My Blog
Articles, Personal Diaries and More
आधुनिक युग में व्यक्ति-पूजा
क्या हम वास्तव में आधुनिक युग में जी रहे हैं? यहां आधुनिक होने की परिभाषा स्वयं में बड़ी उलझी हुई है। चलिये, फिर भी बात को आगे बढ़ाने के लिए कुछ और सवाल पूछते हैं। क्या वर्तमान युग का नागरिक अधिक पढ़ा-लिखा होने की वजह से परिपक्व हो चुका है? क्या वह पहले से अधिक समझदार हो गया है? क्या वह संवेदनशील और गंभीर हुआ है? यहां अगर यह न भी पूछा जाये कि क्या वो जीवन के मूल सुख-शांति-समृद्धि को प्राप्त कर रहा है अथवा नहीं? तब भी उपरोक्त सवालों के जवाब देना आसान नहीं होगा। असल में सुंदर, साफ-सुथरे, विशाल एयरपोर्ट एवं मॉल्स के साथ-साथ चमचमाती सड़कों पर तेज रफ्तार दौड़ती लग्जरी गाड़ियों ने आधुनिक जीवन को जगमग कर दिया है। ऊपर से मोबाइल-कंप्यूटर ने सूचना-तंत्र को घर-घर से जोड़ा है। इन सबको देख-सुनकर तो आंखें फटी रह जाती हैं। दिल-दिमाग इनके आकर्षण में ऐसे बंध जाता है कि इसके अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता। खैर, इन उपयोग की वस्तुओं-सेवाओं पर सीधी टिप्पणी करके इसे स्वीकारना या नकारना उचित न होगा क्योंकि नये युग की विलासिता का उपभोग तो इसकी भीषण आलोचना करने वाले भी खुलकर कर रहे हैं। ऐसे में विरोध करने वालों को कहा जा सकता है कि वो जाकर जंगल में रहें। सच भी है कि जिसकी मलाई खाओ उसे गरियाओ भी, यह उचित न होगा। मगर इसी आधुनिक युग के मानव की कुछ अन्य कृत्यों को देखने पर और कुछ नहीं तो हंसी अवश्य आती है। उदाहरणार्थ, विज्ञान के युग में क्या अंधविश्वास बढ़ा है? पढ़े-लिखे समाज में क्या व्यक्ति-विशेष की पूजा अधिक नहीं हो गई? क्या हम अपनी ही तरह के हाड़-मांस के व्यक्तियों को लेकर पागलपन की हद तक नहीं दीवाने हो जाते? इन सवालों के जवाब देने से पूर्व थोड़ा विस्तार में जाने की आवश्यकता है।पिछले कुछ दिनों से एक व्यक्ति धर्म और आस्था को लेकर काफी चर्चा में है। यहां नाम महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि नाम लेने से जाने-अनजाने ही आप उसकी चर्चा कर बैठते हैं और फिर वो, सही हो या गलत, इसका भी फायदा उठा ले जाता है। विज्ञापन के इस युग में चर्चा में आना ही अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। इतने टीवी चैनल हो चुके हैं कि सिर्फ एक दिन भी अगर आप सभी चैनलों पर थोड़ी-थोड़ी देर के लिए आ जायें तो पूरी दुनिया में पहचाने जाने लगोगे। और फिर आपकी बात चाहे पूरी तरह असत्य, निर्मूल और बचकाना क्यूं न हो, उसे मानने वाले कुछ एक प्रतिशत मिल ही जायेंगे? भीड़ जो इतनी है!! ऐसी परिस्थिति में मीडियाजनित इन धार्मिक बाबाओं को देख-सुनकर कहीं से भी लगता है कि हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं? नहीं। ताज्जुब तो यह देखकर होता है कि ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे। पता नहीं पुराने समय में इतने बाबा होते थे भी या नहीं? होते भी थे तो क्या उनके सामने हजारों-लाखों की भीड़ होती थी? इतिहास के पन्नों में ऐसा कही पढ़ने में तो नहीं आता। संत-फकीरों का जिक्र तो आता है, भजन-कीर्तन करके गांव-गांव धर्म की व्याख्या करने की बात भी बड़े-बुजुर्गों द्वारा बताई जाती है मगर उनके अनुयायी पागलपन की हद तक उनके पक्ष में खड़े