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व्यक्तित्व एक अनसुलझी पहेली
निरंतर यात्राएं करना सक्रिय लेखकों के लिए अति आवश्यक है। यह नये-नये अनुभव कराती है। नये चरित्रों से मिलाती है। नयी जगहों पर अप्रत्याशित घटनाएं जाने-अनजाने ही बहुत कुछ सिखा जाती हैं। जीवन की तरह हर एक सफर बहुत कुछ शिक्षा दे सकता है। यह सोचने-समझने को एक नया आयाम प्रदान करती है। इससे व्यापकता मिलती है। नयी विचारधारा, नयी दिशा व नया दृष्टिकोण मिलता है। यह विचारों में परिपक्वता और व्यक्तित्व में आत्मविश्वास बढ़ाता है। बाहर की विशाल व विविधतापूर्ण दुनिया देखकर ही पता चलता है कि अब तक आप कुएं के मेढक थे। बहरहाल, विगत सप्ताह मैं हवाई मार्ग से यात्रा पर निकला था। यूं तो पहले भी अनेक बार जा चुका हूं मगर इस बार ध्यान दिया तो अहसास हुआ कि प्रथम श्रेणी की हवाई यात्रा कितनी सामंती होती है। वरना सामान्य श्रेणी में यात्रियों की क्या स्थिति होती है? इसका वर्णन कइयों को शायद पसंद न आये। लेकिन फिर इसकी भी एक वजह है। हिंदुस्तान में, जहां इतना तथाकथित विकास होने के बावजूद आज भी हेलीकॉप्टर देखकर जनता गांव में दौड़ पड़ती है, ऐसे में पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत हमारा मध्यवर्ग जब हवाई जहाज से उतरकर सामान्य जनता में जाकर इतराता फिरता है तो कतई गलत नहीं करता। वैसे वास्तव में देखें तो हवाई यात्रा में समय की बचत के अतिरिक्त कुछ विशेष नहीं। वातानुकूलित होना तो हवाई जहाज के लिए आवश्यक है और उसके कारण धूल-धक्कड़ से यात्री बच जाता है, वरना इतनी छोटी-छोटी सीटों में यात्रियों को ठूंस दिया जाता है कि आप हिलडुल भी नहीं सकते। ऊपर से बड़ा और विशिष्ट दिखने-दिखाने के चक्कर में यहां चुप रहना पड़ता है, वरना हिंदुस्तान की ट्रेन और बस में कम से कम आप मिल-जुलकर एक-दूसरे से बतिया तो सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में तो और बुरा हाल होता है। छोटी-छोटी सीटों के बीच इतनी कम जगह होती है कि सामान्य आदमी का पैर फंस जाये। यहां जबरदस्ती फंसकर बैठते ही कई बार खुलकर पूरी सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। खैर, इन आडम्बरी मध्यमवर्ग की पोल खोलना यहां मकसद नहीं मगर दिखावे की संस्कृति आजकल एयरपोर्ट पर खूब फलफूल रही है।
इस यात्रा के दौरान एक वरिष्ठ अधिकारी के सेवानिवृत्ति कार्यक्रम में भी शामिल होने का अवसर मिला। वे अपने विभाग के शीर्ष पद पर विराजमान थे और मंत्रालय में सीधे सचिव को रिपोर्ट करते थे। वे स्वभाव से कड़क और सीधे-सीधे बोलने के लिए मशहूर हैं। उनकी टिप्पणी बड़ी सटीक होती है और किसी के भी मुंह पर कुछ भी कह देने के लिए बदनाम हैं। अधीनस्थ अधिकारी-कर्मचारी के साथ तो ऐसा करना बहुत हद तक आज भी संभव है मगर साथ के अधिकारी और अपने बॉस के साथ ऐसा व्यवहार अपेक्षित नहीं होता। इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं। मगर उनके संदर्भ में ऐसी कई घटनाएं सुनने में आती रही हैं। वे अपनी साफ-सुथरी छवि के लिए भी काफी हद तक जाने जाते हैं। उनकी सेवानिवृत्ति कार्यक्रम में उनके इन गुणों का बखान करने वालों की लंबी सूची थी। इनमें से