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समस्या के मूल में

आमिर खान ने अपने टेलीविजन कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते' के माध्यम से पिछले रविवार हिंदुस्तान की आत्मा को एक बार फिर झकझोरा है। यूं तो मेडिकल प्रोफेशन में मची लूट-खसोट जगजाहिर है। एक डाक्टर पैसे की लालच में किस हद तक गिर सकता है, इस सत्य को उजागर करने वाली कहानियां आम सुनने को मिल जायेंगी। ये दिल को दहला देती हैं। हां, टेलीविजन के लिए ये किसी सनसनी से कम नहीं। यूं तो अस्पताल से लेकर मेडिकल कॉलेज एवं तमाम स्वास्थ्य विभागों में मची भ्रष्टाचार की खबरें समाचारपत्रों में सुर्खियों में छपती रही हैं। एक तरफ दवाइयों में मिलावट तो दूसरी तरफ डाक्टरों से मिलने के लिए कतारबद्ध खड़े मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को देख उनकी सैटिंग काफी हद तक वैसे ही समझ आती है। मगर फिर भी मरीज डाक्टर पर विश्वास करते हुए उसकी कही हुई बातों का अक्षरशः पालन करता है। तभी तो अमूमन वही करता है जो उसे बताया जाता है। 'मरता क्या नहीं करता' वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है। बहरहाल, इस मुद्दे को आमिर ने विस्तार में बताकर देश और समाज को जगाने की कोशिश की है। वे उन मुद्दों को उठा रहे हैं जिन्हें हम बेशक जानते जरूर हैं मगर जागरूक नहीं हैं। नागरिकों द्वारा सक्रिय भूमिका नहीं निभाई जा रही। लोकप्रिय कलाकार आमिर खान द्वारा टेलीविजन जैसे सशक्त माध्यम से समाज की कुरीतियों के विरुद्ध जनजागृति अधिक सशक्त रूप में लायी जा सकती है, इसमें कोई शक नहीं। और वे इसकी भूमिका बखूबी निभा भी रहे हैं। लेकिन जैसे कि मैं पूर्व में भी कहता रहा हूं, आमिर समस्या के जड़ में जाने से, मेरे मतानुसार, कहीं-न-कहीं चूक जाते हैं। यह कुछ-कुछ उसी तरह हुआ कि बुखार आने पर डाक्टर दवाई देकर शरीर का तापमान तो उतार देता है मगर मूल कारण न जान पाने से शरीर की असली बीमारी दूर नहीं हो पाती।यहां सवाल उठता है कि डाक्टर आखिरकार ऐसा घृणित कार्य क्यों कर रहे हैं? ऐसी अमानवीयता जब एक सामान्य आदमी आमतौर पर नहीं कर सकता, सोच भी नहीं सकता, तब पढ़े-लिखे के द्वारा ऐसा किया जाना, कई प्रश्न खड़े करता है। क्या एक आम आदमी, वो भी बिना किसी वजह, किसी दूसरे की जान ले सकता है? कदापि नहीं। जान से मारना तो दूर, किसी अनजान को शारीरिक रूप से चोट भी नहीं पहुंचा सकता। शारीरिक हिंसा करना, इतना आसान नहीं होता। मगर फिर मात्र पैसे की लालच में डाक्टरी-पेशा से जुड़े लोग इस हद तक क्यों गिरने लगे हैं? यहां यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि यह भी एक किस्म की हिंसा ही है जिसे क्राइम की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उपरोक्त उठ रहे सवालों के जवाब में कई कारण गिनाये गये। यहां दवाई विक्रेता की मिलीभगत दिखाई गई। पैथोलॉजी लैब के साथ कमीशनबाजी बतायी गई। यह बात भी बड़ी प्रमुखता से उठायी गयी कि दोषी डाक्टरों पर कार्यवाही नहीं होती। मगर फिर इस तथ्य पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि इंग्लैंड में, जहां सख्त कार्यवाही होती है, प्रतिवर्ष सजा-प्राप्त डाक्टरों की संख्या में, जैसा कि बताया गया, रुकावट क्यों