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फुटबाल का धमाल
किसी का इंतजार करना एक मुश्किल काम है। यह हर तरह से तंग करता है। खासकर तब जब वो आपका प्रिय व पसंदीदा व्यक्ति हो। मनपसंद खानपान, मनोरंजन या फिर अपेक्षित निर्णय आदि के लिए तो लंबा इंतजार असहनीय हो जाता है। बहरहाल, फुटबाल-प्रेमियों द्वारा विश्वकप के लिए चार साल का इंतजार किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। विशेष रूप से उन दर्शकों के लिए जो क्लब के लिए सीजन में खेले जा रहे विभिन्न मैचों से अपने आप को जोड़ नहीं पाते। यहां यह बताना उल्लेखनीय होगा कि फुटबाल के प्रेमी उन तमाम देशों में भी बहुतायत में फैले हुए हैं जिनका अपना देश इस खेल में कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर पाता। इसे विश्व का सबसे लोकप्रिय व रोचक खेल कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। ठीक भी है, यूं तो यह सबसे आसान, सरल, सुलभ और मात्र एक गेंद द्वारा बिना किसी खर्च के कहीं भी कभी भी खेला जा सकता है। शायद इसीलिए इसे गरीबों का खेल भी कहते हैं। यह दीगर बात है कि आज यह पैसे उगाने का एक ऐसा माध्यम बन गया है जहां खिलाड़ी कुछ चंद महीनों में ही करोड़ों में खेलने लगते हैं। यहां पैसों की बरसात होती है। इनसे जुड़े क्लब के धनवान होने का कोई हिसाब नहीं। लोकप्रियता की तो कोई सीमा ही नहीं। कुछेक देश के खिलाड़ी तो इतने लोकप्रिय हैं कि विश्वभर में उस देश के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का नाम कोई जाने न जाने मगर वहां के स्टार फुटबालर का नाम बच्चों-बच्चों की जुबान पर होता है। और फिर यह इतिहास के पन्नों में ऐसे दर्ज हो जाते हैं जैसे कि कोई चक्रवर्ती सम्राट। तभी तो विश्वभर का सत्ता-वर्ग व शासक से लेकर व्यवसाय, मनोरंजन और मीडिया के शीर्ष लोग इस खेल के साथ जुड़ने की फिराक में हमेशा लगे रहते हैं। यह दीगर बात है कि वे भी यहां अपने फायदे के सौदे के लिए ही आते हैं। ऐसी परिस्थिति में करोड़ों फुटबाल-प्रेमियों को चार साल इंतजार कराना क्या उचित जान पड़ता है? शायद यही कारण रहा होगा जो 1960 में यूरोपियन फुटबाल एसोसिएशन ने मिलकर एक नये टूर्नामेंट की घोषणा की। यहां यह बताना उल्लेखनीय होगा कि यूं तो इस तरह के खेल के आयोजन का प्रयास फ्रांस फुटबाल एसोसिएशन के हेनरी द्वारा सन् 1927 से ही प्रारंभ हो गया था। मगर यह उनकी मृत्यु के तीन वर्ष बाद ही शुरू हो पाया। इसके बावजूद उनके निरंतर पहल को यूरो-कप ने कभी नजरअंदाज नहीं किया। हर चार वर्ष के अंतराल में, दो विश्वकप फुटबाल के बीचोबीच अर्थात एक विश्वकप के दो वर्ष बाद होने वाले इस यूरो कप की बढ़ती लोकप्रियता का अंदाज सिर्फ इसी तथ्य से निकाला जा सकता है कि पहले यह फाइनल टूर्नामेंट मात्र चार यूरोपियन देशों की टीमों के बीच खेला जाता था जिसे 1980 में बढ़ाकर आठ किया गया। यही नहीं, 1996 के आते-आते इस आंकड़ें को सोलह करना पड़ा और 2016 में यह 24 यूरोपियन देशों के बीच खेला जायेगा। इसके पीछे दिये गये तर्क भी सटीक लगते हैं। पूर्व में कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी कि वर्ल्ड-कप के लिए यूरोप की टीमों का क्वालीफाई करना आसान होता था मगर यूरो-कप में प्रवेश मुश्किल हो जाता था। 