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राष्ट्रीय भावना की कमी
भारतीय उपमहाद्वीप, अर्थात विश्व की प्राचीनतम सभ्यता। एक राष्ट्र के रूप में हमारा इतिहास बेशक लंबा रहा हो मगर उसका रूप-स्वरूप सदा बदलता रहा, जो हमारी प्रवृत्तियों और कमजोरियों को बखूबी प्रदर्शित करता है। यही नहीं, हमारे भूतकाल का बड़ा कालखंड गुलामी में बीता। दुनिया की शायद ही कोई मनुष्य प्रजाति रही हो जिसने यहां आकर लूट-खसोट और अधिकार जमाते हुए हम पर शासन न किया हो। और हम विभिन्न विदेशी शासकों के अधीन खुशी-खुशी सालों-साल शासित रहे। कह सकते हैं कि इस दौरान हम गुलाम रहने के आदी बन चुके थे। यह धीरे से कब हमारा स्वभाव बन गया हमें पता ही नहीं चला। हमारी संस्कृति में भी शासकों के रंग घुलते-मिलते चले गये। हमारी अति प्राचीन वर्ण-व्यवस्था एवं जातिप्रथा में भी शासक-शासित की बू आती है। सच पूछा जाये तो अब हम एक ऐसी भीड़ में रूपांतरित हो चुके हैं जो समय-काल में धीरे-धीरे काफी हद तक स्वकेंद्रित व स्वार्थी हो चुकी है। इसका परिणाम यह हुआ कि हम बाहर के व्यक्ति से अपनी आत्मसुरक्षा के नाम पर भी संघर्ष नहीं करते, उलटा उसका स्वागत करते हैं, लेकिन आपस में वर्चस्व की लड़ाई खूब लड़ते हैं। हम अपने ही घर में ताल ठोंकते रहते हैं और एक-दूसरे को देख सीना फूलाने में कसर नहीं छोड़ते। फलस्वरूप हम पर शासन करना बहुत आसान है। हमने अपनी इन कमजोरियों को छिपाने के लिए अनेक शब्दों का आविष्कार किया, कई नई परिभाषाएं रचीं और उनके विशिष्ट अर्थों से स्वयं को अलंकृत किया। सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक-जामा पहनाते हुए दर्शनशास्त्र की नयी-नयी विभिन्न विचारधाराओं से सुशोभित भी कर दिया लेकिन यह हमें किस हद तक नुकसान पहुंचा सकता है, हमें स्वयं नहीं पता। और अगर पता चल भी जाये तो हम अनजान बन जाते हैं। आज यह हमारे अस्तित्व के लिए चुनौती बन चुका है। इसने हमारे अंदर के स्वाभिमान को भी तोड़ा है, मरोड़ा है। हमें कोई एक थप्पड़ मारे तो हम दूसरा थप्पड़ खाने के लिए तैयार रहने की बात तक करते हैं। यह किसी विशिष्ट संदर्भ में तो उचित हो सकता है मगर हमने इसे एक विचारधारा के रूप में पूरे समाज पर थोप देने का प्रयास किया। सच तो यह है कि ऐसा कोई उदाहरण प्रकृति में भी दिखाई नहीं देता। यहां भी अस्तित्व की लड़ाई हर जीवित प्राणी को लड़नी पड़ती है। सहअस्तित्व सफल केवल आपसी सामंजस्य से हो सकता है, यह एकतरफा समर्पण से संभव नहीं। कमजोरी से तो कदापि नहीं। समर्पित, हारा हुआ या कमजोर कभी बराबरी नहीं कर सकता। वो अधिकारपूर्वक मांग नहीं कर सकता। उसे मात्र भीख मिल सकती है। उसे दोयम दर्जे का नागरिक कहा जाता है। दया व क्षमा शब्द सामर्थ्यशाली पर ही सुशोभित होते हैं वरना व्यक्ति स्वयं दया का पात्र बनकर रह जाता है। जीवन के इन मूल तथ्यों को हम नजरअंदाज तो कर सकते हैं मगर झुठला नहीं सकते। एक तरफ मानवीय इतिहास हिंसा से भरा हुआ है तो दूसरी तरफ इसे रोकने की तमाम बातें जरूर की जाती हैं, जो कभी पूरी तरह सफल हुई नहीं। क्या किया जाये? मनुष्य के स्वभाव का? यूं तो प्रकृति का संपूर्ण रचना-संसार