होकर, सड़कों पर प्रदर्शन करते हों, सुनाई नहीं देता। कुछ एक धार्मिक-गुरु राजा-महाराजाओं के दरबार की शान जरूर हुआ करते थे। शासन में इनके हस्तक्षेप की कहानियां भी हैं तो समाज में इनके शोषण के किस्से भी यदाकदा सुनाई देते, लेकिन ये व्यक्तिगत रूप से अकूत संपत्ति के मालिक बन गये हों ऐसा पढ़ने-सुनने में नहीं आता। मठों-मंदिरों को आसपास के गांव देने की बात जरूर सुनने में आई होगी मगर अमूमन ऋषियों-मुनियों के फक्कड़ और त्यागपूर्ण जीवन के उदाहरण पेश किये जाते रहे हैं। मगर आधुनिक युग के बाबा के वैभव को देखिये, आंखें फटी रह जायेंगी। इनकी संपत्ति के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। ये सभी अपने-अपने विशाल साम्राज्य के बेताज बादशाह हैं। कोई जीवन जीना सीखा रहा है तो कोई अध्यात्म की बात करता है, कोई तपस्या करना बता रहा है तो कोई कुंडली जाग्रत कर रहा है। और कुछ नहीं तो पुराने ग्रंथों का जाप करके ही कुछ एक लाखों-करोड़ों में खेल रहे हैं। जंत्र-मंत्र-तंत्र से दुःख-दर्द दूर करने वाले विज्ञापन टेलीविजन से लेकर समाचारपत्रों में अनेक मिल जायेंगे। सड़क किनारे भविष्यवाणी करके जीवनयापन करने वाले बाबाओं की भी कमी नहीं। मगर हंसी तब आती है जब समोसा, कचौरी, रसगुल्ला और कोल्डड्रिंक पीकर दुःख हरने की बात की जाती है। पढ़ने पर तो हास्यास्पद लगता ही है लेकिन इनके किसी भी अनुयायी से बात कर लीजिये, कितने भी शांत भाव से, धर्म की सीमा में रहकर, वो आपसे गरमागरम बहस करने के लिए तैयार हो जायेगा। तर्क करने पर आस्था की बात करने लगेगा। तो क्या विज्ञान के युग की आस्था इतनी स्तरहीन और तर्कहीन हो चुकी है? इन सबको ही देखकर आधुनिक युग पर प्रश्नचिन्ह लगाने का मन करता है। हिंदुस्तान की जमीन तो धर्म-गुरुओं के उत्पादन के लिए पहले से ही उपजाऊ है लेकिन हमारे बाबाओं को अंतर्राष्ट्रीय प्रामाणिकता अमेरिका और यूरोप से ही प्राप्त होती है। इनके पश्चिमी अनुयायी इन्हे जेट में घूमना और आइलैंड में रहने की आदत डलवा देते हैं। यहां सिर्फ हिंदू धर्म को ही आलोचना के घेरे में लाना उचित न होगा। अन्य धर्र्मों की भी स्थिति बेहतर नहीं। उनके अपने धर्मगुरु अपने-अपने स्वांग से आम जनता को किस हद तक बेवकूफ बनाते हैं, आम देखा जा सकता है। जीवन जीने के सामान्य दैनिक नियम भी जब ये तय करने लगते हैं तो मुश्किल होती है। कई बार ये समाज में व्यवहारिक नहीं होते मगर लोगों को इन पर अंध-विश्वास करते देखा जा सकता है। यही वजह है कि एक धर्म विशेष में महिलाओं की स्थिति आज भी अमानवीय है लेकिन तथाकथित आधुनिक नारी भी इसके विरोध में खुलकर बोलने को तैयार नहीं। उलटे हैरानी तो तब होती है जब अनेक इनके पक्ष में तर्क देते हुए मिलते हैं। क्या यही आधुनिक युग की पहचान है? इतिहास के पन्ने धर्म के लिए युद्ध से भरे पड़े हैं। लाखों-करोड़ों को धार्मिक मतभेद के लिए मारा जाता रहा है। मगर आज की दुनिया में हम सिर्फ धर्म के नाम पर नहीं इन बाबाओं के नाम पर भी जान लेने और देने के लिए तैयार खड़े है। आज विश्व धर्म की कट्टरता को लेकर भयंकर रूप से आतंकित है। क्या यही हमारे पढ़े-लिखे होने का प्रमाण है?