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इतिहास की चेतावनी

लारेंस रीस ने बीबीसी के लिए ‘द नाजी’ नाम के टेलीविजन सीरियल का निर्माण किया था। वे इस लोकप्रिय कार्यक्रम के लेखक भी थे। इतिहास में उनकी मजबूत पकड़ का यह प्रमाण है और शायद तभी वे बीबीसी के ऐतिहासिक कार्यक्रमों के क्रियेटिव डायरेक्टर भी हैं। उन्हीं के द्वारा लिखी हुई द्वितीय विश्वयुद्ध पर आधारित पुस्तक ‘द नाजी, ए वार्निंग फ्राम हिस्ट्री’ को पढ़ने का मौका मिला। यह अत्यधिक लोकप्रिय हुई थी। यह बड़ी रोचक, दिलचस्प मगर दिल को दहलाकर रोंगटे खड़े कर देने वाली सत्यकथा है। लेखन में इतना प्रवाह है कि आम काल्पनिक उपन्यासों की तरह उत्सुकता बनी रहती है। कई जगह क्रोध उत्पन्न होता है तो कई जगह दया। कई बार तो यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ऐसा भी हो सकता है। मगर फिर यह इस बात को भी सच साबित करती है कि वास्तविकता कल्पना से भी अधिक अविश्वसनीय हो सकती है।

नाजी की विचारधारा और हिटलर के मनोविज्ञान का विश्लेषण करें तो वे इस सिद्धांत पर विश्वास करते थे कि कमजोरों को दुःख झेलना उनकी किस्मत है। और उन्हें अधिक नहीं जीना चाहिए। जो जीता वही सिकंदर और सिर्फ विजयी को ही शान से जीने का अधिकार है। इस छोटी-सी बात पर हिटलर की सारी विचारधारा टिकी हुई थी। उसके मतानुसार जो मजबूत है सिर्फ उसे जीने का हक है। बूढ़े और बीमार दुनिया पर बोझ हैं। ये लोग बिना किसी काम के बहुत बड़ी मात्रा में अनाज खा-खा कर व्यर्थ करते हैं। और सीमित दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा इन्होंने बेवजह अपने कब्जे में कर रखा है। इसीलिए उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। जिससे कि बचा हुआ अनाज जवान और सैनिकों के उपयोग में आ सके। वे स्वयं को आर्यन संस्कृति से जोड़कर उसे एक श्रेष्ठ नस्ल मानते थे और अन्य सभी को कमजोर व पिछड़ा। उनके दर्शनशास्त्र का मूल था कि आर्यों को पूरे विश्व पर शासन करना चाहिए। और यही उनका एकमात्र लक्ष्य भी था। नाजियों ने इसी भावना को जनता के बीच भुनाकर कम्युनिस्ट और डेमोक्रेट को देश में पूरी तरह पराजित कर मुख्यधारा से किनारे कर दिया। प्रथम विश्व युद्ध में मिली करारी हार को हिटलर ने जर्मन के अपमान से जोड़ दिया और फिर इसे राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़कर जर्मनी जनता को भरपूर बरगलाया और भड़काया। इसी का नतीजा था कि जर्मनी उनके पीछे लामबंद होता चला गया। यह इतिहास के वो पन्ने हैं जो यह बताते हैं कि अपरिपक्व प्रजातंत्र कितना खतरनाक हो सकता है। यह एक भयावह और कड़वा सच है कि हिटलर पागलपन की हद तक तानाशाही करने से पूर्व प्रजातांत्रिक तरीके से देश में निर्वाचित हुआ था। हमें इतिहास के इस अध्याय से सबक लेना चाहिए। उसने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया और उसी के माध्यम से ही राज किया। इतिहास हिटलर के करिश्माई व्यक्तित्व के होने न होने पर बहस कर सकता है लेकिन वो अत्यधिक भाग्यशाली था इस बात पर किसी को भी शक नहीं। निरंतर किसी न किसी कारण से वो सफल होता चला गया और लोग उसकी बेवकूफियों को सहते चले गये। जनता के पास कोई विकल्प भी नहीं था और लोग प्रारंभिक सफलताओं को देख उसकी बातों में आने लगे।

