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शासक और प्रजा के बीच क्या बाप-बेटे जैसे संबंध नहीं होने चाहिए?
घर-परिवार में बच्चों और मां-बाप के बीच का संबंध विशिष्ट होता है। इनका भावनात्मक, प्राकृतिक, सामाजिक व पारिवारिक आधार व महत्व है। हिन्दी फिल्मों की भाषा बोली जाए तो यह खून का रिश्ता है। वास्तविकता में भी देखा जाए तो यह मजाक नहीं हकीकत है। जीव विज्ञान के द्वारा भी यह प्रामाणित होता है। वैसे भी बच्चों के चेहरे, रूप-स्वरूप, कद-काठी, यहां तक कि स्वभाव में कहीं न कहीं मां-बाप की झलक अवश्य दिखाई देती है। अभिभावक की नैतिक जिम्मेदारियां हैं तो बच्चों के स्वाभाविक अधिकार। मां-बाप अपनी जिम्मेवारियों को आमतौर पर बखूबी निभाते हैं। वे बच्चों को सुरक्षा प्रदान करते हैं, संरक्षण देते हैं। बचपन से उनकी हर जरूरतों को पूरा करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। चाहे कोई कितना भी कहे, सामान्यतः इसके पीछे कोई स्वार्थ नहीं होता। दूसरी ओर बच्चों को असीमित अधिकार मिले हैं जो आधुनिक काल में और अधिक विस्तार पा रहे हैं। हां, बच्चों के बड़े होने पर यह उम्मीद की जाती है कि वे बूढ़े मां-बाप का साथ देंगे। जवानी में मां-बाप को इस बात पर कोई संदेह नहीं होता। न ही वे इस बारे में कभी सोचते हैं। तभी तो कंजूस से कंजूस बाप भी बच्चों के प्रति नरमी दिखाते हैं। गरीब से गरीब के द्वारा भी अपने बच्चों को अच्छे से अच्छा खिलाने-पिलाने की कोशिश की जाती है। हर अच्छे-बुरे में वे उनके साथ होते हैं। बच्चे का मार्गदर्शन करना हो, शिक्षा प्रदान करनी हो, उसका शारीरिक, मानसिक, आर्थिक विकास करना हो, हर बात के लिए सदैव तैयार। हां, बच्चों द्वारा गलती करने पर अक्सर समझाया जाता है, डांटा भी जाता है मगर इसके पीछे उद्देश्य हमेशा यही होता है कि बच्चा सही रास्ते पर जाये। मारने-पीटने की परंपरा तो अब कम हो चुकी है अन्यथा पिछली पीढ़ी तक तो छोटी-छोटी गलतियों पर भी बच्चों की पिटाई कर दी जाती थी। आज का अभिभावक अधिक संवेदनशील, जागरूक और परिपक्व कहा जा सकता है। वो बच्चों को मारने से डरता भी है। अब यह कितना सच है या गलत, कहना मुश्किल है, लेकिन आमतौर पर यह देखा गया है कि इस कारण से बच्चों में जिद्द की भावना बढ़ी है। उनकी चाहत बढ़ी है। वह अधिक से अधिक पाना चाहते हैं। कई बार मां-बाप की हैसियत जानने और पहचानने के बावजूद वे उनसे अतिरिक्त मांग करते हैं। बेटियां जो पहले मां-बाप को अधिक समझती थीं अब अपना हक दावे से मांगने लगी हैं। यहां तक कि दहेज की मांग लड़कियों द्वारा की जाने लगी हैं। मां-बाप भी बच्चों की खुशी के लिए अपनी सीमा से बाहर जाकर कर्जा लेने से भी नहीं हिचकिचाते। और उसे ऐसी बहुत-सी चीजें देने की कोशिश करते हैं जिसकी सामान्य रूप में बहुत अधिक आवश्यकता नहीं। पहले जमाने में तो कहा जाता था ऐसे अभिभावक बच्चों को बिगाड़ देते हैं। मगर ये अब आम बात है। बड़े होकर इन्हीं बच्चों में से कुछ एक को मां-बाप की देखभाल करते हुए भी देखा गया है। अच्छे मां-बाप का होना एक आदर्श व्यवस्था है। मगर ऐसा ही हो शत प्रतिशत सच नहीं। दुष्ट, स्वार्थी, लोभी, चालाक मां-बाप की भी कमी नहीं तो कई समझदार बच्चे भी मिल जाते हैं। परंतु विकास के साथ-साथ बच्चों में अधिकार के प्रति सजगता बढ़ी है जो कई बार अनुचित होती है तो माता-पिता अधिक लचीले व समझौतावादी होते जा रहे हैं जो कि गलत है। संक्षिप्त में इन संबंधों के बीच संतुलन, सामंजस्य व समझ होने से ये सुख देते हैं अन्यथा दुःख। इन सब के बावजूद आज भी यह संबंध विशिष्ट हैं और सदा रहेंगे। जिसे कुछ शब्दों में परिभाषित करना संभव नहीं।
