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जन्मदिन का तोहफा

जन्मदिन मनाने की प्रथा अत्यंत प्राचीन एवं पारम्परिक प्रतीत होती है। यह दीगर बात है कि केवल समाज के शीर्ष व्यक्तियों के संदर्भ में ही यह दिखाई-सुनाई देती है। असल में तो यह राजाओं की शक्ति एवं वैभव के प्रदर्शन का माध्यम हुआ करता था। इसमें आमजन की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाती और इसे राजकीय उत्सव में रूप में मनाया जाता। राजा एवं राजवंश में जन्मे राजकुमारों आदि का जन्म विशेष रूप से ईश्वर की कृपा से प्रजा की भलाई के लिए हुआ है, ऐसे कुछ विचार फैलाकर स्थापित किये जाने के लिए ऐसे मौकों का उपयोग किया जाता। जिसके पीछे कहीं न कहीं अवाम द्वारा सत्ताधीश के विभिन्न अधिकारों की स्वीकृति प्रदान करवाने की मंशा छिपी होती। राजा की राजसत्ता व आमजन की गुलामी को बरकरार रखने का यह एक भावनात्मक मगर सुनियोजित प्रयोजन से अधिक कुछ नहीं। बहरहाल, आम परिवार में अपनों का जन्मदिन मनाया जाना कितना प्रचलन में था, कह पाना मुश्किल है। सच कहा जाये तो कुछ समय पूर्व तक तो लोगों को अपने जन्मदिन का पता ही नहीं होता था। और माता-पिता द्वारा दिन-महीने-साल अंदाजे से अगली पीढ़ी को बताये जाते। कई बार तो यह बड़ा हास्यास्पद होता। उदाहरणार्थ, जब बगल की गुड्डो की शादी हुई थी उस की विदाई की चौथी रात छोटी बहू के बच्चा हुआ था, यही अपना पप्पू। वैसे भी घर-परिवार में इतने अधिक बच्चे होते ऊपर से शिशुओं व माताओं की मृत्यु-दर भी अधिक थी, ऐसे में लिखित रिकार्ड का कोई इंतजाम न होने के कारण कुछ दिनों बाद ही सही-सही जानकारी नहीं रह पाती। इस दौरान कब बच्चे बड़े हो जाते पता ही नहीं चलता। इस परिस्थिति में हमारे पूर्वजों द्वारा घर-परिवार में जन्मदिन मनाना कैसे संभव हो सकता है? उधर, राजा-महाराजाओं के जन्मदिन के हिसाब-किताब के लिए दरबारियों की पूरी फौज होती। यही हाल तो आज भी है। जितना बड़ा नेता होगा उसके जन्मदिन का कार्यक्रम उतना ही भव्य और व्यापक होगा। यही नहीं, अगर उससे संबंधित पार्टी सत्ता में है तो मरने के बाद भी उसके जन्मदिन को धूमधाम से मनाया जाएगा। कई बड़े राजनेताओं के जन्मदिवस को तो शासकीय अवकाश घोषित कर दिया जाता है तो कुछ एक को किसी राष्ट्रीय कार्यक्रम में रूपांतरित कर दिया जाता है। जनता के टैक्स के करोड़ों रुपये फूंक दिये जाते हैं। बहरहाल, इस तरह के कार्यक्रम जनसंवेदनाओं को अपने पक्ष में संचालित करने का कार्य बड़ी चतुराई से कर जाते हैं। उधर, राष्ट्र की स्वतंत्रता या निर्माण-दिन भी तो एक प्रकार का जन्मदिवस ही है जिसे अमूमन राष्ट्रीय उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। यहां भी तो यह जनभावनाओं में राष्ट्रीय भावना को प्रेरित करने का काम ही करता है। यही नहीं तकरीबन हर धर्म के संस्थापकों व गुरुओं के जन्मदिन संबंधित समुदायों के बीच धार्मिक उत्सव के रूप में सदियों से मनाये जा रहे हैं। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि जन्मदिन मनाने का सिलसिला कितना पुराना है। हम अपने-अपने ईश्वर का जन्मदिन भी तो एक त्योहार के रूप में बड़ी धूमधाम से मनाते हैं।

