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सज्जनों की निष्क्रियता
घर-परिवार में किसी भी किस्म की विपत्ति आने पर या फिर किसी विशिष्ट और बड़े व महत्वपूर्ण निर्णय लेने के दौरान मिल-बैठकर सामूहिक रूप से विचार-विमर्श करने की प्रक्रिया हरेक समाज में देखी जा सकती है। यहां बड़े-बुजुर्गों की राय महत्वपूर्ण मानी जाती रही है। अंतिम निर्णय बहुत कुछ इनकी दी हुई सलाह पर ही निर्भर करता और वे इसमें सक्रियता से भाग भी लेते। उनकी हर बात के पीछे लंबे अनुभव का ठोस आधार होने के कारण ही उनके मतों को नकारना इतना आसान नहीं होता। किसी प्रकार की दुविधा या फिर मत-विभाजन होने पर अंतिम फैसला परिवार के मुखिया के हाथ में सौंप दिया जाता। जो अमूमन अन्य वरिष्ठ लोगों की राय लेने से नहीं हिचकिचाते। इसी प्रथा को समाज के बड़े संदर्भ में देखें तो पंचायत और चौपाल इसका उदाहरण बन सकते हैं। जहां हर वर्ग का प्रतिनिधि होता था। यहां सभी अपनी अपनी राय रखते और अंतिम निर्णय से पूर्व सबसे सलाह-मशविरा किया जाता। राजा भी अपने दरबार में चर्चा किया करते थे। यहां भी विभिन्न रूपों में अवाम का प्रतिनिधित्व होता था। महान व लोकप्रिय राजाओं के शासनकाल में लोग अपनी राय देने में हिचकिचाते भी नहीं थे। बीरबल के किस्से भारतीय जन-मानस में आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे अपने महाराज को तकरीबन हर मुद्दे पर टिप्पणी देने से नहीं चूकते थे। अकबर भी हर दुविधा के दौरान अपने चहेते बीरबल को याद किया करते थे। बीरबल दरबार की पहचान थे, शान थे। इतिहास में ऐसे योग्य मंत्रियों की कमी नहीं जिन्होंने चापलूसी की जगह देश-हित और समाज-हित के लिए खुलकर बातें की। समाज उनका ऋणी रहा और युगों-युगों तक याद किये गये। यही नहीं क्रूर शासकों के समय भी लेखक, कलाकार, समाजशास्त्री, चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतकारों के सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे, जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से अपने-अपने तरीके से विरोध किया। संक्षिप्त में कहें तो समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने अच्छे और बुरे दोनों वक्त में सक्रिय भूमिका निभाई। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं से लेकर भारतीय इतिहास के हर पन्नों में ऐसे चरित्रों के नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं। इन्हीं के अथक प्रयासों से समाज का विकास संभव हो पाया और मानव आगे बढ़ता चला गया।आधुनिक युग में उपरोक्त चलन दिखाई नहीं देता। घर-परिवार की परिभाषा ही बदल चुकी है। संयुक्त परिवार रहे नहीं। जहां बड़े-बुजुर्गों का सम्मान ही नहीं वहां उनके सलाह को तवज्जह देने की बात सोचना भी बेकार है। समाज का चेहरा बदला है। अब यहां शीर्ष स्थानों पर किस्म-किस्म के लोग बैठते हैं। उनकी अपनी लोकप्रियता और विशेषता है। समाज का नेतृत्व अब बाजार के युग के नये नायकों के हाथ में है। इनमें अच्छे-बुरे, योग्य-अयोग्य कितने हैं, एक टेढ़ा सवाल है। मुश्किल इस बात की अधिक है कि इनमें से अधिकांश अपनी-अपनी परिधि में मदमस्त हैं। समाज की मुश्किलें और देश की समस्याओं से उनका कोई सरोकार नहीं। सामाजिक मुद्दों पर उनकी टिप्पणी कम ही सुनी और पढ़ी जाती हैं। बड़ी विचित्र स्थिति है। इसके कई कारण समझ आते हैं। एक ओर हम आधुनिक और विकसित होने का दम भरते हैं तो दूसरी ओर अपनी विचारधाराओं और मानसिकता में संकीर्ण होते जा रहे हैं। यही नहीं हम स्वार्थी भी हो रहे हैं। और शायद डरपोक भी। ऊपर से तथाकथित आधुनिक युग के कई महान लोगों को व्यक्तिगत लाभ-हानि के साथ-साथ अपनी जाति, धर्म, भाषा आदि के दायरे में संकुचित होते हुए देखा जा सकता है। वे समाज की मुश्किलों में खुलकर खड़े नहीं होते। गलत बातों का विरोध करना तो बहुत दूर की बात है, एक शब्द भी नहीं कहते। क्या वे अपने सामाजिक दायित्व से मुक्त हो चुके हैं? क्या उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं? जिस समाज ने उन्हें इज्जत, पैसा, लोकप्रियता सब कुछ दिया, क्या उसके प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं? ऐसे कई सवाल हैं जो जाने-अनजाने ही सही मगर पूछे जाते हैं और पूछे जाने चाहिए।