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सब जल्दी में हैं
कालेज की पढ़ाई खत्म होते ही पहली नौकरी मुंबई में लगी थी। मोटी तनख्वाह, सुनहरा-सुरक्षित भविष्य और रहने के लिए एक फ्लैट भी मिला था। बचपन से मुंबई शहर आता-जाता रहा हूं, अतः वहां रहने वाले आमजन की दिनचर्या के बारे में बहुत कुछ जानता-समझता था। संक्षिप्त में कहें तो सभी हर वक्त भागते से नजर आते थे। मगर चूंकि मैं जीवन जीना चाहता हूं अतः वहां स्थायी रूप से रहने का तो मन में सवाल भी नहीं उठता था। बस इतनी-सी बात के कारण वो नौकरी पहले हफ्ते में ही छोड़ दी थी। यह फैसला करिअर के दृष्टिकोण से कितना सही या गलत था, आज तकरीबन ढाई दशक के बाद भी मेरे लिये समझ पाना मुश्किल है। जबकि दोस्तों-रिश्तेदारों की माने तो वहां बने रहने पर मैं अब तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहा होता और विश्व में नाम होता। लेकिन मुझे इसका कोई अफसोस नहीं। मेरी अपनी राय में मैंने अब तक का अपना जीवन शांति और बेहतर ढंग से हर पल जीते हुए बिताया है और मुझे कम से कम इस बात पर संतुष्टि है। मगर हां, अब यह देखकर हैरानी जरूर होती है कि हिन्दुस्तान का तकरीबन हर शहर मुंबई बनता जा रहा है। या यूं कहें कि हर एक शहरी का जीवन मुंबइया बन चुका है। जबकि मुंबई की समस्या का कारण उसकी जनसंख्या और दूरियां रही हैं और ऐसा कुछ अन्य शहरों में नहीं है, बावजूद इसके हर तरफ जिसे देखो वो जल्दी में है और भाग रहा है। और तो और गांव भी अब इस भागमभाग से अछूता नहीं। यह दीगर बात है कि यहां इस भागने की बीमारी शारीरिक कम मानसिक अधिक है। क्या करे, ग्रामीण जीवन में भी अब महत्वाकांक्षा, इच्छा, चाहत और भौतिकता शहरी से मुकाबला करती महसूस होती है।
इस भागने में गति है, प्रतिस्पर्धा है, अपनी-अपनी दिशाएं हैं। सड़क पर कार-मोटरसाइकिल दौड़ाते या ट्रेन-मेट्रो की भीड़ में ही लोग नहीं भाग रहे। जो घर में बैठे हैं, वो भी आराम नहीं कर रहे, शांति से नहीं बैठे हैं, किसी न किसी चक्कर में हैं। थोड़ा-सा ठहरकर अपने चारों तरफ देखो, पहले पहल विश्वास नहीं होगा और फिर अजीब लगने लगेगा। मुझे तो हंसी आने लगती है, जब यह पाता हूं कि सभी किसी न किसी रूप में भाग रहे हैं। भिखारी-गरीब से लेकर मध्यमवर्गीय ही नहीं, सुविधा-संपन्न रईस भी कहीं शांत से नहीं बैठा होगा। और अगर कहीं चुपचाप दिख जाये तो समझ जाओ कि मानसिक रूप से वो दौड़ रहा है। अमूमन सब कुछ होने के बावजूद हवाई-जहाज पर सवार, देश-विदेश मीटिंग में ये दौड़ते-भागते रहते हैं। खाने-सोने और अपनों के लिए भी टाइम नहीं। समय तो अपनी रफ्तार से ही चलता है मगर ये सब उससे अधिक तेजी से भागना चाहते हैं। अपने आंकड़ों के आगे शून्य लगाये जाने का इतना नशा है कि बाकी सब इनके लिए शून्य है। बहरहाल, व्यक्ति कमाता किसलिये है, उत्तर की सूची में सर्वप्रथम नाम भोजन का आना चाहिए। मगर वहां भी अब फास्ट-फूड का बोलबाला है। अर्थात सीधे-सीधे खाना खाने में भी गति आ चुकी है। और फिर कितनी जल्दी आप खाना लेकर खा सकते हैं इसमें भी दुकानों के बीच होड़ लगी हुई है। देने वाला और खाने वाला, दोनों जल्दी में हैं। गनीमत है, अभी तक पचाने