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खेल-खेल में भारत
लंदन ओलंपिक हमारे लिये कम रोमांचभरा नहीं था। हिंदुस्तानी खेल-प्रेमी रोज आशा-निराशा में डुबकी लगाते रहे। अंत में यकीनन इसने हमें उत्साह और ऊर्जा से भर दिया। यह भविष्य की नई दिशा तय कर चुका है। इसने हमें मात्र छह पदक ही नहीं और भी कुछ दिया है। बीजिंग के तीन पदक से लंदन पहुंचते-पहुंचते छह हो जाना अर्थात चार साल में दुगुना, यह आने वाले सुनहरे कल की नींव बनने जा रहा है। अब क्रिकेट के अलावा, असल खेल का मजा भी भारत की विशाल जनता को देखने को मिलेगा। गली-गली कुश्ती, बॉक्सिंग और बैडमिंटन का नजारा देखने को मिले तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। याद कीजिए स्वतंत्रता के बाद हॉकी के पदकों का ही कमाल था कि हर मैदान में हॉकी खेली जाती थी। उन दिनों ओलंपिक के अन्य प्रतिस्पर्धा में हमारे खिलाड़ी मात्र खानापूर्ति के लिए जाया करते थे। इसे देखकर निराशा ही होती थी। कभी मिल्खा सिंह का नाम दसियों साल तक चलता रहा था। फिर भी पीटी उषा के रूप में नया नाम अचानक उभरा था। पदक की आस बरकरार थी और यह किसी सपने से कम नहीं था। इस दौरान कार्पोरेट और मीडिया के युग में क्रिकेट ने तो सब कुछ धोकर रख दिया। बड़ा हास्यास्पद लगता था जब मात्र चार-छह देशों के बीच आपस में खेलते हुए हमारे क्रिकेट के मीडियाई शेर बल्ला घुमाकर लाखों कमा लेते थे। रईसों के इस खेल में क्रिकेटरों को मीडिया ने भगवान बना दिया। कार्पोरेट ने इसमें भरपूर भूमिका अदा की। इनका नाम चलाकर बाजार ने समाज का दोहन जो करना था। यह सिलसिला आज भी जारी है। मगर इन क्रिकेटरों के सामने दूसरे खिलाड़ियों की दयनीय स्थिति देखकर बड़ा दुःख होता था। पिछले कुछ दिनों में यह सिलसिला कुछ हद तक टूटा है। पहले विश्वनाथ आनंद फिर अभिनव बिंद्रा। शुरुआत तो दो ओलंपिक पहले ही हो चुकी थी। मगर रफ्तार बीजिंग ओलंपिक से पकड़ी। अब लंदन ओलंपिक के बाद लगता है कि रनवे से टेक ऑफ हो चुका है।शूटिंग में गगन नारंग, विजय कुमार, मुक्केबाजी में मैरीकॉम, बैडमिंटन में सायना नेहवाल और पहलवानी में सुशील कुमार एवं योगेश्वर दत्त ने वो कर दिखाया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इसमें कोई शक नहीं कि अब हिंदुस्तान में खेल का माहौल बदलेगा। बच्चों और उनके माता-पिता के बीच इनके प्रति आकर्षण बढ़ेगा। विशेष रूप से बैडमिंटन, मुक्केबाजी और पहलवानी की एक नयी लहर चल पड़े तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यूं तो पहलवानी में तो हम सदियों से बहुत उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन करते रहे हैं। जाने क्यूं हम अपने नामी पहलवानों को भूल जाते हैं। मगर ऐसा लगता है कि अब वो सुनहरे दिन वापस आने वाले हैं। जिस तरह से साठ किलोग्राम के पहलवानी में योगेश्वर दत्त ने मात्र दो घंटे के दौरान चार कुश्तियों को जीतते हुए ब्रांज मैडल हासिल किया, यह युवाओं में एक नये जोश को पैदा कर चुका था। सुशील कुमार से तो वैसे ही हम बहुत उम्मीद कर रहे थे। बहुत अधिक अपेक्षा के कारण न जाने क्यों एक डर-सा लगने लगा था। भारतीयों के लिए यह एक अनकहे अभिशाप के समान है कि अमूमन जिससे ज्यादा उम्मीद की जाती है वहां हमें