नहीं आ रही है? इसका जवाब हम आगे शायद जान सकें। कार्यक्रम में एक और प्रमुख कारण उभरा, जो काफी हद तक उचित भी जान पड़ता है, वो था प्राइवेट मेडिकल कालेज में ली जाने वाली लाखों रुपये की डोनेशन फीस। यह सत्य है कि जो छात्र लाखों खर्च करेगा वो उसे पहले वापस कमा लेना चाहेगा। चर्चा के दौरान अधिक से अधिक प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खुलने पर प्रश्नचिन्ह भी लगाये गये। इसी संदर्भ में इस बात को भी बखूबी उभारा गया कि सरकारी की स्वास्थ्य नीति गलत है। ये सभी सवाल बहुत हद तक उचित जान पड़ते हैं।इसी नीति विश्लेषण को थोड़ा विस्तार दें तो हम पायेंगे कि आधुनिक व फाइव-स्टार सुविधाओं से लैस बड़े-बड़े अस्पताल भी उपरोक्त घृणित कार्य के लिए बहुत हद तक जिम्मेवार हैं। करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करके बनाये गये इन भव्य अस्पतालों में धर्मशालाएं नहीं खोली जाती। जो इतनी अधिक पूंजी लगायेगा वो उसी अनुपात में वापस कमाना भी चाहेगा। और चूंकि यह व्यापार है तो अधिक से अधिक लाभ कमाना भी यकीनन यहां उद्देश्य होगा। और फिर इसकी तो कोई सीमा नहीं होती। ऐसे में बाजारवाद के समर्थक कह सकते हैं कि जो रोगी इन आधुनिक सुविधाओं का उपभोग करने में सक्षम हैं, वे ही इसमें इलाज कराने जायें। मगर क्या यह समाज के रोगियों में भी वर्ग-भेद नहीं कर रहा? बहरहाल, इस सामाजिक मुद्दे को एक बार नजरअंदाज भी कर दें तो यह अपने ही उच्चवर्ग का जमकर शोषण कर रहा है। मध्यमवर्ग, जो उच्चवर्ग की सुविधा लपक लेने के जुगाड़ में हर वक्त ताक लगाये बैठा रहता है, इनके चंगुल में आसानी से फंसता है। वैसे भी अगर विज्ञापन का आकर्षण न हो तो करोड़ों के ये अस्पताल कैसे चलेंगे? और फिर शुरू होता है आने वाले हर अमीर मरीज को ग्राहक बनाकर उससे अधिक से अधिक पैसे वसूलने की कहानी। ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे जहां पढ़ा-लिखा परिवार इनकी बातों में अधिक आसानी से आ जाता है। प्राइवेट मेडिकल कालेज हों या आधुनिक बड़े-बड़े निजी चिकित्सालय, यह सब हमारी आधुनिक स्वास्थ्य नीति के अंतर्गत आते हैं। खुली अर्थव्यवस्था का खमियाजा यहां हम सब भुगत रहे हैं। मगर इस नीति से भी अधिक खतरनाक है डाक्टर की नीयत खराब होना। और डाक्टर के भीतर बैठे इंसान की नीयत खराब करने का दोषी है आज का बाजारवाद, पूंजीवाद और आकर्षक लुभाने वाला खुला बाजार। जिस समाज के केंद्र में अर्थशास्त्र हो उसके निवासी अर्थ के मायाजाल और मोह से कैसे दूर रह सकते हैं। जहां सुबह से शाम तक चारों ओर आकर्षक विज्ञापन की दुनिया से जीवन संचालित होता हो, उससे कोई कैसे बच सकता है? आज हर बड़ा कलाकार, लोकप्रिय खिलाड़ी कुछ न कुछ बेचने के चक्कर में लगा हुआ है। उनका अपना प्रभाव है, आभामंडल है। यह दीगर बात है कि इसे भी बेचने में दुरुपयोग किया जाता है। ऐसे में फिर हम और आप खरीददार तो बनेंगे ही। जहां दिनभर अधिक से अधिक 'विश' करने के लिए प्रेरित किया जाता हो, नयी-नयी चाहतों को पालने के लिए उकसाया जाता हो, भौतिक इच्छाओं को जबरन बढ़ाया जाता हो, वहां तमाम इंद्रियों के वश में जी रहे एक आम मानव से संतुलित व्यवहार की उम्मीद कैसे की जा सकती है? जिस काल में सिनेमा, नाटक और टेलीविजन, महंगी-महंगी