की प्रक्रिया में गति का आगमन खुले रूप में नहीं हुआ है। खैर, इस क्षेत्र में भी ज्यादा वक्त लगता दिखाई नहीं देता। हां, उपभोग विज्ञान की गति इसी रफ्तार से चलने पर कुछ दिनों बाद खाने की पूरी थाली की जगह एक टेबलेट निगलकर काम चलाया जाने लगे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। भविष्य में एक-दो इंजेक्शन लगाकर महीनेभर न खाने का इंतजाम भी किया जा सकता है। क्या यह रोचक होगा? पता नहीं, लेकिन कम से कम स्वादपूर्ण और आनंददायी तो नहीं हो सकता। हां, कुछ समय जरूर बचाया जा सकेगा। मगर किसलिए? शायद पुनः किसी और चक्कर में भागने के लिए। यूं तो खाने की खुशबू और स्वाद का मजा तो अब वैसे भी घरों से गायब होता जा रहा है क्योंकि परिवार का हर सदस्य जल्दी में है। सबकी अपनी-अपनी दिनचर्या है। अपनी चाहतें, महत्वाकांक्षा और इच्छाएं हैं। अतः व्यक्तिगत काम की सूची बहुत लंबी हो चुकी है। उधर, आधुनिक जीवन व्यक्तिवाद का पूरा समर्थन करता है, ऐसे में हर व्यक्ति का और अधिक व्यस्त हो जाना स्वाभाविक है।
अब इन चाहतों का क्या किया जाये? मानवीय इच्छाओं का तो कोई अंत ही नहीं। हजारों साल तक न जाने क्यों हमारे पूर्वज यही पढ़ते-पढ़ाते रहे कि इच्छाओं व चाहतों पर नियंत्रण रखो। जबकि बाजार के विशेषज्ञ इसे बढ़ाने में प्रयासरत रहते हैं। पता नहीं दोनों में से कौन गलत है? बहरहाल, बाजार ने नयी-नयी मानवीय जरूरतों को पैदा कर उसे पाने के लिए प्रेरित भी किया है। यही नहीं, उपभोक्ता को उकसाया भी है। मनुष्य तो है ही लालची, पड़ गया इस मृगतृष्णा के चक्करों में। अंत में यहां भी मामला गति का बन जाता है। सीधे कहें तो अब धैर्य और संतुष्टि जैसे शब्द आधुनिक शब्दावली से हटा दिये जाने चाहिए। अब क्या किया जाये, बाजार में नये माल के आते ही सबसे पहले उसे खरीदकर प्रदर्शन करने वालों की होड़ लगी हुई है। अब ये माल कुछ भी हो सकता है। भौतिक वस्तु के अतिरिक्त भी। यहां तक कि परिवार और रिश्ते भी एक प्रोडक्ट बन चुके हैं। मुझे तो बड़ा मजा आता है देखकर। मोहल्ले के किसी भी घर में कोई भी नया सामान आते ही आस-पड़ोस में सनसनी-सी फैल जाती है। तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे? इस बात के लिए तो टीवी में तमाम साबुन कंपनियों के बीच एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ लगी हुई है। बात टीवी की आई है तो उसका इस गति के युग में सबसे बड़ा योगदान रहा है। न्यूज चैनल को ही देख लो, सब इस बात के चक्कर में लगे रहते हैं कि सबसे पहले खबर कौन देता है? कई बार बड़ा मजेदार प्रसंग हो जाता है, जब वो बर्बादी के किस्से भी स्पीड न्यूज के चक्कर में ऐसे फटाफट सुनाते हैं कि मानों अमृत मिल गया हो। बहरहाल, टेलीविजन में जितनी जल्दबाजी है उतनी ही तीव्रता इसने समाज, संस्कृति और सभ्यता के हर पहलू और पक्ष में ला दी है। मोहल्ले की खबर मिनटों में ही देश-विदेश में आम बन जाती है। इस स्पीड ने किसी को भी नहीं छोड़ा। अगर किसी को रातोरात बेवजह लोकप्रिय बना दिया तो कइयों की जिंदगीभर की कमाई गई इज्जत मिनटों में ही खाक कर दी गई।
