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वाक्चातुर्य का कमाल
बड़ी सफाई से झूठ बोलने के दौरान चेहरे पर शिकन भी न आना और फिर अपनी बात के समर्थन में बड़ी शालीनता व सहजता से लच्छेदार भाषा में बार-बार उसी मत को प्रकट करना। यह एक किस्म का विशिष्ट गुण है। इसे कुछ एक लोगों की मानवीय प्रवृत्तियां कह सकते हैं। ऐसा हर कोई नहीं कर सकता। फिर भी वर्तमान समाज में इस तरह के व्यक्तित्व वाले आम देखे जा सकते हैं। आस-पड़ोस से लेकर मोहल्ले में, घर-परिवार से लेकर कार्यालय में, हर जगह। इन्हें अपनी गलती का अहसास तो दूर, पश्चाताप तो बिल्कुल भी नहीं, उलटा झूठ पकड़े जाने पर भी शर्म नहीं आती। रंगे-हाथ पकड़े जाने के बाद भी क्या वे सुधर जाते हैं? अमूमन तो सवाल ही नहीं, बल्कि सामने वाले को झूठा साबित करने के लिए कोई भी हरकत करने को तैयार रहते हैं। ये वाक्चातुर्य की कला में निपुण होते हैं। ये नाटक करना भी जानते हैं। समय के अनुसार रंग बदलना, मौके पर तेज बोलना और फिर आवश्यकता पड़ने पर भावुक हो जाना, इन्हें खूब आता है। ये शारीरिक रूप से अमूमन बड़े सक्रिय होते हैं और मौका पड़ने पर पूरी तरह झुककर कभी-कभी दंडवत भी हो जाते हैं। ये बड़ी चतुराई से सीधे, शरीफ और सच्चे आदमी को गलत साबित कर सकते हैं। ये अपने फायदे के लिए आमतौर से बड़े व्यवहारिक होते हैं, मगर संवेदना और भावनाओं से दूर। इनके लिए मानवीयता की परिभाषा स्वकेंद्रित होती है। अर्थात ये स्वार्थ में पूरी तरह डूबे होते हैं। मैं और मेरा, बस। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। कमाल तो यह देखकर होता है कि ये समाज के हर क्षेत्र में सफल भी रहते हैं। इस तरह के व्यक्ति के साथ जाने-अनजाने ही प्रतिस्पर्धा हो जाये तो आम आदमी इनकी हरकतों से पहले तो भौचक्का होता है और फिर हताशा में कुछ न समझ आने पर असंतुलित होते हुए असंयमित भी हो जाता है। चतुर-चालाक के कुतर्कों के आगे साधारण व्यक्ति की तो चल नहीं पाती इसलिए वो बहस में भी पिछड़ जाता है। ऐसे में आम आदमी आवेग में आकर क्रोधित भी हो सकता है। और अगर शरीर में थोड़ी ऊर्जा और पीड़ित व्यक्ति युवा अवस्था में हो तो गुस्से में आक्रामक भी हो सकता है। बस ऐसा करते ही उस चतुर-चालाक व्यक्ति को कहने-करने के लिए एक और ब्रह्मास्त्र मिल जाता है कि देखो यह कितना असामाजिक, हिंसक आदि-आदि व्यक्ति है। कपटी व्यक्ति यहां तक गलत बोलने से नहीं हिचकिचाता कि ‘इसका झूठ पकड़ा गया तो कैसा तमाशा कर रहा है।’ यह सुनकर तो सीधा आदमी अपना सिर पीट लेता है। यहां उस शरीफ व्यक्ति की गलती तो कुछ नहीं होती लेकिन वह अपनी प्रतिक्रिया मात्र से ही उलटा और फंस जाता है। आसपास के लोग ऐसी अवस्था में बिना समझे हुए उस चतुर-चालाक का साथ भी दे जाते हैं। ऐसे में हारा हुआ सीधा और शरीफ आदमी बौखला जाता है। कई बार तो अधिक क्रोधित होकर और अधिक गलती करता चला जाता है। या फिर हताश होकर परेशान हो जाता है। असहज होने पर उसकी क्षमता, कम होने लगती है। और वो प्रभावहीन हो जाता है। वो कुछ कर तो नहीं पाता, हां बड़बड़ाता रहता है। इन सब कारणों से वो पिछड़ता चला जाता है। ऐसी हरकत दो-चार बार हो जाने पर तो वो आत्मविश्वास खोने लगता है। वह फिर सामान्य भी नहीं रह जाता। ऐसी परिस्थिति का फायदा उठाकर चतुर-चालाक और अधिक आगे बढ़ता चला जाता है।
उपरोक्त किस्म के व्यक्ति और इस तरह की घटनाएं हम आम जीवन में अपने चारों ओर देख सकते हैं। विशेषरूप से कार्यालयों में। वरिष्ठ अधिकारी भी इन चतुर-चालाक बदमाशों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाते हैं और इनकी तरफदारी करते हैं। इस तरह के लोगों की अच्छी-खासी मित्र-मंडली होती है। ये सामाजिक जीवन में अपनी सक्रियता बखूबी दिखाते हैं। मगर सब कुछ स्वार्थवश ही होता है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि इस तरह के लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। और यह पहले से और अधिक सफल होते चले जा रहे हैं। मगर चिंता की बात है कि ये संवेदनशील और महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं। सिर्फ कार्यालय ही नहीं, स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक में इनकी घुसपैठ है। आश्चर्य तो यह है कि घर-परिवार में भी ऐसे लोग पाये जाते हैं। और माता-पिता ऐसे बच्चों की जाने-अनजाने ही सही, तरफदारी करते हुए देखे जा सकते