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सामाजिक क्रांति बनाम राजनीतिक आंदोलन

टीम-अन्ना के राजनैतिक रूपांतरण के विरोध में लिखे गये मेरे लेख पर सहमति-असहमति तो होनी ही थी। असहमत वर्ग उत्तेजित और नाराज भी हुआ। इन्हें मैं अन्ना अंध-भक्त नहीं कहना चाहूंगा। असल में ये वो वर्ग है, जो समाज की वर्तमान कुव्यवस्था से अत्यधिक त्रस्त है। और इससे जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता है। वो सुनहरे भविष्य की कल्पना करता है, जीवन से उम्मीद रखता है, और इसके लिए सक्रिय भी है। अर्थात, इनकी तो प्रशंसा की जानी चाहिए। यहां तक तो सब ठीक है, मगर मुझे यह देखकर अत्यधिक दुःख होता है जब वो किसी भीड़, फिर चाहे वो मुट्ठीभर ही क्यों न हो, का हिस्सा होता है, और सामने मंच पर विराजमान नेताओं के लच्छेदार भाषण पर तालियां बजाता है व जोश से भर जाता है। सच कहें तो वह अपने आवेश में कुछ और समझना ही नहीं चाहता। भावना के प्रवाह में बहते हुए रुककर सोचना नहीं चाहता। जबकि अच्छे-बुरे का निर्णय तो सभी के तर्क सुनकर ही किया जाना चाहिए। मगर वो तो अपने आंख-कान बंद कर चुका है। ठीक भी तो है, ये वर्ग क्रोधित जो है। और क्रोध में व्यक्ति अमूमन अपना विवेक और संयम खो देता है। ऐसे में सर्वप्रथम हमें उसकी क्रोधाग्नि को शांत करने का प्रयास करना चाहिए।निष्पक्ष होकर देखें तो भ्रष्टाचार विरोधी अनशन के अंतिम दिन तथाकथित टीम-अन्ना के एक अति महत्वाकांक्षी सदस्य के द्वारा ऐसा क्या नया बोला गया जो इससे पहले नहीं बोला गया था। वही वादे, वही नारे, वही सपने। भारतीय राजनीति के किसी प्रतिनिधिक नेता के पुराने घिसेपिटे मॉडल की तरह ही तो व्यवहार किया जा रहा था। वही हथकंडे आजमाये जा रहे थे कि जनता की भावनाओं की नब्ज पकड़ो और फिर उसी गति में प्रवाहित होकर अच्छे-अच्छे उदाहरणों के साथ जोश में बोलते चले जाओ। ऐसे में सामने बैठी जनता ने ताली तो बजानी ही बजानी थी। बात यहां किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर विश्वास-अविश्वास करने की नहीं है। इन नये लोगों को मौका दिया जाना चाहिए, के तर्क के सामने यह सवाल भी कोई अधिक मायने नहीं रखता कि ये मौका इन्हीं को क्यों? मगर यह तो पूछा ही जा सकता है कि इन्होंने अब तक ऐसा क्या किया है कि ये बाकी सब से भिन्न नजर आते हैं? अभी जब कुछ नहीं है कि स्थिति में इतने सारे सवाल, शंकाएं और इल्जाम लगने लगे हैं तो फिर आगे सत्ता में बैठने पर ये अन्य से कैसे अलग होंगे? शक होता है। सबसे प्रमुख सवाल कि जो सामाजिक क्रांति की शक्ति पर विश्वास नहीं कर पाये और चंद महीनों में ही अपनी राह बदल ली, वे राजनीतिक आंदोलन के मार्ग पर कहां तक चल पायेंगे और फिर कैसे सफल होंगे? बिना अवाम के समर्थन के राजनैतिक आंदोलन सफल नहीं हो सकता और वो अगर साथ होती तो सामाजिक क्रांति भी असफल नहीं हो सकती थी। सत्य तो यह है कि 'संपूर्ण राष्ट्र हमारे साथ है', कहकर भ्रम की स्थिति क्यों फैलाई गयी? शब्दों और विचारों से क्यों उलझाया गया? यही नहीं, जिस महात्मा गांधी का नाम बार-बार लिया गया उसके आदर्शों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस के अस्तित्व को लेकर महात्मा गांधी द्वारा कहे गये कथन, इस संदर्भ में सटीक उदाहरण बन सकते हैं। और फिर जो कुछ हुआ इतिहास गवाह है कि आजादी मिलने के बाद सत्ता-परिवर्तन तो हुआ मगर व्यवस्था-परिवर्तन नहीं हो पाया। इस बात को तो गांधी के कट्टर विरोधी भी मानेंगे कि अंत तक उन्होंने सत्ता में भागीदारी नहीं की, शायद यही एकमात्र कारण है जो वो महात्मा बने और आज भी पक्ष और विपक्ष दोनों के द्वारा पूजे जाते हैं। जिस जयप्रकाश आंदोलन का उदाहरण आज दिया जाता है। उसका आगे चलकर क्या हुआ? इसके जवाब में हम या तो तथ्यों की अनदेखी करते हैं या फिर स्वयं को भ्रमित करते हैं। मगर इस नंगे सच को कैसे झुठला सकते हैं कि उस दौरान परिवारवाद के विरोध में लड़ने वाले कई नेता आज अपनी वंशावली को राजनीति में स्थापित करने में पूरी तरह जुटे हैं और बहुत हद तक सफल भी हो चुके हैं। लोहिया और जेपी के आदर्शों को जितना इन मुट्ठीभर लोगों ने धूमिल किया, उसकी कल्पना समाजवाद के धुर-विरोधी भी नहीं कर सकते।