गति का मजा तो पहले भी लिया जाता रहा है। द्रुतगति से दौड़ने वाले घोड़ों के किस्से दादी-नानी की कहानियों में सुना करते थे। ये राजाओं की आन और शान हुआ करते थे। मगर ये जीवन को व्यवसाय बनाकर हर एक को दौड़ने के लिए मजबूर नहीं करते थे। लेकिन अब तो घोड़ों की दौड़ पर भी पैसा कमाने-दिखाने की होड़ मची है। बहरहाल, जमाना बाइक और कारों का है। कौन-सी बाइक कितने सेकेंड में कितनी गति को प्राप्त होती है यह युवाओं के बीच आकर्षण का केंद्र होता है। रईसों के बीच कार खरीदने का यह एक प्रमुख पैमाना है। उधर, पैसेंजर से एक्सप्रेस और मेल-ट्रेन की जगह अब बुलेट-ट्रेन की बात होने लगी है। अर्थात तेज गति। सबको अपने गंतव्य में जल्दी से जल्दी पहुंचना है। यह दीगर बात है कि किसी को भी पता नहीं कि आखिरकार ये जल्दबाजी क्यूं? और तो और मंजिल पर पहुंचकर भी ठहराव नहीं आता। उसके आगे फिर कोई नया काम और उसमें भी गति। हास्यास्पद तो तब हो जाता है जब छुट्टियां मनाने के लिए हम प्रकृति के बीच कहीं जाते हैं तो वहां भी रुकते कहां हैं? ज्यादा से ज्यादा, जल्दी से जल्दी सब कुछ देखना है। इस चक्कर में हम बस सभी महत्वपूर्ण स्थल को छू-भर पाते हैं।इस भागदौड़ में कहीं शरीर साथ न दे तो उसके लिए आधुनिक युग के डाक्टर भी गति में रहते हैं। बुखार, सर्दी-जुकाम को भी मिनटों में दबाने और भगाने का जुगाड़ लगाया जाता है। अब तो ऐसी-ऐसी दवाइयां आ गई हैं कि आप रातोरात पहलवान बन सकते हैं। मनुष्य ही क्यों, साग-सब्जी फल-फूल आदि खाने वाली हर वस्तु के तैयार होने में गति प्रदान कर दी गयी है। फल अब रातभर में पककर तैयार हो जाते हैं। सब्जियां उगकर मोटी हो जाती हैं। मांसाहारी को पता ही नहीं चलता कि चिकन रातभर में जवान किया गया है। दो लिटर दूध देने वाली गाय-भैंस भी दिन में दो-दो बार अब कई गुणा अधिक दूध देने लगी है। अपने बच्चों के साथ भी हम यही अपेक्षा करते हैं कि रातोरात बड़े होकर शिखर पर पहुंच जायें, फिर चाहे उसके लिए जो मर्जी करना पड़े। हर चीज में जल्दी। पैसा कमाना, रातोरात लखपति-करोड़पति बनने की चाहत तो आम बात है। बात यहीं नहीं रुक जाती, कला, साहित्य, संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में भी लोग तुरंत शीर्ष पर पहुंचकर लोकप्रिय हो जाना चाहते हैं। और तो और हम धर्म, आस्था और विश्वास के क्षेत्र में भी गति में रहते हैं। तभी तो कुछ दिन में ही अपने भगवान और बाबा को भी बदल लेते हैं। अब तो सामाजिक आंदोलनों में भी कार्यकर्ता तुरंत परिणाम चाहते हैं। क्या किया जा सकता है, इंटरनेट का जमाना जो है। सबको स्पीड चाहिये।
इन सबके बीच जीवन जैसे उसी गति से पीछे छूटता हुआ नजर आता है। हमसे दूर, बहुत दूर। इस भागने के चक्कर में आदमी की स्मृतियां भी उसी रफ्तार से खत्म हो जाती हैं। हम अपनों को भी उसी तीव्रता से भूल जाते हैं। असल में हम ऐसी अंधी गुफा में तेजी से दौड़ रहे हैं जिसका अंत तो हम जानते हैं, मगर जानकर भी अनजान बने रहते हैं। एक्लेजेंडर को अपनी आकस्मिक मृत्यु का पता होता तो शायद वो भी इतनी जल्दी में आगे नहीं बढ़ता। जाते-जाते वो बहुत कुछ बोल गया। हम एक्लेजेंडर महान को तो याद करते हैं उसके जैसा बनना भी चाहते हैं, मगर उसकी अंतिम शब्दों को नजरअंदाज कर देते हैं।