सिर्फ इन बाबाओं-गुरुओं की बात ही क्यों की जाये। बड़े-छोटे पर्दे के नायक-नायिकाओं को ही देख लें। किस हद तक हम इनके लिए पागल हैं? यकीन मानिये सौंदर्य का मनुष्य हमेशा से पुजारी रहा है। हर सुंदर वस्तु की उसने युगों-युगों से प्रशंसा की है। फिर चाहे वो सुंदर कविताएं, सुंदर रचनाएं, सुंदर मूर्ति, सुंदर दृश्य ही क्यों न हों। यहां तक कि सुंदर-गुणी नर-नारियों की चर्चा इतिहास के पन्नों पर भी होती रही है। जिनका अपना विशिष्ट आकर्षण हुआ करता था। और यह ईश्वर के द्वारा विशेष रूप से बनाये गये प्रतीत होते थे। मगर आज हम नैसर्गिक सौंदर्य-कला-गुण नहीं बल्कि व्यक्ति के नाम के पीछे पागलपन के शिकार हैं। सवाल ये नहीं कि आधुनिक फिल्मी हीरो-हीरोइन अति विशिष्ट क्यों हैं, मुश्किल इस बात को लेकर है कि ये भौंडापन और नग्नता के कारण प्रसिद्ध हो रहे हैं। सत्य है कि कई आम से भी अधिक आम होते हुए भी लोकप्रिय हो जाते हैं। यहां किसी आम के महत्वपूर्ण हो जाने पर परेशानी नहीं। हैरानी यह देखकर होती है कि जब इनकी फूहड़ता को देखने के लिए भी हजारों-लाखों दिवानगी की हद तक पागल हो जाते हैं। प्रश्न तब खड़ा होता है जब आधुनिक युग का मानव इनकी एक झलक के लिए मचल उठता है। आवारागर्दी करता है। जबकि न तो इनमें कला होती है न ही सौंदर्य और न ही कोई विशेष गुण जो इन्हें आम से विशेष बना सके। पूर्व में भी नर्तकियां, नट-नटी, देवदासियां, नगर-वधुओं के किस्से पढ़ने में आते थे मगर आम सांसारिक व्यक्ति इनके लिए पगला जाये, कम होता था। मगर आज के युग के इन कृत्रिम सितारों के लिए लोगों के जुनून को देखकर हैरानी होती है। खेल-खिलाड़ी, नौटंकीबाज व नाटकबाज के लिए तो हाट-मेले में भीड़ जुटने की बातें युगों-युगों से सुनी और पढ़ी है। मगर खिलाड़ियों को भगवान बनते हुए इसी युग में देखा है। ये तमाम आधुनिक युग के चर्चित व्यक्ति फिर चाहे वो किसी भी क्षेत्र के हों, बेहद अमीर हो जाते हैं। कैसे? इनका प्रभाव इतना अधिक है कि इनके छींकने पर समाज में शीतलहर आ जाती है। इनके बताये साबुन-डिटरजेंट लगा-लगाकर आम जनता अपने दिल के मैल तक धोने के लिए तैयार दिखाई देती है। कैमरे के इन कृत्रिम सितारों के कहने पर सांवला हिंदुस्तानी गोरेपन की क्रीम को पोत-पोतकर अंग्रेज बनने का खवाब पाल लेता है। अगर ये चरित्रहीन घोषित हो जायें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता, इनके बताये अंडरवियर-बनियान से लेकर जीवन-बीमा और घर-गाड़ी भी हम खरीदने में पूरा विश्वास रखते हैं। ये स्वयं चाहे पापी हों मगर दूसरे का पाप दूर करने का आशीर्वाद दे सकते हैं। क्या यही हमारी आधुनिकता का प्रमाण है? यहां बचाव में अमूमन बड़ी सफाई से मीडिया के प्रचार-प्रसार को जिम्मेदार बना दिया जाता है। मगर प्रश्न पूछा जाना चाहिए, तो क्या हमारे दिमाग में भूसा भरा है जो हम मीडिया की अविश्वसनीय बातों को समझ नहीं पाते? फिर हमारे पढ़े-लिखे होने का क्या औचित्य? हमसे बेहतर तो पुरानी पीढ़ी थी जो दबी-कुचली और अनपढ़ होते हुए भी इस स्तर की मूर्खता नहीं करती।उपरोक्त तथ्य कुछ और नहीं तो हमारे आधुनिक होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इसे हमें पुनर्भाषित करना होगा। आज की पीढ़ी समझे या न समझे, लेकिन आने वाला कल हमारी इन हरकतों को जब देखेगा, पढ़ेगा और सुनेगा तो एक बार जरूर हंसेगा। और हमारे बौद्धिक निम्नता, वैचारिक पिछड़ेपन, उथले व्यवहार और गुलाम मानसिकता पर अपनी मुहर लगायेगा।