कइयों द्वारा यह सवाल भी पूछा गया, जो फिर उचित भी है कि ऐसे में फिर क्या किया जाना चाहिए? इस सवाल के जवाब में कुछेक सवाल पूछे जाने चाहिए, जिसमें इसका जवाब छुपा हुआ है। क्या सत्ता से जनहित का काम करवाने के लिए खुद सत्ता में बैठना ही एकमात्र विकल्प है? क्या अवाम की भावना और नब्ज को कोई भी सत्ताधारी पूरी तरह नजरअंदाज कर सकता है? क्या जनता सत्ता की कुटिल राजनीति को नहीं समझ पा रही? अगर समझ रही है तो फिर किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं और अगर नहीं समझ पा रही तो वो आपकी ओर ही क्यूं आकर्षित होगी? अगर आपके मतानुसार उसके पास कोई विकल्प नहीं तो वो फिर आप पर भी क्यों भरोसा करे? क्या यह सच नहीं कि अंदर बैठकर व्यवस्था परिवर्तन नहीं हो सकता, सत्ता की भागीदारी होती है? वोटों की राजनीति के लिए कई बार लोकलुभावने सपने दिखाये जाते हैं, वर्तमान को खुश करने के लिए लोकप्रिय निर्णय लिये जाते हैं जो आमतौर पर समाज के हित में नहीं होते हैं, और जिनके दूरगामी परिणाम कई बार नुकसानदायक साबित होते हैं। क्या यही कार्य आपको नहीं करना होगा? गुंडों-बदमाशों को नियंत्रित करने के लिए स्वयं कभी गुंडा नहीं बनना पड़ता। इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है जब सामाजिक और छात्र आंदोलनों ने राजनीतिक रूप धारण किया। अधिकांश नेता तो राजनीति के दलदल में डूबकर खत्म हो गये, जो कुछ सफल भी हुए तो उन्होंने व्यक्तिगत लाभ तो खूब कमाया, कई बड़े नेता भी बने मगर समाज का कोई विशेष कल्याण किया हो दिखाई नहीं देता। आज राजनीति राज की नीति नहीं राज करने की नीति बन चुकी है। और सबसे अहम है कि जनता का इसको मौन समर्थन प्राप्त है। वरना ये स्वार्थी लोग कभी न चुने जाते। ऐसे में अवाम को जाग्रत करना अधिक जरूरी है। यह काम सामाजिक क्रांति से संभव है या राजनैतिक आंदोलन से? यकीनन सामाजिक कार्यकर्ता अधिक प्रभावशाली ढंग व निःस्वार्थ भाव से काम करते हैं। वे कुछ मांगते नहीं हैं इसलिए उन पर आम जनता जल्दी विश्वास करती है। जो स्वयं ही भीख (वोट के रूप में) मांग रहा हो वो दूसरे को सीख कैसे दे सकता है?भारतीय इतिहास के अंदर झांके तो हमें ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जो हमारे तमाम सवालों का उचित जवाब देने के लिए खुद ही पर्याप्त होंगे। प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं की सत्ता के इतर ऋषि-मुनियों की अपनी एक दुनिया थी। उनका अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता था। समाज उनका आदर-सम्मान करता था। वे अवाम का नैतिक बल थे। वे शक्तिशाली मगर पूर्णतः राष्ट्र को समर्पित हुआ करते थे। निःस्वार्थ, ज्ञानी, समाजसेवी, मगर समाज में रहते हुए भी समाज से बाहर रहते थे। समाज में उनका ऊंचा दर्जा था। उनका अपना अलग आभामंडल हुआ करता था। कोई सेना नहीं, सांसारिक जीवन की कोई भौतिक सुख-सुविधा नहीं। सामान्य जीवन। जंगलों में कुटिया बनाकर रहा करते थे। मगर उनके द्वार पर बड़े-बड़े महाराजाधिराज भी नतमस्तक होने आया करते थे। इन ऋषि-मुनियों का डर होता था और ये राजा-महाराजाओं को निर्देश भी दिया करते थे। वे एक तरह से राजसत्ता पर नजर