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नाखून वाला आधुनिक मानव
बचपन में हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक लेख पड़ा था ÷नाखून क्यों बढ़ते हैं'। इसका संक्षिप्त में भावार्थ कहें तो निष्कर्ष निकलता था कि मनुष्य में आज भी पशुता विद्यमान है और यह उसका एक सांकेतिक प्राकृतिक प्रमाण है। नाखून यहां एक प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया था। आचार्य द्विवेदी के इस सारगर्भित लेख को अक्षरशः उस उम्र में समझ पाना मुश्किल था। इसके बावजूद विद्यालय के शिक्षक के गहराई से समझाने पर यह लेख प्रभावित कर गया था। मगर आज मैं इसे और अधिक बेहतर ढंग से समझ पा रहा हूं। इस विषय के मूल बिंदु को थोड़ा विस्तार दें तो मनुष्य के शरीर में उग रहे बालों को भी उसके जंगली होने से जोड़ा जा सकता है।ऐसा कहा जाता है, और कुछ हद तक विज्ञान भी सहमत है कि हमारे पूर्वज कहीं न कहीं वानरों की प्रजाति से संबंध रखते थे। ऐसी मान्यता है कि आदि-मानव से पूर्व हमारी भी पूंछ हुआ करती थी। चूंकि कालांतर में इसका प्राकृतिक एवं स्वाभाविक उपयोग नहीं रहा तो यह धीरे-धीरे स्वतः ही विलुप्त हो गई। मगर क्या वजह है कि हर पीढ़ी में, तमाम उम्र, हर दूसरे दिन, नाखून काटने के बावजूद, न तो ये खत्म हो रहे हैं और न ही इनके उगने की गति थम रही है? आचार्य द्विवेदी की दृष्टि शायद ठीक ही पड़ी थी। लेकिन जब मेरी निगाहें आज के युग में चारों ओर घूमती है, तो न जाने क्यों मन में एक सवाल उठता है कि कहीं मनुष्य के नाखून बढ़ने की गति बढ़ तो नहीं गई? शायद इसे स्वीकार करना हमारे लिये इतना आसान नहीं होगा। मगर चारों ओर मचा हाहाकार संकेत तो यही देता है।जानवर से स्वयं को अलग दिखने-दिखाने और घोषित किये जाने के लिए मनुष्य ने कई इंतजाम किये। यही उसकी पहचान भी बनी। जैसे कि समाज की रचना, धर्म की स्थापना, भाषा, साहित्य, विज्ञान एवं दर्शनशास्त्र आदि-आदि। सर्वप्रथम हम समाज की बात करते हैं। यह जंगल के जानवर से स्वयं को अलग, सभ्य एवं सुसंस्कृत कहलाये जाने की मनुष्य की सबसे पहली कोशिश थी। मगर जिस गति से समाज का विकास हुआ शायद उससे अधिक तीव्र गति से असामाजिक शब्दों ने विस्तार पाया। हत्या, आत्महत्या, बलात्कार और विभिन्न हिंसाएं क्या आधुनिक युग में कम हुई हैं? नहीं। आंकड़ों पर जायें तो दृश्य बहुत भयावह प्रस्तुत होगा। और फिर क्यों न हो, इसके कारण भी तो बढ़ गये हैं। पहले अनैतिक व अमानवीय होने के कारण बहुत सीमित थे और यह अमूमन एक छोटे से वर्ग द्वारा ही किया जाता था। मगर आज इसमें कई कारण जुड़ चुके हैं और यह आमजन में फैल चुका है। आधुनिक युग में अति महत्वाकांक्षा से लेकर लोभ, मोह, माया से लेकर तमाम मानवीय विकारों को हर एक में पैदा कर उसे बढ़ावा दिया जाता है। और फिर हिंसा करने के तौर-तरीके और उपाय भी तो आसानी से उपलब्ध हैं। फलस्वरूप इसका प्रतिशत तो बढ़ना ही है। राजनीतिक एवं धार्मिक हिंसा के अतिरिक्त आर्थिक, भावनात्मक और यहां तक कि शारीरिक भूख से संबंधित हिंसाओं की संख्या अचानक बढ़ी है। मस्ती में मस्ती के लिए हिंसा, यह कुछ अटपटा लगता है। मगर यह आज का