हैं। खेल, फिल्म और व्यवसाय में भी इन लोगों की भरमार है। तो फिर राजनीति इनसे अछूति कैसे रह सकती है? मुश्किल इस बात की है कि इन व्यक्तियों ने इस महत्वपूर्ण क्षेत्र को बहुत हद तक कब्जे में कर लिया है। और यहां वे अधिक सक्रिय रहने लगे हैं। यहां चिंता का कारण भी है, ये चतुर-चालाक व्यक्ति जितने ऊंचे पद पर विराजमान होते हैं उतना अधिक नुकसानदायक हो सकते हैं। जन-प्रतिनिधि समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं और यही अवाम को नेतृत्व प्रदान करते हुए दिशा देते हैं। ऐसी अवस्था में देश व समाज के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है। मगर आम आदमी उपरोक्त अवस्था में करे तो क्या करे? इस सवाल का जवाब देखने में आसान लगता हो मगर हकीकत में मुश्किल काम है। और उसका कारण है आमतौर पर साधारण-जन इस चालाकी को बिल्कुल ही समझ नहीं पाता। अमूमन तो वो वाक्चातुर्य के जाल में इस तरह फंस जाता है कि इसके बाहर देख नहीं पाता। मीठी बातों के पीछे छिपे स्वार्थ को जान नहीं पाता।
बाजारवाद के युग में सब कुछ लाभ-हानि के मापदंड पर तय होता है। ऐसे में राजनीति का क्षेत्र कैसे अछूता रह सकता है। शायद यही कारण है जो राजनीति अब सेवा या देश-प्रेम का क्षेत्र नहीं रही। उलटे यह व्यवसाय एवं स्वयं की महत्वाकांक्षा को हासिल करने का माध्यम बन चुकी है। आप अपने वाक्चातुर्य से सुनने वाले को कितना भ्रमित कर सकते हैं? कितने लंबे समय तक बेवकूफ बना सकते हो? आप इस क्षेत्र में उतना ही सफल और मजबूत हो सकते हैं। कितने दिनों तक आपकी राजनीति सफलतापूर्वक चलेगी? यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कितने दिनों तक अवाम को अपनी बातों में बांध कर रख सकते हैं। फिर चाहे इसके लिए कितने ही हथकंडे क्यूं न अपनाना पड़े। राजनेताओं के द्वारा इस बात को बड़े जोर-शोर से कहा जाता है कि आम जनता सब समझती है। जबकि यह पूर्णतः सत्य नहीं है। असल में वो पूरी तरह कभी समझ ही नहीं पाती। उलटा वक्ता के आभामंडल से प्रभावित होकर उसकी आंखें चुंधिया जाती है। वो उसके आगे देख-समझ नहीं पाती। इसका फायदा उठाकर उसकी भावनाओं के साथ खेला जाता है। धर्म, जाति का उपयोग किया जाता है। आमजन की आर्थिक कमजोरियों को अवसर में तबदील कर मौके का फायदा उठाया जाता है। दूसरी तरफ सामाजिक कमजोरियां साधारण-जन को कई तरह से मजबूर करती हैं। उसके पास अपनी बुद्धि लगाने का वक्त नहीं। वो अपनी रोजमर्रा की मुश्किलों का सामना करने में पहले ही परेशान रहता है। ऐसे में उसे सही दिशा दिखाने वाला भी कोई नहीं। उलटे मीडिया, धर्मगुरु यहां तक कि बुद्धिजीवी भी उसे भ्रमित करने के खेल में शामिल हो जाते हैं। और अगर किसी ने इस बात को समझकर इसकी आलोचना करने की कोशिश भी की तो चतुर-चालाक वर्ग फिर उसी अंदाज में, शब्दों के साथ खेलते हुए, कुतर्कों का समर्थन लेते हुए उसका मुंह बंद कर देता है। आलोचना करने वाले व्यक्ति के द्वारा अधिक प्रतिक्रिया देने पर उसे अतिवादी, असामाजिक, गैर-जिम्मेदार आदि-आदि प्रमाणित करने की एक सोची-समझी नीति अख्तियार की जाती है। उसे बोलने ही नहीं दिया जाता। चारों तरफ से घेरकर उसे टोका जाता है। उसकी बातों को किसी और विषय में बदलकर बहस को नयी दिशा में मोड़ दिया जाता है। और इस तरह अंततः सबको एक बार फिर गुमराह कर दिया जाता है। प्रजातंत्र की यह बहुत ही कमजोर कड़ी है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इसमें अब आश्चर्य नहीं कि इन वाक्चातुर्य सफल लोगों द्वारा समूह भी बना लिया जाता है। यह अपनी तरह के लोगों को ढूंढ़ भी लेते हैं और तुरंत अपने साथ मिला लेते हैं। एक-दूसरे की मदद भी खूब करते हैं। इनसे इनकी शक्ति और बढ़ जाती है। यहां पर अंकगणित के एक और एक का योग की तरह दो नहीं होता बल्कि सीधे-सीधे ग्यारह हो जाता है। और इस रफ्तार से ये गिने-चुने लोग बहुत जल्दी बहुत आसानी से संपूर्ण तंत्र को अपने नियंत्रण में ले लेते हैं। मगर वर्तमान में परिस्थितियां बदली हैं। सूचना-तंत्र विकसित हुआ है। दृश्य मीडिया में बहुत कुछ साफ-साफ दिखाई देता है। एक ही व्यक्ति द्वारा दिये गये दो विपरीत बयानों को आसानी से पकड़ा जा सकता है। कथनी और करनी के अंतर को आंखों से देखा जा सकता है। इसके बावजूद भी अगर अवाम न समझ पाये तो किसी और को दोष देना उचित नहीं होगा। इसे समाज की कमजोरी के रूप में लिया जाना चाहिए। और कुछ नहीं।