1982, 1986 व 1990 के वर्ल्ड कप की 24 टीमों में 14 यूरोपियन टीमें पहुंची थीं जबकि उसी दौरान यूरो-कप में यूरोप की मात्र आठ टीमें ही प्रवेश कर पाती थीं। अर्थात कई देश की टीमें विश्वकप तो खेलती थीं मगर अपने घर में ही यूरो-कप खेलने से वंचित रह जाती थीं। यह यूरो कप में प्रवेश की उत्कृष्टता प्रामाणित करने व इसे अत्यंत कठिन होने के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने तक तो स्वीकार्य हो सकता है मगर वास्तविकता में देखें तो अव्यवहारिक है। यह प्रवेश न पाने वाली टीमों में निराशा भी पैदा करता था। वैसे भी फुटबाल में प्रारंभ से ही यूरोप का वर्चस्व रहा है। आज भी ऊपर की 15 से 20 रैंकों को देखें तो कुछेक को छोड़कर बाकी सभी शेष टीमें यूरोप की ही हुआ करती हैं। लोकप्रियता के पैमाने पर भी अर्जेंटीना और ब्राजील के अतिरिक्त तमाम विशिष्ट फुटबाल टीमें यूरोप की ही मिलेंगी। इसमें कोई शक नहीं कि जिस तरह से विज्ञान, साहित्य एवं कला के क्षेत्र में यूरोप का विश्व में सर्वाधिक योगदान रहा है। उसी तरह फुटबाल में भी इस उपमहाद्वीप का अपना एक विशिष्ट और बड़ा शेयर है। यह बात यहां थोड़ी अटपटी लग सकती है, मगर सत्य है कि यूरोप के देशों का आपसी झगड़ा ही विश्व-युद्ध प्रथम और द्वितीय में परिवर्तित हुआ। यूरोप की जमीन से प्रारंभ हुए इस युद्ध ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था। शायद यह संदर्भ कुछेक पाठक व बुद्धिजीवियों को असंदर्भित लग सकता है। मगर इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यूरोप की परस्पर प्रतिस्पर्धा जब भी कभी किसी क्षेत्र में हुई है उसने संपूर्ण विश्व को प्रभावित किया है ओर वो हर जगह प्रमुखता से छा गयी। यहां यूरो-कप के प्रभाव और लोकप्रियता को इस तर्क के सकारात्मक उदाहरण के रूप में लिया जाना चाहिए। शायद यही कारण है कि इसका महत्व वर्ल्ड-कप से अधिक तो नहीं मगर कम भी नहीं कहा जा सकता।विगत सप्ताह से यूरो-कप 2012 के प्रारंभ होने पर कई भारतीयों ने भी स्वयं को इसके लिए तैयार किया होगा। छोटी-छोटी खुली जगहों पर बच्चों को फुटबाल खेलते हुए देखा जा सकता है। अब कई घरों में देर रात टीवी स्क्रीन के सामने हल्ला होते हुए चाय-पकोड़े और खान-पान का दौर चलेगा। गर्मी की छुट्टियों में जवान से लेकर बूढ़ों तक के लिए यूरो-कप को देखना एक बेहतरीन मनोरंजन का साधन हो सकता है। प्रतिदिन होने वाले दो मैचों में किस्मत से प्रथम मैच का प्रसारण समय हिन्दुस्तान में रात साढ़े नौ से होने के कारण अधिकांश इसे आसानी से देख भी सकते हैं। हां, सास-बहू के नाटकीय सीरियलों का प्राइम टाइम होने के कारण कई घरों में अपने-अपने कार्यक्रम देखने को लेकर गृहयुद्ध भी छिड़ सकता है। उधर, दूसरे मैच का समय-काल अर्धरात्रि में होने के कारण शायद इसे रोज देख पाना संभव न हो। फिर भी हिन्दुस्तानियों को इस बात के लिए शुक्रिया अदा करना होगा, चूंकि कई पूर्वी देशों में यह सुबह से ठीक पहले प्रसारित