जन्मदिन हमारी सभ्यता-संस्कृति में सदियों से था जरूर, लेकिन भला हो आधुनिक युग का, जिसने घर-घर जन्मदिन मनाने का प्रायोजन कर दिया। इसमें शिक्षा व संचार के विभिन्न माध्यम, विशेष रूप से सिनेमा का महत्वपूर्ण रोल रहा है। पहले पहल तो समाज का प्रबुद्ध और पढ़ा-लिखा वर्ग इससे जुड़ा फिर आम घरों में भी इसे उल्लास के साथ मनाये जाने लगा। नये-नये कपड़े और घर में स्वादिष्ठ व्यंजन और पकवान बनाये जाने लगे। कहीं-कहीं ब्राह्मणों को भोज कराने की संस्कृति मिलती है तो कई जगह गरीबों को दान देने की प्रथा है। आस-पड़ोस में मिष्ठान बांटना और घर में रिश्तेदारों के साथ सामूहिक भोज और मस्ती तो आम बात है। कुछ लोगों ने इसे धार्मिक रंग भी दे रखा है। जैसे कि अखंड-पाठ, रात्रि-जागरण व विभिन्न पूजा-अर्चना का आयोजन करना आदि-आदि। बहरहाल, जो भी हो खीर-पूड़ी, माल-पुआ-हलवा तो घर-घर में बनता ही था। लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें बदलाव आया है। बाजार के युग में, पश्चिमी संस्कृति ने अगर सबसे ज्यादा किसी क्षेत्र को समाज के निचले स्तर तक प्रभावित किया है, तो वो है जन्मदिन का कार्यक्रम। अब कस्बों और गांवों में भी बर्थ-डे केक काटे जाने लगे हैं। मोमबत्तियां जलाकर बुझाई जाने लगीं। पता नहीं इसके पीछे क्या अर्थ छुपा है। पहली नजर में तो यही लगता है कि बताया जा रहा है कि जीवन का एक साल और खत्म हुआ। अगर यही सच है तो यह अत्यंत कड़वा और भयावह है। लेकिन इसको लेकर तमाम उम्र उदास-परेशान बैठे रहने का भी तो कोई फायदा नहीं। जीवन के हर दिन को उत्सव के रूप में मनाने का फैसला लेकर, विभिन्न सभ्यताओं ने ठीक ही निर्णय लिया। बहरहाल, अंग्रेजी सभ्यता ने घर-घर बर्थ-डे केक के साथ गुब्बारे और रंग-बिरंगी टोपियों का फैशन पहुंचा दिया। धन्य हो ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कंपनियों का, जिन्होंने इसे एक नयी दिशा देकर इसका सामाजिक विस्तार किया। इससे हमें भौगोलिक दूरियों का समाधान मिलता है। अब कम से कम रिश्तेदारों के साथ-साथ दूर-दराज बैठे हुए दोस्त-यार भी अपने चाहने वालों को बधाई संदेश भेजने लगे हैं। हम इस आधुनिक तौर-तरीके की जितनी भी आलोचना करें, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि दूरी से खत्म हो रहे संबंधों को इसने पुनर्जीवन दिया। और परिवार व जान-पहचान वालों के बीच इसके माध्यम से आपस में भागीदारी बड़ी है। मोबाइल ने तो मानो इस क्षेत्र में क्रांति ही ला दी। एसएमएस के जरिये रात बारह बजे से ही जन्मदिन का शोर शुरू हो जाता है। यह दीगर बात है कि इसने संबंधों को नीरस और संवेदनाओं को यांत्रिक बना दिया है कि लोग औपचारिकता निभाने मात्र के लिए एसएमएस से काम चलाने लगे। इस आलोचना पर विस्तार से चर्चा करना होगा जो कि अपने आपमें एक भिन्न विषय है। मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसने जन्मदिन के कार्यक्रम में हलचल मचा दी। सोशल नेटवर्किंग साइट ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। अब सैकड़ों मित्र इंटरनेट पर जन्मदिन की बधाई भेजने लगे। साथ में काल्पनिक तोहफे, मोमबत्तिया और केक भी कंप्यूटर पर परोसे जाने लगीं। पहली नजर में देखकर यह बड़ा हास्यास्पद लगता है। मगर जब जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा कंप्यूटर के टर्मिनल पर बीतने लगे तो इन काल्पनिक बातों को भी स्वीकार करना ही होगा।