भी कहीं न कहीं हिंसा पर निर्भर है। मगर सीमाओं में। बात है हिंसा में निहित मायनो, अर्थों व उद्देश्यों को समझने की। कहने को तो मानवीय विकासक्रम में, सामाजिकता के लिए अहिंसक होना आवश्यक है मगर वास्तविकता के धरातल पर यह दिखाई नहीं देता। मानव ने शारीरिक ही नहीं मानसिक हिंसा भी खूब कर रखी है। जो आज भी कई तरह से जारी है। चतुर-चालाक की दुनिया में स्वार्थवश की गयी हिंसा और आत्मसुरक्षा के लिए की गयी हिंसा के बीच लक्ष्मण-रेखा खींचना आसान नहीं। यहां शक्ति के बिना शासन नहीं। और मानव जाति बिना शासन व्यवस्था के समाज की परिकल्पना भी नहीं कर सकती। ऐसी परिस्थितियों के बीच भी हम शासित बने रहने के लिए तत्पर प्रतीत होते हैं। जबकि स्वाभिमान से समझौता कभी भी सराहा नहीं जा सकता। कमजोर हमेशा हंसी का पात्र बनता है। दुनिया में ऐसे लोगों की बहुत कमी है जो हमारे जैसी सोच रखते हैं। साहित्यिक प्रशंसा एवं मात्र वाहवाही के लिए कहने-सुनने और असल जीवन में इसे स्वीकार करके ढालने में फर्क होता है। यह सत्य है कि अति चाहे फिर हिंसा से हो या कायरता की, दुःख देती है। मगर यहां प्रश्न उठता है कि क्या विश्व इतिहास में व्यवस्था के नाम पर शासक की हिंसा को हमेशा जायज नहीं ठहराया गया? समय-समय पर विरोध भी हुये, परिवर्तन भी हुए। मगर क्या नये शासकों को भी हिंसा का सहारा लेना नहीं पड़ा? मगर हम यहां भी भिन्न हैं। यूं तो हमारे ऊपर की गयी ज्यादतियों का विरोध, अंग्रेजी शासनकाल के अतिरिक्त, कहीं पढ़ने-सुनने में भी नहीं आता, ऊपर से जो छिटपुट घटनाएं घटी भी हैं, उन्हें हम इतिहास के पन्नों से गायब करने में अपनी कुशलता का परिचय देने में लगे रहते हैं। हम अपने पुराने क्रूर शासकों के असली रूप को दिखाने में आज भी हिचकिचाते हैं। उलटा धीरे-धीरे उन्हें महिमामंडित करने में प्रयासरत प्रतीत होते हैं। हमारे यहां ऐसे उदाहरण भी कम नहीं जहां सत्कर्मी शासक को हमारे ही छल-कपट के कारण सत्ताविहीन होना पड़ा। मजेदारी तो यह देखकर होती है कि हम अपनी इन तमाम ऐतिहासिक असफलताओं को खूबसूरत मोड़ देकर, सीना चौड़ाये खुले में घूमते हैं।उस समाज का कुछ नहीं हो सकता, जहां बुद्धिजीवी उपरोक्त विचारधारा को पालने में सहायक हों। हद तो तब हो जाती है जब हम दूसरे की दृष्टि से सब कुछ देखते हैं। दूसरों का सम्मान एवं अतिथि-सत्कार किस संस्कृति में नहीं है? लेकिन बाहरी आपके घर में घुसकर मालिक बन जाये यह किसी को स्वीकार्य नहीं। मगर हम इसे भी सहर्ष स्वीकार करते हैं। और फिर इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश भी करते हैं। हमारी मानसिकता में इतनी कमजोरी है कि राष्ट्र-प्रेम और समाज-प्रेम से प्रेरित लोगों को इतना गुमराह कर दिया जाता है कि कई बार तो उन्हें भी अपनी सोच पर भ्रम होने लगता है। अपनी सभ्यता व संस्कृति की बात करना साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता है जबकि दूसरे की कट्टरता और चालाकी को नजरअंदाज किया जाता है। इस तरह हमने अपने आपको पूरी तरह लाचार और कमजोर बना लिया है। चूंकि दुनिया इतनी सीधी और सरल नहीं है इसलिए इसका भुगतान भी हम करते रहे हैं। बहरहाल, ऐसी