अधिकतर समय निराशा हाथ लगती है। मगर सुशील कुमार ने इसे झुठला दिया। उसकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है। उसने हिंदुस्तान की कुश्ती को उस शिखर पर पहुंचा दिया जहां हम भविष्य में अब कई बेहतरीन पहलवान विश्व को देंगे। उसके हर मैच को ध्यान से देखने पर एक विशेष बात महसूस हुई जिसकी हम भारतीयों में अमूमन कमी है। उसने तकरीबन हर कुश्ती को प्रारंभ में हारते हुए अंत में जीत में परिवर्तित किया। इसे कम-बैक कहते हैं। इस दौरान उसके चेहरे पर कभी भी शिकन नहीं होती थी। आत्मविश्वास में कमी नहीं दिखाई देती थी। मात्र दो-दो मिनट के तीन राउंड अर्थात मामला सेकेंड्स का होता था। लेकिन हर बार उसके हौसले में कहीं कमी नहीं थी। फाइनल मुकाबले को मैं दुर्भाग्यपूर्ण कहूंगा। इस दौरान हर दर्शक ने महसूस किया होगा कि यह वही सुशील कुमार नहीं है जिसे वे सुबह से देखते आये हैं। वह थका हुआ और सुस्त नजर आ रहा था। वो सहजता, ताजगी और बाल सुलभता उसके चेहरे से गायब थी। वो प्रारंभ से ही सामान्य नहीं लग रहा था। और अंत में स्वर्ण पदक उसके हाथ से निकल गया। उसका चेहरा ठीक ही तो कह रहा था, जैसा कि बाद में पता चला कि इस दौरान उसकी सेहत बिगड़ चुकी थी और कुछ एक चोट का दर्द था। इन चीजों पर आपका जोर नहीं। लेकिन इसके बावजूद यह पहलवान खेला और उसने टक्कर देने की पूरी कोशिश की। जिसने हिंदुस्तान के हर युवक के दिल में इतना जोश भर दिया कि वे सब अब अखाड़े में उतरने के लिए बेताब हैं। कन्या भ्रूणहत्या से ग्रसित इस समाज को इससे ज्यादा क्या संदेश मिल सकता है कि लड़कियां भी लड़कों के बराबर मान-सम्मान, शोहरत और पैसा कमा सकती हैं। सायना ने अपने खेल जीवन को जिस शालीनता से आगे बढ़ाया है, जितनी मेहनत उसके चेहरे से झलकती है, जितनी तल्लीनता व निष्ठा उसके हर कदम में महसूस होती है। ऐसे में सफलता तो उसके कदमों में झुकनी ही थी। उसने वो शोहरत प्राप्त की है, आम लड़का सपने में भी नहीं सोच सकता। श्रृंगार, फैशन और ग्लैमर के लिए परेशान युवा पीढ़ी के लिए सायना को एक नये रोल मॉडल की तरह लिया जाना चाहिए। आज वो हरेक की जुबान पर है। अब हर मां-बाप अपनी लड़की को सायना नेहवाल बनाना चाहेगा। और फिर हम मैरीकॉम को क्यों भूल जाते हैं? मीडिया की चकाचौंध से दूर सिर्फ मेहनत में तल्लीन इस मुक्केबाज महिला ने भारतीय नारी का सिर एक बार फिर ऊंचा किया। घर-परिवार में सफल और खुशी होने के साथ-साथ आप नाम भी कमा सकते हैं, उसने सिद्ध किया। परिवार को चलाते हुए भी खेल के मैदान में, वो भी मुक्केबाजी में, इस ऊंचाई तक पहुंचना काबिलेतारीफ है। उत्तर पूर्वी क्षेत्र ने भारत को एक नायिका दी है। दोनों ही, सायना एवं मैरीकॉम, आने वाले कई दिनों तक भारतीय नारी के लिए एक नये विशिष्ट रोल मॉडल के रूप में उभरेगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। वे उस मिथक को भी तोड़ चुकी हैं, जहां यह कहा जाता रहा है कि कार्पोरेट, विज्ञापन और मीडिया किसी भी चिकने-चुपड़े चेहरे को सितारा बना सकती है। इन्होंने वो ऊंचाइयां प्राप्त की है कि मीडिया और कार्पोरेट अब इनके पीछे भागेगा। यह आज घर-घर में हर एक की जुबान पर पहुंच चुकी हैं और दिल-दिमाग पर छायी हुई हैं।