होता है। मेरा एक मित्र, जो कि इस वक्त इंडोनेशिया में है, मात्र इसलिए रोजाना मैच नहीं देख पाता। बहरहाल, हिन्दुस्तान में क्रिकेट के अंध-भक्तों के बीच साबुन-फेयरनेस की क्रीम बेचने वाले चैनलों द्वारा यूरो-कप का प्रसारण अधिकार न लिये जाने से आम दर्शकों को यकीनन दिक्कत हो रही होगी। मात्र एक विशिष्ट चैनल द्वारा ही इसे दिखाये जाने के कारण फुटबाल-प्रेमियों को परेशान होते हुए सुना-देखा है। मुझे स्वयं इस विशिष्ट चैनल को अपने केबल-आपरेटर से बोलकर चालू करवाना पड़ा, जिसका अतिरिक्त मासिक किराया देना होगा!! यह दीगर बात है कि इस खेल की मस्ती के सामने यह रकम कुछ भी नहीं।अगले कुछ दिनों तक स्पेन, पुर्तगाल, जर्मनी को खेलते हुए देखना अत्यंत रोचक होगा। यहां स्वीडन, इटली और नीदरलैंड व डेनमार्क को कमतर आंकना उचित न होगा। कोई अनपेक्षित व कमजोर टीम सारा उलटफेर कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं। यहां यह तथ्य भी कम रोचक नहीं कि अब तक के 13 यूरो-कप को 9 यूरोपियन राष्ट्र ही जीत पाये हैं। जर्मनी तीन बार, फ्रांस और स्पेन दो-दो बार, इटली, चेकोस्लोवाकिया, नीदरलैंड, डेनमार्क, ग्रीस, रूस एक-एक बार। अर्थात बाकी की टीमें यूरो-कप पर अपना कब्जा जमाने का हर बार की तरह इस बार भी भरपूर प्रयास करेंगी। यह जोश के साथ-साथ होश का भी खेल है और किस्मत के फ्लेवर से यहां इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जीतेगा वही जिसमें दम होगा, अंत तक जूझने की क्षमता और प्रवृत्ति होगी। इन खिलाड़ियों के फिटनेस को देखकर कई बार आश्चर्य होता है कि क्या वास्तव में ये आधुनिक युग के मनुष्य जाति के प्राणी ही है! शरीर के हर हिस्से का कलात्मक उपयोग और आवश्यक बचाव करते हुए जमीन पर रगड़ा और पटकी खाकर भी तुरंत खड़ा हो जाना, कई बार सोचने को मजबूर कर देता है कि इनके शरीर में ऐसा क्या है कि जो सामान्यतः इन्हें चोट नहीं लगती। मेराडोना और पेले के फुटबाल में यूरोप ने भी कई सितारे दिये, जिनमें जिदाने और बेकहम आदि आज भी याद किये जाते हैं। वर्तमान की स्टार सूची में से अर्जेंटीना के मैस्सी को छोड़ दें तो बाकी तमाम स्टार खिलाड़ी को एकसाथ खेलते देखना यूरो-कप में रोचकता पैदा करेगा। पुर्तगाल के रोनाल्डो अभी भी उसी जोश और दमखम के साथ उतरे हैं। क्या वह पुर्तगाल को भी अपनी तरह वही शोहरत दिला पायेंगे? पिछले कुछ खेलों को देखकर लगता है कि उन्हें अपने व्यक्तिगत खेल के अतिरिक्त टीम भावना को भी साथ लेकर चलना होगा। इसके बिना न तो टीम जीत पाती है न ही खिलाड़ी महान बन पाता है। और भी कई सवाल हैं, मसलन, क्या इंग्लैंड अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल होगा? क्या फ्रांस अपनी पुरानी लय को प्राप्त कर पायेगा? बहरहाल, लाखों लोगों की आशाएं पुर्तगाल, स्पेन और जर्मनी से जुड़ी हुई हैं। तभी तो फुटबाल-प्रेमियों के लिए अगला एक महीना मदमस्त कर देने वाला होगा। इस दौरान कुछ अपने चहेतों की जीत का जश्न मनायेंगे तो कुछ हार में निराश होंगे। यही तो इस खेल का जुनून है। देखते हैं यूरो-फुटबाल का ताज इस साल किसके माथे की शोभा बढ़ाता है?