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ग्लोबल विलेज की त्रासदी
भारत की जमीन पर सालों-साल विदेशी राजाओं ने शासन किया। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों का आगमन इस भू-भाग पर भिन्न-भिन्न रूप में यूं तो सदियों से चला आ रहा है। मगर पिछली कुछ शताब्दियों को देखें तो पहले मुगल और फिर अंग्रेजों ने काफी लंबे समय तक राज किया। अब इसे भारतीय संस्कृति की सीधे-सीधे सहिष्णुता कहें या मजबूरी, भारतीय जनमानस ने इन तमाम विदेशी सभ्यताओं से समय-समय पर बहुत कुछ लिया तो बहुत कुछ दिया भी। लेकिन इन सबके बावजूद भी स्थानीय निवासियों ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखी थी। यह उनकी विशेषता थी जिसके द्वारा वे जाने जाते थे। भारत सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों में ही नहीं सांस्कृतिक रूप से भी संपन्न और समृद्ध था। यह उसकी एक किस्म की आंतरिक शक्ति थी। शायद यही वजह रही कि विदेशी राजाओं ने या तो स्वयं को यहां की परिस्थितियों के हिसाब से ढाल लिया या फिर राजपाट छोड़कर वापस अपने मुल्क चले गये। गुलामी के दौरान भारतीय अवाम अपना संघर्ष जारी रख सका तो इसके पीछे सांस्कृतिक श्रेष्ठता व विशिष्टता की अहम भूमिका रही है जो कालांतर में हमारी जीत का कारण बनी। हर बार मुश्किल दौर से उबरने का यह एक मार्ग रहा है। ऐसा कहा जा सकता है कि सैन्य शक्ति प्रदर्शन में तो भारतीय कई बार कमजोर पड़ जाते थे मगर फिर भी सांस्कृतिक विरासत के चलते अपना अस्तित्व बनाये रखने में सफल रहे। विभिन्न कमजोरियों के कारण युद्ध में होने वाली हार के बाद विदेशी को देश के भीतर आने से तो नहीं रोक पाते थे मगर सांस्कृतिक मजबूती के कारण उन्हें समाज और घर के भीतर प्रवेश नहीं करने देते थे। इसके अंतर्गत भाषा, रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक जीवन, साहित्य, धार्मिक व्यवस्था सब कुछ उत्तम था। यह क्षेत्रीयता में अलग-अलग बंटा होते हुए भी आपस में एक सूत्र में पिरोया हुआ महसूस होता था। उत्तर की गंगा-यमुना-संस्कृति या दक्षिण की द्रविड़ संस्कृति से लेकर पूरब में बंगाल, सभी अपनी असाधारण सभ्यता के साथ फलफूल रहे थे। कोलकाता की एक खास बात और रही कि अंग्रेजों की वर्षों तक राजधानी होने के बावजूद भी इसने अपनी विशिष्ट संस्कृति को समानांतर रूप में न केवल जीवित रखा बल्कि बंगाल का व्यक्ति इसमें स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस करता था। सफेद रंग की धोती-कुर्ता, अनेकोनेक मिष्ठान और मछली के स्वादिष्ठ व्यंजन से लेकर काली पूजा, सब कुछ अति-विशिष्ट था। यही नहीं कला, नृत्य-संगीत से लेकर वैवाहिक और अन्य संस्कारों में अपना एक अलग रंग भरा हुआ था। और वह इन्हीं के द्वारा पहचाना भी जाता था। जाति और धर्म में बंटा हुआ हिंदुस्तान यहां आकर बंगाली भाषा के आंचल तले सबको अपने में समेट लेता था।
कोलकाता ने अपनी विशिष्ट पहचान स्वतंत्रता के बाद भी बरकरार रखी थी। राज्य पर चाहे फिर जिस भी विचारधारा का शासन रहा हो। सभी को यहां की सांस्कृतिक महत्ता को स्वीकार करना ही पड़ा था। कह सकते हैं कि राजनीतिक सरकारें यहां की सामाजिक सत्ता के सामने नतमस्तक रहा करती थीं। किस की इतनी मजाल कि उसमें कोई भी मूलभूत परिवर्तन करने की कोशिश भी करे। शासकीय कानून व अधिनियम भी इन सांस्कृतिक विरासतों को ध्यान में रखकर ही बनाये जाते थे।
कोलकाता जाने का सौभाग्य मुझे निरंतर प्राप्त होता रहा है। हर बार यह अपने नये पक्ष को प्रस्तुत करता। मैं यहां की सांस्कृतिक भव्यता में डूब जाया करता था। यहां की गरीबी मुझे दुःख जरूर दिया करती थी और कई बार अनेक प्रश्नचिन्ह भी खड़ा करती। लेकिन दूसरे स्थानों की तथाकथित विकासक्रम की चमचमाहट के नीचे दबी-कुचली गरीब जनता को देखता तो यह सुकून रहता था कि कोलकाता अन्य महानगरों की तुलना में अत्यधिक सस्ता और सुलभ है। जहां गरीब अपना पेट किसी तरह भर सकते हैं। कुछ-कुछ चीजों के दाम और खान-पान के रेट सुनकर हैरानी होती थी। और इतनी महंगाई में भी पैसों के चलन को देख ताज्जुब होता था। जहां दूसरे शहरों में नोटों की बातें की जाती थीं और चिल्लर दिखायी ही नहीं देते थे वहीं यहां पर चंद सिक्कों के सहारे आम व्यक्ति का दैनिक जीवन गुजरता था।
