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बौद्धिक पक्षधरता का युग
महाभारत का युद्ध क्यों हुआ? इस सवाल के जवाब में कई दृष्टिकोण होंगे और जिसके समर्थन में अपने-अपने पक्ष रखे जा सकते हैं। कौरवों का स्वार्थ तो दुर्योधन का घमंड, शकुनि मामा की कुटिलता या धृतराष्ट्र का पुत्र-मोह आदि-आदि कारण गिनाये जा सकते हैं। तर्क-कुतर्क तो और भी हो सकते हैं लेकिन भीष्म पितामह की चुप्पी शायद प्रमुख कारण माना जाना चाहिए। वो ज्ञानी थे, शक्तिशाली थे, वीर थे, गुणी थे। निष्पक्ष होकर न्यायप्रियता के साथ-साथ वे सदा सच एवं धर्म का साथ देंगे, ऐसी उम्मीद ही नहीं, विश्वास भी किया जाता था। लेकिन हस्तिनापुर के राजसिंहासन के प्रति वचनबद्धता ने उन्हें कुछ न करने के लिए मजबूर किया। ऐसा कहा जाता है। मगर क्या यह उचित था? बिल्कुल नहीं। द्रौपदी चीरहरण के वक्त वो चुप रहे, क्या इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार किया जा सकता है? नहीं। अनैतिक और गलत के साथ खड़ा होना ही अपने आप में सबसे बड़ा अधर्म कहा जाता है लेकिन उन्होंने तो कौरवों के पक्ष से युद्ध में सक्रियता से हिस्सा भी लिया। ऐसे में क्या वो पाप के बराबर से भागीदार नहीं? बिल्कुल हैं। उलटा उन्हें तो प्रमुख दोषी के रूप में खड़ा किया जाना चाहिए। और उसका कारण है। अगर कोई अनजान या अक्षम ऐसा करे तो उसे संदेह का लाभ दिया जा सकता है। मगर भीष्म तो जीवन व समाज के समस्त मूल्य व तथ्य से भलीभांति परिचित थे। अगर वो सत्य व नीति के पक्ष में अड़ जाते तो महाभारत के युद्ध की संभावना लगभग नगण्य हो जाती। कहने को तो नियति को कौन रोक सकता है, कहकर छुटकारा पाया जा सकता है, लेकिन महाभारत का विनाशकारी युद्ध आगे की कई पीढ़ियों को सबक दे गया कि बड़े-बुजुर्गों की एक भूल कितनी भयावह हो सकती है। अकेले भीष्म पितामह ही क्यों, द्रोणाचार्य एवं विदुर जैसे ज्ञानी की निष्क्रियता को भी इसी क्रम में रखकर देखा जाना चाहिए। ध्यान से देखें तो कहीं-कहीं ये सभी राजसिंहासन नहीं शासक के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। ये अपनी वफादारी सत्ता की जगह अवाम के साथ जोड़ते तो उन्हें सही निर्णय लेने में आसानी होती। सवाल उठता है कि क्या ये महापुरुष भी बड़े परिप्रेक्ष्य में रखकर देशहित के सही मायने नहीं समझ पाये? अगर नहीं तो फिर ऐसे में आम आदमी से क्या उम्मीद की जा सकती है? बहरहाल, इन बुद्धिजीवियों के गलत निर्णय का खमियाजा आमजन को भोगना पड़ा। जो जाने-अनजाने ही शक पैदा करता है कि कहीं ये महान हस्तियां हस्तिनापुर के हित से अधिक सत्ताधारी का हित साधने में तो नहीं लग गयी थीं? यह भी तो हो सकता है कि सत्ता-सुख के चक्कर में पड़कर विरोध न कर पायीं हों? सच तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी स्वार्थी व अत्याचारियों का साथ, सवाल के साथ-साथ आश्चर्य भी पैदा करता है!