सच है। समाज के अस्तित्व में आने से पूर्व प्रकृति में मनुष्य शायद ही कभी भूखा रहता होगा जबकि आज एक बहुत बड़ा प्रतिशत भूखे पेट सोता है। जबकि अनाज की पैदावार कई गुणा बढ़ी है और इसका एक बड़ा हिस्सा विभिन्न कारणों से सड़ जाता है। छोटे से एक समूह का समाज पर इस हद तक नियंत्रण क्या उनकी पाशविकता नहीं दर्शाता? इंद्रियों की भूख ने तो सारी हदें पार कर दी और मनुष्य में इसके लिए हो रही पाशविकता को देख तो पशु भी हैरान हो जाते होंगे। खुली अर्थव्यवस्थाजनित बाजार ने छीनने, लूटने, धोखा देने की प्रवृत्ति को बढ़ाया है। ऊपर चढ़ने के लिए किसी दूसरे के कंधे ही नहीं, लोगों का सिर कुचलकर भी किसी भी तरह आगे बढ़ने की होड़ मची है। इधर, पिछले कुछ समय से परिवार के कुछ बेहद संवेदनशील और प्रिय रिश्तों के बीच मची मारकाट को देखकर मानवीयता भी शर्म से अपना सिर झुका लेती होगी। पहले राजवंशों के षड्यंत्र और हत्याओं की कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज होती थी। मगर अब तो यह हमारे अखबारों के रोजाना के पन्नों में आम खबर बनकर उभरती है। शायद ही कोई सामाजिक पक्ष बचा हो जिस पर हम अब अपने मनुष्य होने की पहचान बरकरार रख सकें। विज्ञान ने पशुता को बढ़ाने का अच्छा-खासा इंतजाम कर रखा है। एक तलवार एक वक्त में एक ही हत्या कर पाती थी। बाद में बंदूक की गोली से तेज मौत ली जाने लगी। तोप के गोलों ने दस-बीस-पचास को उड़ाना शुरू कर दिया। अब तो हम हजारों-लाखों को एकसाथ मार सकते हैं। परमाणु, अणुबम की बात भी पुरानी हो चुकी है, अब ऐसी-ऐसी तकनीक व तरीके उपलब्ध हैं जिसके द्वारा धीरे-धीरे एक पूरी पीढ़ी और सभ्यता को नष्ट किया जा रहा है। बैलगाड़ी से चलने वाला आदमी अब बिजली की रफ्तार से दौड़ता है। ध्यान से देखें तो सड़क पर अनियंत्रित रफ्तार से अपनी गाड़ी को दौड़ाना भी एक किस्म की पाशविकता ही है। अब हमारे खेल और खिलौनों में जाने-अनजाने पाशविकता को पोषित किया जाता है। धर्म ने तो सबसे ज्यादा अधर्म किया है। इतिहास साक्षी है जैसे-जैसे धर्मों की संख्या बढ़ी मारकाट भी बढ़ी है। शायद धर्म ने अपने हिस्से में हत्याओं का प्रतिशत सबसे अधिक रखकर इस प्रतियोगिता में अव्वल दर्जा हासिल किया है। क्या यह हास्यास्पद नहीं? इस खेल में भाषा, क्षेत्र, नस्लवाद और अति राष्ट्रवाद भी शामिल है। विचार और उससे उत्पन्न दर्शनशास्त्र यह मनुष्य की वैचारिक सम्पदा का सबसे अनमोल खजाना रहा है। मगर यही विचार अंधभक्तों द्वारा जिस हद तक प्रयोग किये जाते हैं, प्रतिबद्धता दिखाने के लिए जिस सीमा तक वैचारिक संघर्ष हो जाता है, यह किसी युद्ध से कम नहीं। इन शब्दों के खेल ने मनुष्य को आज अधिक घायल कर रखा है। सपनों के मायाजाल ने मानवीय सभ्यता को एक सुनहरी काल्पनिक दुनिया तो दी, मगर अंदरखाते उसकी पाशविकता का खेल कुछ अधिक सक्रिय हो गया। शारीरिक चोट तो शायद कुछ दिनों बाद ठीक भी हो जाती है मगर शब्दों और विचारों की चोट कई पीढ़ियों तक तंग करती है। एक सभ्यता का चुपचाप दूसरी सभ्यता को नष्ट करने का मिशन, एक संस्कृति का दूसरे के प्रति दुराग्रह, स्वयं को बेहतर मानने-दिखाने की मानवीय प्रवृत्ति, जब सामने वाले को निम्न व निकृष्ट घोषित करने लग पड़ती है तो यह किसी पाशविकता से कम नहीं। इधर, शासक और शोषित के बीच के संबंधों में क्लिष्टता बढ़ी है, जो जितना अधिक चतुर-चालाक है, लच्छेदार भाषा में झूठ बोल सकता है, नाटक कर सकता है, वो अधिक सफलतापूर्वक लंबे समय तक शासन कर सकता है, और फिर मजे से लूट-खसोट भी मचा सकता है। अब सत्ता के खेल में नाखून का रोल बढ़ा है, चाहे वो दिखाई न दे।