हिटलर को इतिहास चाहे जितना बदनाम करे लेकिन दूसरे पक्ष में खड़ा रूस का स्टालिन किसी भी तरह से हिटलर से कम नहीं था। किसी किसी मामले में तो वो हिटलर से भी एक कदम आगे था। अगर इतिहास के पन्नों को ठीक से अध्ययन करें तो इस बात के प्रमाण है। कम से कम हिटलर ने अपने ही देशवासियों पर कभी अत्याचार नहीं किया। हां, हारने की कगार पर पहुंचने पर उसने जर्मनी में भी तबाही मचाने की कोशिश जरूर की थी लेकिन स्टालिन तो अपने ही लोगों पर जरा-सा शक होते ही उन्हें मरवाने से नहीं चूकता था। और इस तरह से हजारों लोगों को उसने मौत के घाट उतार दिया। दुश्मन की सेना जब मास्को के बाहर डेरा डाले बैठी थी तो उसने अपने ही लोगों में दहशत पैदा करने के लिए लड़ाई में हिस्सा न लेने वालों को मारना शुरू कर दिया था। हकीकत में हिटलर व स्टालिन, एक ही सिक्के के दो पहलू दिखाये देते हैं। जिस तरह से जर्मन सेना ने रूस में घुसकर तबाही मचायी, उसी तरह हालात पलटने पर रूस ने जर्मनी में घुसकर बर्बादी की। इतिहास कभी-कभी आश्चर्य से बढ़कर भी हैरानी की बातें बताता है। कई चीजें ऐसी है जिन्हें पढ़कर आज यकीन नहीं होता, परंतु यह सत्य है। आज यह विश्वास करना मुश्किल है कि जो जर्मन की सेना रूस की राजधानी के बाहर तक पहुंच चुकी थी उन्हें मात्र कुछ दिनों में ही हारते हुए अचानक पीछे लौटना पड़ा। इसे समय ही तो कहेंगे या फिर स्टालिन का भाग्य व हिटलर का दुर्भाग्य, जो नाजी सेना अंतिम लड़ाई जीतते जीतते अचानक हारने लगी। जबकि मास्को शहर के अंदर आपस में मारकाट शुरू हो चुकी थी। आज यह अचरज भरा लगता है परंतु सत्य है कि दुश्मन के घर पहुंचकर अचानक नाजी सेना ने हारना शुरू किया और फिर कुछ महीनों में ही पीछे हटते हुए ऐसे भागे कि अपने ही घर तक वापस पहुंच गये। दूसरी तरफ पूरी तरह टूट चुकी रूस की सेना अचानक हावी होकर पलटवार करते हुए, जर्मनी को पीछे धकेलते हुए, उसकी राजधानी में घुसकर सब कुछ तबाह कर गयी। इसे हिटलर की हार या स्टालिन की जीत जो कुछ भी कहें लेकिन बर्बादी का आलम दोनों तरफ ही बराबर का था। असल में, हार-जीत किसी की भी होती, सर्वनाश तो हो चुका था। वास्तविकता में दोनों ही बराबर के क्रूर शासक थे। शासन कितना निष्ठुर हो सकता है उसका प्रमाण इन दोनों के शासन काल में देखा जा सकता है।

इतिहास कहानियों का संकलन मात्र है। यह शासकों की जीवनी है। इन्हें राष्ट्र के जीवन से भी जोड़ा जा सकता है। हिटलर के नाजी विचारधारा को पढ़कर पाठक यह अनुमान लगा सकता है कि किसी राष्ट्राध्यक्ष की चाहत राष्ट्र पर कैसे थोपी जा सकती है। धर्म का इस्तेमाल शासन पद्धति में कैसे किया जा सकता है। विरोधियों को कैसे कुचला जा सकता है। साम्राज्यवाद के क्या मूल सिद्धांत हो सकते हैं। मनुष्य पशुता की किस हद तक जा सकता है। यकीन नहीं होता मगर सत्य है कि मनुष्य पशु से भी अधिक पशुता कर सकता है। भूख के भयावह दृश्य देखना हो तो इस कालखंड को पढ़ना चाहिए। इस बुरे वक्त में लोगों ने कमजोर साथियों को काट-काट कर उनकी आंतड़ियों को उबाल कर खाने से भी परहेज नहीं किया। किसी जाति-धर्म पर जुल्म की इंतिहा देखना हो तो इस युग को अवश्य पढ़ना चाहिए। नाजियों ने यहूदियों पर अत्याचार की सभी सीमाएं पार कर ली थीं। औरतों को, बच्चों को, बूढ़ों को गैस चैंबर में रखकर मार देना, गोलियों से भून देना। कनसनट्रेशन कैंप में रखने के नाम पर हजारों यहूदियों को भूखे नंगे छोड़ देना, जिससे वे आपस में ही एक-दूसरे को मार-मार कर खाने लगें। किसी एक जाति विशेष को दुनिया से खत्म कर देने के पागलपन की हद को इसी युग में देखा जा सकता है। इस अमानवीयता के बावजूद हिटलर अपनी अंतिम लड़ाई भी जीत सकता था। मगर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। वैसे तो द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ में वह सभी लड़ाइयां जितता गया था परंतु समय के हाथ उसकी मौत सुनिश्चित थी। असल में उसके व्यक्तित्व की छोटी-सी कमी कि वो किसी की नहीं सुनता था, उसने जीती हुई बाजी हारी। जल्दबाजी उसे ले डूबी। अन्यथा कोई कारण नहीं जो उस युद्ध में रूस पर जर्मनी की विजय न होती।

इस ऐतिहासिक कालखंड को स्कूल के पाठ्यक्रमों में अवश्य पढ़ाया जाना चाहिए। जिससे युवा पीढ़ी यह जान सके कि एक राष्ट्र किस तरह से बर्बाद हो सकता है। लोग सबक ले सकें, समझ सकें। ऐसा नहीं कि आज इस तरह की गलतियां नहीं की जा रही। अफगानिस्तान, इराक, वियतनाम और तिब्बत की कहानी यही कुछ कहती है। असल में मनुष्य ने कभी किसी कालखंड से सबक नहीं सीखा। बस वह अपने आप को धोखा देता रहा। और इसीलिए हर एक समय में पहले से अधिक भोगता चला गया। हां, शासन और शासित के चेहरे जरूर बदलते रहे।