शादियां, पार्टियां दिखा रहा हो, जहां लाखों के आभूषण और हजारों रुपयों के वस्त्र कुछ मिनटों के लिए पहने जाने की दिखावे की संस्कृति पनपायी जा रही हो, वो समाज इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक पैसे कमाने के लिए क्यों नहीं आतुर होगा? महंगी गाड़ियां, ब्रांडेड कपड़े, एयरकंडीशंड घर-दफ्तर, चमकती जीवनशैली, जब हर आम आदमी की इच्छा-सूची में आने लगे तो फिर उस समाज का क्या हश्र होगा? जगजाहिर है। जिस समय-काल का मुख्य उद्देश्य ही पैसा कमाना हो, उस काल में इंसान से इंसानियत की उम्मीद कैसे की जा सकती है? ऐसे वक्त में सिर्फ किसी एक वर्ग से इन सबसे ऊपर उठकर जीने की उम्मीद करना क्या गलत नहीं होगा? हम तो चोरी नहीं डकैती करें लेकिन सामने वाले से सज्जन बने रहने की उम्मीद करें, क्या यह संभव है? कदापि नहीं। इंग्लैंड जैसे बाजारवाद के प्रमुख देशों में कड़े नियम के बावजूद सजा प्राप्त डाक्टरों की संख्या के न रुकने का यही कारण है। लोगों में कानून के भय से अधिक बाजार की चकाचौंध का असर है।सिर्फ मेडिकल लाइन ही क्यों शिक्षा का क्षेत्र, जो कि उतना ही महत्वपूर्ण एवं सम्मानीय हुआ करता था, वहां भी आजकल पैसे की लूट-खसोट मची हुई है। हमें सिर्फ मेडिकल लाइन के लिए इसीलिए भावुक नहीं हो जाना चाहिए चूंकि यह जीवन और मरण से जुड़ा हुआ है। शिक्षा को पैसे से बेच-खरीद कर हमनें एक पूरी पीढ़ी को मानसिक रूप से कमजोर और विचारों से दिवालिया बना दिया है। यही नहीं, धर्म और आस्था के क्षेत्र में भी पैसे की भूख देखी जा सकती है। इसने हमारी पूरी सभ्यता और संस्कृति को प्रदूषित कर दिया है। फलस्वरूप तेजी से बढ़ रही कट्टरता हमारे लिए आत्मघाती साबित होती जा रही है। यही नहीं, राजनीति, जो सेवा का एक अति विशिष्ट सामाजिक रूप हुआ करता था, अब पैसे कमाने का प्रमुख क्षेत्र बन चुका है। इसने हमारी राष्ट्रीय-भावना तक से ऐसा खिलवाड़ किया है कि अवाम का विश्वास डगमगा चुका है। मगर इन सबकी नीयत को खराब किया है बाजारवाद के उस सिद्धांत ने जो आदमी को इंसान नहीं समझता। फिर चाहे वो छात्र हो, भक्त हो, या फिर मरणासन्न रोगी। ये सब तो उसके लिए मात्र एक उपभोक्ता हैं जिसे माल बेचकर व सेवा देकर पैसा कमाना उसका मूल उद्देश्य है। हमें इस बात को समझना होगा कि डाक्टर हो या शिक्षक या फिर नेता-अभिनेता, ये सभी इसी समाज से आते हैं। ये हमारे ही प्रतिरूप हैं। बाजार ने हालात इतने खराब कर दिये हैं कि करोड़ों रुपये चोरी से कमाकर हजार दान में दिखाकर पुण्य कमाने की कोशिश की जाती है। कई सामाजिक कार्यक्रमों में काला-धन लगा हुआ है। यही क्यों, टेलीविजन धारावाहिकों के विज्ञापनदाताओं के छिपे हुए उद्देश्य को देखने लगे तो हमें बाजार का खेल समझ आयेगा। दूसरों पर दोषारोपण करने से पहले हमें अपनी नीयत भी देखनी होगी, समझनी होगी, परखनी होगी। संतुलित व उन्नत समाज में डाक्टर व शिक्षक अपनी चाहतों को स्वतः ही नियंत्रित कर लेंगे। कंटीले पेड़ की जड़ों को काटकर साफ करने से अधिक आसान है गलत बीज बोने से बचना। हमें नीयत को ठीक रखने वाली नीति को अमल में लाना होगा। वरना इस सत्य को स्वीकारना होगा कि डाक्टर तो इस बाजार रूपी नाटक का एक चरित्र मात्र है जिसकी कहानी बाजार का संचालक लिखता है।