पिछले कुछ दिनों से विकास की बातें यहां भी की जाने लगी थीं। चमचमाते होटल और मॉल्स का आगमन होने लगा था। लेकिन यह सब यहां की सांस्कृतिक विरासत के आगे बौने ही लगते थे और मैं यहां के सभ्य समाज को देखकर गौरवान्वित महसूस किया करता था। लेकिन पिछले सप्ताह यहां आने पर मुझे एक तगड़ा झटका लगा था। ऐसा लगा कि मानों बड़े-बड़े ऊंचे-ऊंचे आलीशान मॉल्स ने कोलकाता पर अपना वर्चस्व जमाना शुरू कर दिया हो। एयरपोर्ट के नजदीक स्थित सॉल्ट लेक की नयी कॉलोनी के पास सिटी सेंटर के नाम से स्थापित विशाल बाजार को देखकर तो मैं दंग रह गया था। हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के सभी बड़े और स्थापित ब्रांड यहां उपस्थित थे। आधुनिक श्रृंगार के महंगे-महंगे नुस्खे, ब्रांडेड कपड़े फास्ट-फूड की चेन, संक्षिप्त में कहें तो पश्चिमी संस्कृति बाजार के रास्ते बड़े पैमाने पर तेजी से स्थानीय जीवनशैली के भीतर प्रवेश कर चुकी थी। अब अगर इसे ही विकास का पैमाना कहते हैं तो वो सब था मगर इन सबके बीच में से बंगाल की श्रेष्ठ सभ्यता गायब थी। जो दुकानें जो संस्कृति, न्यूयार्क और लंदन में पल-बढ़ रही हैं वही सब दिल्ली-मुंबई से लेकर हमारे छोटे-छोटे शहरों में तो पहले से ही विस्तार पा रही थीं। मगर तीव्र गति से अब यहां भी पनपेगी मुझे यकीन नहीं था। चौंकाने वाली बात थी कि तथाकथित आधुनिक बाजार स्थानीय खरीदारों से भरा पड़ा था। युवक-युवतियों से लेकर हर उम्र बंगाली यहां चहलकदमी कर रहा था। इतना ही नहीं इस स्थान के बारे में स्थानीय निवासियों के द्वारा बड़े गौरव से बताया जाता। ऑटो और टैक्सियों के ड्राइवर पर्यटक को शहर घुमाने के नाम पर अब यहां लाया करते हैं।
एक बार फिर वही सवाल कि क्या यही सब विकास है? क्या वास्तव में इससे गरीबी हटी है? क्या जीवनस्तर को उठाने के लिए विदेशी संस्कृति को स्वीकार करना अनिवार्य है? इन प्रश्नों का सीधा-सीधा जवाब देना संभव तो नहीं लेकिन एक बात जरूर है कि आज भी गरीब दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहा है। मगर दूसरी तरफ मध्यवर्ग ने अपनी सांस्कृतिक विरासत को छोड़कर पिज्जा-बर्गर खाना और जींस-टॉप पहनकर अंग्रेजी बोलना शुरू कर दिया है। अगर यही विकास का पैमाना है तो यहां भी वही सब कुछ अवश्य हो रहा है। लेकिन इसके दूसरे पक्ष भी तो देखे जाने चाहिए। अब बाहर से कोलकाता जाने पर कोई भी सामान खरीदने का मन नहीं करता क्योंकि मॉल्स में भरे पड़े ब्रांडेड कपड़े तो हर शहर में उपलब्ध हैं। जबकि बंगाल के विशिष्ट कॉटन के वस्त्र बाजार से नदारद हैं। बड़े-बड़े होटलों की मिठाइयों तो हर जगह मिल जाती हैं लेकिन कोलकाता का संदेश और रसगुल्ला यहीं मिलता था। मगर देशी-विदेशी खान-पान की चेनों ने लगता है स्थानीय खानपान को अपने अंदर समेट लिया है। मिष्ठी-दही और माछ-भात पसंद करने वालों की संख्या सीमित होती जा रही है। इस तथाकथित आधुनिकता का इतना जोर है कि घाट में पूजा के लिए जाने वाली कई महिलाएं भी अब रासायनिक शैंपू की पाउच लेकर नदी में उतरती हैं। यहां की पवित्र गंगा इस विषैली साबुन-तेल के झाग से कितना दुखी होती होगी, वर्णन करना मुश्किल है। बंगाल का बाबू मुशाय जो अंग्रेजों के शासन के दौरान भी अपनी पहचान बनाये रखने में सफल था अब शौक से पश्चिमी संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहा है। जिस काम को बड़े-बड़े राज भी नहीं कर पाये थे उसे बाजार की संस्कृति ने कर दिखाया है। पूरी दुनिया को एक ग्लोबल विलेज में बदलकर रख दिया गया है। आश्चर्य की बात है कि हम ऐसा किये जाने पर प्रसन्न ही नहीं गौरवान्वित भी महसूस करते हैं और बड़े शान से कहते-सुनते देखे जा सकते हैं। कालीघाट और दक्षेणश्वर मंदिर की मां काली से लेकर गंगामैया को कुछ देर के लिए छोड़ दें तो कोलकाता में अब वही सब कुछ है जो बाकी नगरों-महानगरों में है। पता नहीं अपनी सदियों पुरानी विशिष्टता को खोकर कोलकाता क्या नया पायेगा?