विगत दिवस मुझे भी सोशल नेटवर्किंग साइट पर सैकड़ों की संख्या में जन्मदिन की बधाई प्राप्त हुई। अनगिनत एसएमएस व फोन कॉल का सिलसिला दिनभर चलता रहा। ग्रीटिंग कार्ड तो कुछ दिन पहले से ही आने लगे थे। उम्र का असर है, (जो कि आज के युग को देखते हुए कुछ भी तो नहीं) या चिंतक लेखक होने का खमियाजा या फिर घर-परिवार में सभी बच्चों का घर से दूर चले जाना, अब स्वयं के जन्मदिन मनाने का कोई उत्साह नहीं रहा। इस मामले में मैं थोड़ा आलसी भी हूं, यहां तक कि दूसरों को जन्मदिन की मुबारकबाद देने से भी अकसर चूक जाता हूं। इसके बावजूद इतनी बड़ी संख्या में दोस्तों के शुभ संदेश से आश्चर्य हुआ था। इसने मुझे दिनभर के लिए सक्रिय कर दिया था। यह रोजमर्रा के जीवन से थोड़ा हटकर था। इसमें कई संदेश अत्यंत विशिष्ट थे तो कुछ बड़े घिसे-पीटे और एक जैसे होने के कारण नीरसता प्रदान कर रहे थे। और अगर संख्या सैकड़ों में हो तो पढ़ते-पढ़ते थककर ऊब होने लगती है। मगर फिर भी सभी मित्रों के नाम पढ़ने की उत्सुकता अंत तक जरूर बनी रहती है। किस-किस ने भेजा? जानने की इच्छा करती है। कुछ एक का इंतजार आज भी होता है। कई बधाई संदेश ने रुककर पीछे मुड़कर देखने के लिए मजबूर किया था तो कइयों ने जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। इतनी दुआओं व आशीर्वाद का आखिरकार जीवन में कुछ तो सकारात्मक प्रभाव होता ही होगा। बहरहाल, जीवन और समय अपनी रफ्तार से कब आगे बढ़ जाता है पता ही नहीं चलता।एक लेखक होने के नाते उपरोक्त घटनाक्रम को विश्लेषित करने का मन किया तो पाया कि जन्मदिन की मुबारक देने में भी सोशल नेटवर्क साइट पर ग्रुपबाजी चलती है। इसमें कोई शक नहीं कि काल्पनिक दोस्तों की भीड़ का बहुत बड़ा हिस्सा निरपेक्ष और स्वतंत्र है और अधिकांश अपने सभी मित्रों को सिलसिलेवार ढंग से बधाइयां देते हैं। मगर कुछेक, जिनमें ज्यादातर बुद्धिजीवी, लेखक और विभिन्न विचारधाराओं के तथाकथित मठाधीश हैं, जिनकी संख्या बहुत अधिक तो नहीं लेकिन जिन्हें नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता, वे यहां भी अपनी संकीर्ण मानसिकता दिखाने से बाज नहीं आते। विरोधी विचारधारा के व्यक्ति को या फिर दूसरे लेखक और साहित्यकार के बीच जन्मदिन की मुबारक देने में भी राजनीति की जाती है। यह सुनने में प्रथम द्रष्टया अटपटा जरूर लगे मगर सत्य है। मानवीय ईर्ष्या, द्वेष, अहम्‌ के रंग हर समय-जगह देखे जा सकते हैं। स्वयं को बड़ा मान लेने वाले दूसरों को छोटा घोषित करते हुए इस तरह के जन्मदिन की बधाई का नाटक करने से भी बचना चाहते हैं। यह सब देख बड़ा दुःख होता है।

बहरहाल, मेरा यह जन्मदिन अचानक ही एक महत्वपूर्ण यादगार दिन में परिवर्तित हो गया। सामयिक प्रकाशन के कर्ताधर्ता महेश भारद्वाज ने जब मेरी नयी पुस्तक 'चिंता नहीं चिंतन' की लेखकीय प्रति बिना किसी पूर्व सूचना के विशेष रूप से इस दिन मुझे भिजवाई तो यह मेरे लिये अप्रत्याशित था। यूं तो उनके मतानुसार उन्हें व्यक्तिगत तौर पर घर आकर मुझे नयी पुस्तक के साथ बधाई देनी थी। मगर किसी कारणवश वो ऐसा नहीं कर पाये। और अगर ऐसा होता तो मैं बच्चों की तरह उछल पड़ता या फिर पता नहीं कैसी प्रतिक्रिया होती। खैर, जो हुआ वो भी मेरे लिये अकल्पनीय था और मैं सामयिक प्रकाशन का विशेष रूप से तमाम उम्र के लिए ऋणी हो गया। एक लेखक को इससे बेहतर तोहफा क्या कोई दे सकता है?