हो रही है। इसे पशु-पक्षियों का देश माना जाता है इसलिए शायद गोदामों में चूहों को अनाज खाने की स्वतंत्रता है। मगर कई बार दो वक्त की रोटी के इंतजार में आदमी अपनी जान दे देता है। किसान को भूखा मरते देखना यहीं संभव है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इसे सब जानते भी हैं और समझते भी हैं लेकिन करते कुछ नहीं। और अगर कोई कहे व करे तो उस पर आपत्ति अलग दर्ज कर देते हैं। यह देश अहिंसा और सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता है। मगर हम दूसरों की कट्टरता को सहर्ष स्वीकार करते हैं। कभी-कभी तो उन्हें प्रोत्साहित तक करते हैं। फिर चाहे उससे उत्पन्न अराजकता सारी सीमाओं के पार क्यूं न पहुंच जाये। मगर अगर हमारे अंदर की व्यवस्था को, अनुशासित, नियमित या फिर सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से नियोजित किया जाये तो हम अपनों की टांग खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए हम पर शासन करना बड़ा आसान है। गुलामी के लंबे इतिहास के बाद देश आजाद तो हुआ लेकिन शायद मानसिकता अभी तक नहीं बदली। तभी तो हम आज भी उसका प्रदर्शन हर समय हर क्षेत्र में हर बार करते हैं। और उसका हमें किसी भी तरह से अफसोस भी नहीं, पश्चाताप भी नहीं, शर्म भी नहीं। उलटा हम कई बार अपने किये पर गर्व करते हैं। हम हर उस इंसान की कमर तोड़ देना चाहते हैं जो हमें हमारे सच से परिचय कराता हो, हमें आईना दिखाता हो, एक नई दिशा की ओर ले जाना चाहता हो। लेकिन उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं जो हमारे सिर को सदैव झुकाये रखना जानता है, जो हमारे अभिमान को जाने-अनजाने उपयोग करता है। हम आपस में खूब बहस करते हैं। हमारी बौद्धिकता का पैमाना है कि हम अपनों की खिंचाई कितनी कर सकते हैं। यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हम जितना अधिक पढ़-लिख रहे हैं उतने अधिक अज्ञानी व अंधविश्वासी बनते जा रहे हैं। मगर हम यह मानने को तैयार नहीं। आदिकाल से इस देश में कण-कण में ईश्वर हैं मगर अब देखिये राजनीति, खेल, व्यापार और मनोरंजन के शीर्ष पुरुष भी हमारे भगवान बन गये हैं। ऐसी मान्यता बना दी गयी है कि ये जो भी बोलेंगे सच ही बोलेंगे। और फिर हम इसे अंधभक्त की तरह स्वीकार भी करते हैं। रातोंरात सैकड़ों की संख्या में समर्थक पैदा करना यहां बड़ा सरल है। बस बात करने व झूठ बोलने की कला में पारंगत होना होगा। काल्पनिक आभामंडल बनाकर आमजन को सम्मोहित करना यहां आसान है। फिर ये सितारे हमें सदैव कल्पना-लोक में रखना जानते हैं। गरीबी है तो क्या हुआ ये हमें मनोरंजन के लिए प्रोत्साहित करते हैं, भूख में भी सिर्फ क्रिकेट खेलकर मस्त रहने के लिए प्रेरित करते हैं। पानी न होने पर हमें कोल्डड्रिंक पीने के लिए कहा जाता है। रातोंरात व्यवस्था परिवर्तन, गरीबी हटाओ, महंगाई कम करने का नारा देते हैं। फिर चाहे ये बाद में हो न हो, क्या फर्क पड़ता है। फिर भी इनकी हर बात पर ताली तो अंध-समर्थक जरूर बजायेंगे। इस देश में एम्बूलेंस पहुंचे न पहुंचे चंद मिनट में पिज्जा-बर्गर घर तक पहुंचा देने की व्यवस्था है। इतनी विविधताओं से भरा देश काल्पनिक लगता है, मगर यह हकीकत है। इस अजब देश की गजब कहानी का कोई अंत नहीं। यही इसकी पहचान है।मनोज सिंह