जब मुंबई की सड़कों पर किसी एक व्यक्ति की प्रदूषित विचारधारा से, किसी वर्ग विशेष को पीटा जा रहा था, भगाया जा रहा था, तो इस बात को देखकर मुझे हैरानी हुई थी कि बड़े-बड़े कलाकार, खिलाड़ी, उद्योगपति, चिंतक, समाज-शास्त्री, सामाजिक कार्यकर्ता, जो मुंबई में ही रहते हैं और जिनकी पूरी दुनिया में पहचान है, चुप रहे। कल्पना कीजिए, भारत-रत्न सुर-सम्राज्ञी लतामंगेशकर, बॉलीवुड का महानतम अभिनेता अमिताभ बच्चन, क्रिकेट का बादशाह सचिन तेंदुलकर, अरबपति टाटा और सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आजमी एकसाथ खड़े होकर पूरी सक्रियता के साथ इसका विरोध करते तो क्या इस तरह की घिनौनी राजनीति संभव थी? सदाचारी सितारा रजनीकांत और विश्वविख्यात एआर रहमान सक्रियता से कहें तो क्या तमिलनाडु में भ्रष्ट राजनीति संभव हो सकती है? व्यक्तिगत तौर पर ये सभी अत्यंत सुलझे और संवेदनशील व्यक्ति हैं। इनका चरित्र दागरहित और लोकप्रियता शिखर पर है। देश-समाज में इनकी बेहद इज्जत है। इनकी एक आवाज पर लाखों लोग खड़े हो सकते हैं। जनभावनाएं जाग्रत हो सकती हैं। मगर इन्हें संकट के दौर में कभी कुछ कहते नहीं सुना गया। इन्हीं के समकक्ष और भी कई महान शख्स हैं मगर इन सभी की देश-समाज की विकट परिस्थितियों पर चुप्पी अखरती है। बढ़ती महंगाई, फैलती अव्यवस्था व अराजकता, समाज का कोई भी क्षेत्र नहीं बचा जहां स्थिति विकट न हो। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हिंदुस्तान अपने-अपने ढंग से जूझ रहा है। मुश्किल इस बात की है कि स्वार्थी और कपटी लोग इस जलती हुई आग में भी अपनी-अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। और कुछ एक धूर्त तो आग भड़काने का भी काम कर रहे हैं। ऐसे में समर्थ, शक्तिशाली, सफल व शीर्ष पर बैठे लोगों की जिम्मेवारी और बढ़ जाती है। मगर हमारे वर्तमान के श्रेष्ठजन पूरी तरह से निष्क्रिय हैं। उलटे वे ऐसी परिस्थिति से बचने का प्रयास करते हैं। ऐसे में दूसरे अति महत्वाकांक्षी मगर नासमझ और दोयम दर्जे के लोग, जिन्होंने महानता की चादर बाजार से खरीदकर ओढ़ रखी है, अपनी राय देने में पीछे नहीं रहते। जिसका खमियाजा समाज को झेलना पड़ता है। ये जब कभी अपनी सक्रियता दिखाते हैं, उनकी दूषित व पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता झलक जाती है। और वो समझ भी आती है। इनका दृष्टिकोण गुजरात से कश्मीर पहुंचते ही बदल जाता है। इनके वक्तव्य श्रीनगर से दिल्ली आते-आते पलट जाते हैं। ये कुछ एक संदर्भ मात्र हैं। जिनके माध्यम से ऐसे चरित्रों को पहचाना जा सकता है। उनके नाम और व्यक्तित्व के विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता नहीं। यहां तो छोटी-छोटी बातें ही मूल तथ्य को समझने के लिए काफी हैं। मोहल्ले में अगर किसी अबला नारी पर कोई भटका हुआ युवक अत्याचार करे और वहां के सभी प्रभावशाली लोग इकट्ठा होकर विरोध करे तो क्या ऐसा संभव है कि वो गुंडा कुछ कर सके? जिस परिवार में मुखिया फैसला लेता हो, और जो सबको बराबर की दृष्टि से देखता हो, वही परिवार अमन-चैन से जीता है। ठीक इसी तरह जिस समाज व वर्ग के बुद्धिजीवी अपनी-अपनी सक्रिय भूमिका अदा करें वो समाज कभी भी पतन की ओर नहीं जा सकता।चाणक्य ने हजारों वर्ष पूर्व ठीक ही कहा था कि समाज को दुर्जनों से नहीं सज्जनों की निष्क्रियता से अधिक नुकसान होता है। क्या यह आज के संदर्भ में भी उचित कथन नहीं? यह पूरी तरह सत्य है कि हर दूसरा व्यक्ति अपने हित के लिए घर का दरवाजा बंद करके स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। वह यह भूल जाता है कि बदमाश व्यक्ति दरवाजा तोड़कर अंदर प्रवेश कर सकता है। ऐसी स्थिति में उसके चिल्लाने पर कोई भी नहीं आयेगा। इस मानसिकता को जब तक हम समझ नहीं सकते तब तक हमें ऐसी अवस्था-व्यवस्था से गुजरना होगा। जिस भी दिन पूजाघरों के साधु-संत से लेकर घर-घर बैठे सत्कर्मी पुरुष-नारी अपने व्यक्तिगत दायरे से बाहर निकलकर राष्ट्रहित के लिए खुलकर कहेंगे, स्कूल-कॉलेजों के गुरुजन किताबी विद्या को सामाजिक-हित के प्रयोग में लाने का आह्वान करेंगे, स्टेज पर ठुमका व भौंडी हरकतें छोड़कर आधुनिक युग के सितारा नायक-नायिका देशहित की बात करेंगे तो सत्ता के गलियारों में अवाम-हित की हवा बहने से कोई नहीं रोक सकता। मनोज सिंह