शासक और प्रजा के बीच के संबंधों को इन बाप-बेटों के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जा सकता। सिर्फ इसमें यही मूल फर्क है कि शासन और शासक प्रजा के द्वारा अस्तित्व में आते हैं। लेकिन अन्य मुद्दों पर इसमें समानता है। अभिभावक की तरह ही शासक का भी कर्तव्य है कि वो अपनी प्रजा का ध्यान रखे। उनके विकास, उनकी सुरक्षा, सुख-शांति समृद्धि के लिए कार्य करे। जिस तरह से परिवार में स्वस्थ व स्वच्छ वातावरण बनाया जाता है, सभी बच्चों को एक नजर से देखा जाता है, सभी के लिए ध्यान रखा जाता है कुछ ऐसा ही शासक भी करे। मगर साथ ही, उनकी उद्दंडता पर आंखें न मूंदे। उसे समझायें, डांटे, जरूरत पड़े तो सख्त कदम उठाएं और अनुशासित करें। लेकिन उसके पीछे एक अच्छे बाप की तरह ही दृष्टिकोण होना चाहिए। समाज में सुख चैन बनाये रखने के लिए हर संभव प्रयत्न करे। आस-पड़ोस के साथ सौहार्दपूर्ण माहौल रखें। और बच्चों द्वारा पड़ोसी के साथ गलत व्यवहार करने पर उसे नियंत्रित करें। मगर क्या ऐसा हो रहा है? नहीं। न तो परिवार में, न ही देश में। बच्चों की तरह ही प्रजा भी अपने कर्तव्य से अधिक अधिकार के लिए लड़ने लगी है। ऐसा नहीं है कि बच्चे ही पूरी तरह गलत हैं और मां-बाप शत प्रतिशत ठीक। अब इसे ही देख लें, वैसे तो सभी बच्चे मां-बाप की संतान होने के कारण उनकी निगाह में एक समान होने चाहिए, इसके बावजूद किसी एक के प्रति मां-बाप को अधिक अनुराग हो जाता है। उसी तरह से शासक का भी कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत झुकाव दिख जाता है। फिर भी ये तब तक गलत नहीं जब तक यह किसी और को हानि पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया हो, दूसरे बच्चे अर्थात अन्य वर्ग की कीमत पर न किया जाता हो। मगर सीमा कौन तय करेगा। इसी तरह, आमतौर पर परिवार में एक उम्र तक मां-बाप बच्चों के प्रति निष्पक्ष होते हैं लेकिन उसके बाद बड़े होने पर अधिक कमाने वाले, सफल, मजबूत, शक्तिशाली बच्चों के प्रभाव में अधिक आने की संभावना होती है। उसी तरह का हाल कुछ-कुछ शासन व्यवस्था में भी हो जाता है। एक परिवार व मां-बाप के लिए यह जितना हानिकारक है उतना ही देश के लिए भी।
बच्चों से मां-बाप के प्रति अच्छे भाव की उम्मीद की जाती है। उन्हें इज्जत देने की, उनके साथ चलने की, उनकी बात मानना अपेक्षित होता है। जिस तरह से बच्चों द्वारा अनुचित मांग करने पर परिवार की व्यवस्था बिगड़ जाती है, घर-परिवार कर्ज में डूब जाता है, उसी तरह से किसी एक वर्ग के द्वारा शासन से अनुचित मांग करने पर देश भी बर्बाद हो सकता है। घर का एक बच्चा बागी हो जाए, गुंडा-बदमाश बन जाए या फिर विद्रोही, तब भी घर-परिवार का सत्यानाश हो जाता है। उन्हें समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया तो दूसरे लोगों को भी उसकी आग में झुलसना पड़ता है। ऐसे में कई समझदार मां-बाप पहले सख्त रवैया अख्तियार करते हैं और फिर न सुधरने पर कड़ा कदम उठाते हैं। तभी घर सुरक्षित रह पाता है। तो क्या ऐसा ही व्यवहार शासन को अपनी बिगड़ती हुई प्रजा के किसी वर्ग के साथ नहीं करना चाहिए? जब एक बच्चा सब कुछ भूलकर सिर्फ अपने ही स्वार्थ के लिए, अपनी अलग पहचान के लिए, मां-बाप से जोर-जबरदस्ती करता है, अनुचित व्यवहार करता है, घर में लड़ाई झगड़ा करता है, ऐसे में घर के माहौल को खराब होने में देर नहीं लगती। इसका असर दूसरे बच्चों पर भी पड़ता है। अधिक शांत और संवेदनशील बच्चे चुप तो रहते हैं मगर अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं। लेकिन अगर किसी एक परिवार में एक से अधिक बच्चे उद्दंड हो जायें और हरेक अपनी मांग के लिए लड़ने को तैयार हो जाए तो घर युद्ध का मैदान बन जाता है। जब दो कमरों के मकान में रहने वाले दो बच्चों में से कोई भी एक अपने हिस्से से अधिक कमरे की मांग रखता है तो यकीनन यह दूसरे की कीमत पर होगा। और फिर ऐसा अगर सभी करने लगे तो क्या परिवार संगठित छोड़ अस्तित्व में भी रह सकता है? कदापि नहीं। यही संतुलन तो शासक को रखना चाहिए। वैसे तो कमजोर बच्चों के साथ मां-बाप का रवैया वैसे ही सहयोगात्मक होता है। मगर जो जबरदस्ती करे वो कमजोर व असहाय नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में जोर-जबरदस्ती वाले वर्ग के सामने झुकने पर गलत संदेश जाता है। दूसरे बच्चे के साथ दूरियां बढ़ती हैं और परिणामस्वरूप परिवार टूट जाता है। अगर मां-बाप समझदार व दूरदर्शी नहीं तो वातावरण सहज व सामान्य नहीं हो सकता। जिस तरह से एक बच्चे द्वारा अपने हिस्से से अधिक की जबरन मांग करने पर, घर में कोहराम मचाने पर, उसे अनुशासित करना आवश्यक है, अन्यथा परिवार बिखर जाएगा। उसी तरह क्या देश के शासक को भी ऐसा ही व्यवहार नहीं करना चाहिए?