बहरहाल, इन छह पदक विजेताओं को जो शोहरत, इज्जत और पैसा प्राप्त हुआ या होने वाला है, उसकी कल्पना इन्होंने भी नहीं की होगी। तकरीबन दो सौ से अधिक देशों के खिलाड़ियों के बीच में प्रतिस्पर्धा करते हुए पदक जीतना, वैसे भी इतना आसान नहीं। कह सकते हैं कि ओलंपिक में क्वालीफाई करके भाग लेना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है। और इस ओलंपिक में भारतीय एथलीट की संख्या अब अस्सी का आंकड़ा पार कर चुकी है। उपरोक्त पदक प्राप्त नये-नये सितारों के अतिरिक्त भी कई भारतीय एथलीट ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, जो नये आने वाले भारत में खेल की दुनिया का दृश्य प्रस्तुत करता है। ऐसे कई खिलाड़ी हैं जो फाइनल तक पहुंचे और बहुत कम अंतर से पदक पाने से चूक गये। यह तो तब है जब उन्हें पूरी तरह से अपने देश में खेलने के लिए माहौल, इन्फ्रास्ट्रक्चर, विशेषज्ञ, कोच, आर्थिक सहयोग और सामाजिक समर्थन नहीं मिला। कम से कम उस हद तक तो नहीं जिस तरह से उन खिलाड़ियों को मिला होगा जिससे वे प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। उसके बावजूद कई लोगों ने ध्यानाकर्षित किया। अगर सिलसिलेवार देखें तो डिस्कस-थ्रो में विकास गौड़ा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन करते हुए आठवां स्थान प्राप्त किया। इसी खेल के महिला वर्ग में कृष्णा पुनिया सातवें स्थान पर रहीं। करमाकर 50 मीटर राइफल में चौथे स्थान पर रहे। अर्थात हम पदक लेने से बस चूक गये। ये वो क्षेत्र हैं जहां हमारा थोड़ा-सा ध्यान कई संभावनाओं को खोलता है। हमारे लिये लंदन ओलंपिक के विवाद नुकसानदायक रहे। बॉक्सिंग के निर्णयों में कई तरह की गड़बड़ियों के होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम इसका सबसे ज्यादा शिकार हुए। यह हम नहीं विदेशी मीडिया ने भी कहा। अब हमें इसे रोकने के लिए, इससे लड़ने के लिए भी अपने आप को तैयार करना होगा। हमें इस महत्व को समझना होगा कि रिंग से बाहर भी निर्णय प्रभावित किये जा सकते हैं। कोई भी सच्चा खिलाड़ी यह नहीं चाहेगा कि बिना खेल और मेहनत के गलत तरीकों से पदक हासिल किये जायें। लेकिन हमें अपने आपको इतना मजबूत तो करना ही होगा कि कोई और गलत न कर पायें और आप अपने हक से वंचित न रह जाएं। देवेन्द्रो और सुमित सांगवान को हताश नहीं होना चाहिए। उन्होंने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और उनमें भविष्य कई संभावनाएं देखता है। ठीक उसी तरह कुश्ती में अमित कुमार और गीता फोगाट व बैडमिंटन में कश्यप भारत का कल है।सरकार, समाज एवं परिवार का थोड़ा-सा सहयोग खेल के क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकता है। इन पदक न जीत पाने वाले खिलाड़ियों की ओर भी लोगों का ध्यान जायेगा और उनके साथ भी भविष्य में बराबरी से प्रयास किये जायेंगे। साथ ही हमें अति आत्मविश्वास से बचना होगा, जिसका शिकार इस ओलंपिक में कुछ खिलाड़ी हुए। सन् 2000 के ओलंपिक में मल्लेश्वरी का वेट लिफ्टिंग में कांस्य कई संभावना को खोलता था, मगर हम इसका लाभ नहीं ले पाये। भविष्य में ऐसा होने से बचना होगा। ऐसे में यकीनन अगले ओलंपिक में हम दर्जनों पदक हासिल करेंगे। तब तक हिंदुस्तान में खेल अपने सही स्थान, स्वरूप और गौरव को प्राप्त हो चुका होगा।