रखते थे। आज के शब्दों में कहें तो एक प्रकार का प्रेशर-ग्रुप। वे समय आने पर निरंकुश और भ्रष्ट राजाओं पर नकेल भी कस देते थे। इसके लिए वे फिर किसी भी हद तक चले जाते थे। इन उदाहरणों को कथा-कहानी या किंवदंती भी मान लें तब भी यह तो स्वीकार करना ही होगा कि उस जमाने के साहित्यकार व सामजिक चिंतक भी अपनी लेखनी से राजनैतिक सत्ताओं को नियंत्रण में रखने के लिए इस तरह के चरित्र का निर्माण करते थे। धार्मिक उपदेशों व कथा-कहानियों को देखें तो वहां भी इसी तरह के उदाहरणों से जनता में जाग्रति पैदा की जाती थी। चाणक्य तो जीता-जागता उदाहरण हैं जो कि इतिहास का हिस्सा है। इसे कैसे झुठलाया जा सकता है? इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को कैसे नजरअंदाज कर दें? जहां एक ब्राह्मण ने सत्ता-लोभी राजा को सत्ताच्युत करने के लिए वो सब किया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने सब कुछ किया मगर सत्ता का उपभोग नहीं किया। यही नहीं अपने सत्ताधारी चंद्रगुप्त पर भी प्रारंभ से ही इतना सशक्त नियंत्रण रखा कि न तो वो स्वार्थी बन पाया और न ही लोभी। आज चाणक्य की भूमिका निभाने वालों की आवश्यकता है। मगर उससे अधिक सबसे पहले चाणक्य की हद तक निःस्वार्थ देशभक्त और समाजप्रेमी बनने की जरूरत है। कुछ अन्ना समर्थक कह सकते हैं कि वे चंद्रगुप्त को फिर से जीवित करने का ही कार्य कर रहे हैं। मगर वे ये भूल जाते हैं कि चंद्रगुप्त का चरित्र सत्ता के लिए कभी भी लालायित नहीं था। वह मूल रूप से एक अति संवेदनशील और निःस्वार्थ भाव वाला मानव-प्रेमी सच्चा राष्ट्र-भक्त था। यही कारण है जो उसके अपने स्वयं के साथी उसे बहुत अधिक पसंद और प्रेम किया करते थे। क्या आज के इस महत्वाकांक्षी भीड़ में कोई चंद्रगुप्त के समकक्ष खड़ा होने लायक दिखता है? एक-दूसरे की टांग खींचना, आंतरिक कलह, अहम्‌ की लड़ाई, स्वयं को आगे रखने की होड़, इस बात के प्रमाण हैं कि वे चंद्रगुप्त के वंशावली के नहीं हो सकते। यहां हमें याद रखना होगा कि यह वही चंद्रगुप्त है जिसने अंत में सब कुछ त्यागकर जंगल की ओर प्रस्थान किया था।सामाजिक क्रांति का अपना महत्व है। सामाजिक क्रांतिकारी स्वार्थवश में या किसी के प्रभाव में आकर कार्य नहीं करते। उनका आदर्श होता है। वे सामाजिक उद्देश्यों के लिए समर्पित होते हैं। उनका व्यक्तिगत कुछ भी नहीं। महत्वाकांक्षा का कोई स्थान नहीं। वे पथप्रदर्शक का कार्य करते हैं। आदिकाल से लेकर आज के युग के कई सामाजिक कार्यकर्ता भी अपने-अपने क्षेत्र में अति आदर से देखे जाते हैं। क्या यही सम्मान व विश्वास एक्स-वाई-जेड सिक्योरिटी रिंग से घिरा हुआ कोई भी बड़ा से बड़ा राजनेता प्राप्त कर पाता है? गांधी के पास मिलने के लिए बड़े-बड़े नेता आया करते थे। वो किसी महल, पद या सत्ता पर विराजमान नहीं थे। अन्ना हजारे ने आज तक जो कुछ भी कमाया वो कोई भी नेता प्राप्त नहीं कर सकता। उसकी कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती। उनके नाम का अपना एक आकर्षण है। एक ऐसा नाम जिस पर विश्वास किया जा सकता है। जिससे भ्रष्ट राजनेता भयभीत होते हैं और आम जनता सम्मोहित। वे अवाम के दुःख-दर्द और सामाजिक अव्यवस्थाओं के विरोध का नेतृत्व करते आये हैं। अगर वो स्वयं सत्ता में बैठ जायें या बैठाने लगे तो अवाम की कौन सुनेगा?आज के युग में ऋषि-मुनियों की कमी है। इसलिये आज कलियुग है। राजगद्दी पर बैठने के लिए आतुर लोगों की लंबी कतार लगी है। कुटिया में रहकर संत बनने के लिए कोई तैयार नहीं। अगर कोई सचमुच देश और समाज का भला करना चाहता है तो उसे सतपुरुष बनना होगा। त्याग करना होगा। जीवन समर्पित करना होगा। सतयुग अपने आप वापस आ जायेगा।