क्या उपरोक्त उदाहरण काफी नहीं। शायद स्वयं को सदैव बुद्धिमान व समझदार घोषित करने वाला मनुष्य का अहम् इससे टूटेगा, तभी वह इसे मानने को तैयार नहीं। वह शब्दों को तर्कों के साथ इतना कुछ तेज-तेज कहेगा कि आपको चुप होना पड़ेगा। वैचारिक शक्ति-प्रदर्शन का युग है। यह अधिक घातक है। हैरानी तब होती है जब मनुष्य अपने साथी मनुष्य को गुलाम बनाकर उससे हर किस्म की हिंसा करवाता है। अब क्या किया जाये, प्रजातंत्र में संख्या बल के लिए शक्ति का उपयोग व प्रदर्शन और अधिक आवश्यक होता है। और बहुमत के लिए जो साजिश की जाती है उसमें पशुता की कोई सीमा नहीं रह जाती।अच्छा चलिये, अब कुछ बालों की बात कर ली जाये। हमने रोज सुबह उठकर अपनी दाढ़ी बनाई है। मगर यह कमबख्त दाढ़ी मरते दम तक रुकती ही नहीं। हम भी कम चालाक नहीं, मूंछ को हमने अपनी शान घोषित कर दिया। अब यह मूंछ कुछ भी करवा सकती है। अपनी मूंछ पर ताव देते रहिये और दूसरे की मरोड़ने के लिए तत्पर रहिये। यही नहीं दाढ़ी को मर्दानगी से जोड़ दिया गया। मगर असल में ये सब हमारे जंगली होने का प्रमाण है, हमारे स्वयं के अंदर के पाशविकता का प्रतीक है। मगर मनुष्य बहुत चतुर है। जब वो किसी से जीत नहीं पाता तो फिर उसे या तो अपना लेता है या उसका हो जाता है। उसने सिर के बालों को भी फैशन में तबदील कर दिया। यहां नये-नये रूप में साज-सज्जा की जाने लगी। इसने अपनी आधुनिकता की एक नयी परिभाषा रच दी। नारी सदैव आदमी से अधिक संवेदनशील, सरल, सहज और मातृत्व से सराबोर मानी जाती रही है। प्रकृति ने उसके चेहरे के ऊपर बाल न देकर उसके कम जंगली होने का प्रमाण भी दिया। मगर वह अपने शरीर के दूसरे हिस्से के बाल को साफ कर-करके अपने मूल स्वभाव को छिपाने का हरसंभव प्रयास करती है। उसने बड़ी चतुराई से नाखून को काटने की जगह पर उसको बढ़ाकर उसे श्रृंगार से जोड़ दिया। और उस पर विभिन्न रंग-रोगन करके साथी पुरुष को आकर्षित करने का एक सफल प्रयोजन किया। मगर वह अपने अंदर छिपी हुई पाशविकता को मिटा न सकी। जो आधुनिक युग में अब खुलकर बाहर आ रही है। उसने अपने पेट में ही अपनी बच्ची को मारना शुरू कर दिया है। आज वह नर के हर अमानवीय कार्य करने को तैयार ही नहीं, बल्कि उससे प्रतिस्पर्धा करने के लिए भी तैयार है, जिससे वह आज तक बचती रही थी। फिर चाहे वो महत्वाकांक्षा हो, पदलोलुप्ता हो, संपत्ति हो, लोकप्रियता का नशा हो। अब वह किसी भी क्षेत्र में नर से कम नहीं। यह सब देखकर यकीन होने लगता है कि नाखून और बालों की बढ़ने की गति मनुष्य में जरूर बढ़ी होगी। साहित्य और दर्शनशास्त्र में अब वो बात नहीं रही, शायद विज्ञान ही भविष्य में कोई नई खोज करके मानव को आईना दिखाने का प्रयास करे।