सोच अब हमारी आदत में शुमार हो चुकी है। किसी शहर में बड़े से बड़ा हादसा हो जाने के दूसरे दिन शहर की उन्हीं गलियों से भीड़ जब सब कुछ भुलाकर अपने स्वार्थ में पुरानी घटनाओं को रौंदती हुई निकलती है तो हमारे समाचारपत्र, मीडिया, राजनेता, लेखक, जय-जयकार करने लग उठते हैं। कहा जाता है कि देखिये जिंदगी रुकी नहीं। अरे, जिंदगी तो वैसे भी नहीं रुकती! उलटे यह इस बात को दर्शाता है कि हम कितने असंवेदनशील हैं। अपनो की बेवक्त बेवजह मौत पर दो पल आंसू भी नहीं बहाते, चिंता नहीं करते। हमारा समाज के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं। हमारे साथ कुछ भी हो जाये हमें क्रोध नहीं आता। आक्रोश नहीं पनपता। और अगर आता भी है तो क्षणिक होता है, जो क्रिकेट के खेल की तरह हार-जीत के कुछ समय बाद ही खत्म भी हो जाता है। हम कागजी ही नहीं घर के एक-मिनटी शेर हैं। हमारे शहरों की भीड़ को देखकर कई बार प्रश्न उठता है कि हम किस तरह जीने के लिए पैदा हुए हैं? फिर भी हमें कुछ भी कहने का हक नहीं क्योंकि हमें हर काल में ऐसा न करने के लिए न जाने किस-किस तरह से गुमराह किया गया है। हमें विचारधाराओं से, शब्दों से, जीवनशैली से, सोचने की क्षमता से, इस तरह नियंत्रित कर दिया गया है कि हम अपना हित भी नहीं सोच पाते। हम वैचारिक रूप से पूरी तरह खोखले और सांस्कृतिक रूप से पंगु बन चुके हैं। जहां प्रजातंत्र के नाम पर शब्दों के साथ खेलते हुए हम रोज बेवकूफ बनाये जाते हैं, पग-पग प्रताड़ित होते हैं। हमें एक जागरूक और सफल प्रजातंत्र कहा जाता है और जनता की वाहवाही की जाती है। जबकि यह एक कुटिल शब्दों के साथ खेलने के समान है। असल में हमें जो शासक मिलते हैं उसके लिए हम ही जिम्मेवार हैं। उस देश का क्या हो सकता है जिस देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने पांच साल का राजनीतिक अधिकार मात्र चंद नोटों या शराब की बोतल या फिर धर्म-जाति के नाम पर डालकर किसी एक ऐसे व्यक्ति को सौंप देता है जो बाद में हमारा शोषण करना जानता है। उसे इस बात का अहसास नहीं कि अगर वो ढंग से राजनीतिक कर्तव्य का पालन करे तो उसका सामाजिक जीवन सम्मानपूर्वक हो सकता है। मगर उस संस्कृति का क्या किया जाये जो सिर्फ वर्तमान में जीती है। पहले बाहर के लोग हमें बांटकर हमारे ऊपर अपना वर्चस्व बनाये रखते थे अब हमारे अपने ही हमें रोज बांटते रहते हैं और हम समझ नहीं पाते। हमें इतना कमजोर कर दिया गया है कि हमारे सारे नैसर्गिक अधिकारों को पहले छीन लिया जाता है, हमें फटेहाल भूख से तड़पाया जाता है और फिर चंद टुकड़ों को डालकर हम पर दया दिखाई जाती है। और यह अहसास कराया जाता है कि आपके लिए कितना कुछ करने के लिए व्यवस्था आतुर है। मगर इसके लिए कौन दोषी हैं? हम स्वयं। सच तो यह है कि महाभारत में भी पांडवों को आत्मसम्मान और अधिकार के लिए लड़ना पड़ा था, नहीं तो सदियों तक दुर्योधन के अत्याचार को भोगना पड़ता। गुलाम रहना पड़ता। राम को भी रावण से युद्ध करना पड़ा था। राक्षसी प्रवृत्तियां समर्पण की भाषा नहीं जानती। आधुनिक युग में रावण के मायावी रूप में फंसना हमारी कमजोरी ही प्रदर्शित करता है।