अधिकांश ने उनके साथ कहीं न कहीं काम किया था। और वे उनके चहेतों के रूप में जाने जाते रहे है। सामान्यतः इस किस्म के दरबारी अफसरों से लोग सावधान ही रहते हैं मगर इन लोगों की एक सख्त अफसर के सामने निष्क्रियता को देखकर जलते भी हैं। बहरहाल, इस तरह के कार्यक्रम में जहां सामान्य अधिकारी-कर्मचारी की भी जमकर बड़ाई की जाती है तो वरिष्ठ पद से रिटायर होने वाले का स्तुतिगान हो तो इसमें कोई अप्रत्याशित बात नहीं। और सभी ने उनके विभिन्न गुणों पर लंबा-चौड़ा भाषण दे डाला था। तमाम उद्बोधन सुनने में अटपटे तो नहीं लग रहे थे मगर उसमें कोई नयापन भी नहीं था। हां, कहीं-कहीं अधिक मीठे शब्दों का प्रयोग असहजता महसूस करा रहा था। शायद बॉस के प्रति संपूर्ण समर्पण शासकीय नौकरों के खून में आ जाता है। मुझ जैसे लेखक की इन सब बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन अंत में उक्त अधिकारी के भाषण ने मुझे सोचने और लिखने के लिए प्रेरित किया था।
सर्वप्रथम उक्त अधिकारी ने यह कहकर चौंकाया था कि वे अपनी बात हिंदी में रखेंगे। और इस संदर्भ में उनके विचार स्पष्ट और आत्मविश्वास देखते बनता था। उनके मतानुसार, जो सत्य भी है, हम अपनी भाषा में अपनी बात आसानीपूर्वक सही ढंग से रख सकते हैं। इसीलिए सरकारी कामकाज में भी स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होना चाहिए। आखिरकार सारे काम किसके लिए किये जाते हैं? अवाम अगर बात समझ ही नहीं पाया तो सब व्यर्थ है। उनके मतानुसार दिल्ली की सत्ता के गलियारों में आधा समय अंग्रेजी में ड्राफ्ट बनाने और उसे ठीक करने में गंवा दिया जाता है। शब्दार्थ-भावार्थ से अधिक क्या और कैसे लिखा-पढ़ा गया महत्वपूर्ण बना दिया गया है। ‘शुड’ और ‘वुड’ के चक्कर में कई बार लैटर व नोट पुनः टाइप किये जाते हैं। इसके कुछ एक उदाहरण आमजन भी देख सकते हैं। आज के संचार युग में, अति महत्वपूर्ण घटनाओं-दुर्घटनाओं पर भी, सीधे-सीधे सरलता से कहने की बजाय शब्दों के साथ खेलकर मीडिया में ऐसा परोसा जाता है कि किसी को बात पूरी तरह समझ ही न नहीं आती। न्यायिक क्षेत्र, जो कि दैनिक जीवन से लेकर अवाम के भविष्य से सीधा जुड़ा होता है वहां भाषा की क्लिष्टता समझ से बाहर है। शब्दों के प्रयोग न्याय से अधिक कैसे महत्वपूर्ण हो गये, हैरानी पैदा करते हैं।
उपरोक्त अधिकारी का यह कहना कि देश की वर्तमान स्थिति के लिए शीर्ष पर बैठे नौकरशाह अधिक जिम्मेवार हैं। सच है। वरना राजनीतिज्ञों को अमूमन दोष दिया जाता है। यह कुछ हद तक ही ठीक है कि वो निष्क्रिय अफसरशाही के लिए जिम्मेवार हैं। वो चाहे तो नौकरशाहों को नियंत्रित व प्रेरित कर सकते हैं। मगर यह वर्तमान व्यवस्था में संभव नहीं। नौकरशाह को स्थानांतरण से कोई खास फर्क नहीं पड़ता और वो हर नयी जगह अपनी अफसरी करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं। असल में उनकी कहीं भी सीधे जवाबदेही नहीं है। उन्हें अपने मंत्रालय के कार्य में उत्कृष्टता लाने में विशेष दिलचस्पी नहीं होती। वो स्वयं को सदा संपूर्ण व्यवस्था से ऊपर समझते हैं और कभी किसी निर्णय प्रक्रिया में पूरी तरह शामिल नहीं होते। दूसरी तरफ, हर पांच साल में राजनीतिज्ञों को जनता के बीच जाना होता है, जनता के सवालों से जूझना पड़ता है, उनकी अपेक्षाओं में खरा उतरना पड़ता है। मगर नौकरशाह निरंतर सत्ता-सुख भोगता है। सरकार किसी की भी हो, उसे तो कुर्सी मिलनी ही है, फिर चाहे मंत्रालय कोई भी हो। ऐसे में देश की मूल समस्याओं का निवारण कैसे हो सकता है? आमतौर पर नौकरशाहों को अपने मंत्रालय की न तो पूरी समझ और जानकारी होती है न ही उसे जानने में दिलचस्पी। और जब तक जानकारी हो पाती स्थानांतरण हो जाता है। बहरहाल, इस तरह की अधिकांश बातें हम जानते हैं मगर किसी वरिष्ठ अधिकारी के मुख से इतनी सीधी टिप्पणी, तथ्यों को प्रमाणित कर रही थी। उनका आगे यह कहना कि आपने मेरी बहुत बड़ाई की मगर आप मुझे फॉलो मत कीजिएगा। यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के नंगे सच को जाने-अनजाने बता जाता है। उनके मतानुसार इसके कारण कई नुकसान उठाने पड़ सकते हैं। वे स्वयं तो किस्मत से शीर्ष पर पहुंच गये वरना साथी और वरिष्ठ अधिकारियों ने रुकावट बनने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मगर सभी बचकर ऊपर तक पहुंच जायें, मुमकिन नहीं। यह सच है कि सीधा बोलने का खमियाजा उठाना पड़ता है। उनके द्वारा खुलेआम सच की स्वीकारोक्ति अच्छी लगी थी मगर अव्यवस्था से लड़ने वाली उत्साही पीढ़ी को इससे सीख की जगह, सीधे शब्दों में कहें तो डर के मारे समझौता करने की शिक्षा मिलती है।
व्यक्तित्व के और भी कई पहलू होते हैं। जिसे हम कई बार समझ नहीं पाते। जब उपरोक्त कार्यक्रम में कनिष्ठ अधिकारियों ने यादगार के रूप में एक महंगा तोहफा देने की योजना बनाई तो मुझे आश्चर्य हुआ था। मेरे लिए यह कौतूहलता का विषय है कि ईमानदार और सख्त अधिकारी इस तरह की भेंटों को लेने में किस हद तक असहजता महसूस करते होंगे। मेरे मतानुसार ऐसे मौकों पर सांस्कृतिक प्रतीक-चिन्ह देना यादगार के रूप में अधिक सार्थक होता है और यहां तो यह सेवानिवृत्त वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व से मेल भी खाता था मगर दूसरे अधिकारी इस मौके को भी न गंवाते हुए स्वर्ण अक्षरों से अंकित कर वाहवाही लूटना चाहते थे। यहां मुद्दा सभी अधिकारियों की इच्छा या सामर्थ्य से नहीं है, चूंकि विदाई पार्टी के लिए पैसा देने की क्षमता सब में थी, बल्कि यहां सवाल यह है कि क्या प्यार और इज्जत सिर्फ पैसों से तोला जाना चाहिए? इसका भी सीधे-सीधे जवाब देना संभव नहीं होगा। और विभिन्न रूप में इसके कई उदाहरण आम देखे जा सकते हैं। असल में साथ काम करने के कारण कुछ एक लोग अधिकारियों/शासक वर्ग के काफी नजदीक चले जाते हैं। जहां उन्हें फिर कोई फिक्र या डर नहीं होता। ऐसे में सिद्धांत की मजबूत दीवारें भी टूट जाती हैं। मगर सिद्धांतवादी व्यक्ति इन लोगों की मानसिकता को स्वयं किस रूप में लेते हैं यहां व्यक्तित्व विश्लेषण का विषय बनता है। अपनी तथाकथित बाजारवादी प्रवृत्ति व दिखावे की जीवनशैली से अन्य अधिकारी क्या सिद्ध करना चाहते थे या पाना चाहते थे, मेरा आज विषय नहीं, महत्वपूर्ण था यह जानना कि स्वाभिमानी व्यक्ति अपने आसपास की भीड़ को कितना समझ पाता है? क्या हर एक सत्ता पर विराजमान होते ही दृष्टिदोष से ग्रसित हो जाता है?