आज की परिस्थितियां तो अधिक विकट हैं। भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे ज्ञानी और शूरवीर वरिष्ठजन तो हैं नहीं, ऊपर से दुर्योधन और शकुनि की संख्याएं तेजी से बढ़ रही हैं और साथ ही स्वार्थ अपने चरम पर है। अमूमन ऐसी स्थितियां निर्मित हो जाती हैं, जहां महाविनाश की संभावना बनी रहती है। ऐसे में चिंता स्वाभाविक है। मुश्किल इस बात कि है कि अब कृष्ण भी उपस्थित नहीं। जिनके दिशा-निर्देश में अर्जुन धर्म की जीत और फिर राम-राज्य की स्थापना करने में सफल हो पाये थे। ‘गीता’ की सरल मगर सच्ची बातों से युगों-युगों तक आमजन भी लाभान्वित होता रहा है। मगर अब इसकी अनदेखी शुरू हो चुकी है। इसके भावार्थ से अब हम कोसों दूर हैं। वर्तमान काल में सच्ची और कड़वी बात सुनाने वाला दिखाई नहीं पड़ता। उलटा आज के अधिकांश बुद्धिजीवियों में ज्ञान की जगह अहम् कूट-कूटकर भरा हुआ है। वो कहीं अधिक स्वकेंद्रित हो चुका है। कहीं-कहीं वो विचारधाराओं से जुड़ा प्रतीत जरूर होता है, लेकिन उसे फिर कुछ और दिखाई नहीं देता। वो खुले दिमाग से कुछ समझना ही नहीं चाहता। ऐसे में उसकी उपयोगिता तो समाप्त हो ही चुकी है, बल्कि उसका पक्षपातपूर्ण रवैया घातक होता जा रहा है। अब उसकी निष्पक्षता संदेहास्पद नहीं रही, वो खुलेआम देखी जा सकती है, जो सत्ता और धन के प्रति वफादारी निभाते हुए आसानी से प्रकट भी हो जाती है।
उदाहरण के रूप में टीवी पर विभिन्न मुद्दों पर आने वाली बहसों को देखें। बड़ी आसानी से कोई भी यह कह सकता है कि कौन-सा वक्ता किसके साथ जुड़ा या खड़ा हुआ है। कौन पक्ष में बोल रहा है कौन विपक्ष में? यूं तो कहने के लिए कोई भी बहस एकतरफा न हो जाये, इसीलिए सभी पक्षों से संबंधित वक्ताओं को बुलाया जाता है। मगर साथ ही कुछ विद्वान बुलाये जाते हैं। और उम्मीद की जाती है कि वे कम से कम निष्पक्ष होंगे और बहस को सार्थक बनाते हुए उचित निष्कर्ष की ओर ले जायेंगे। एक वाकया याद आता है। एक बहस के दौरान एक पक्ष के वक्ता ने यह कहकर माहौल में गर्माहट पैदा कर दी कि वार्ता में उपस्थित एक विद्वान आजकल तो किसी लाभ के पद पर विराजमान हैं। कहने का साफ मतलब था कि वे लाभान्वित किये गये हैं। इतना ही कहना था कि उसके बाद उपरोक्त विद्वान अचानक आक्रामक हो गये। मगर यह उनकी झेंप थी जो गुस्से में प्रकट होने लगी थी। वरना वे तब तक बड़ी सौम्यता से शांत-चित्त होकर अपने विचार प्रकट कर रहे थे। असल में उनकी चतुराई पकड़ी गयी थी और उनके पक्षपातपूर्ण विचार का कारण उजागर हो चुका था।
उपरोक्त उदाहरण स्वयं में एक नये किस्म की बहस को जन्म देता है। जो वाद-विवाद का कारण बन सकता है। प्रश्न उठता है कि क्या विद्वानों, संपादकों, चिंतकों का भी पक्ष होता है? नहीं, उन्हें तो निष्पक्ष होना चाहिए। मगर आजकल वे मुद्दों पर सही राय देने की जगह कई बार अपने शुभचिंतकों का हित देखते हैं। इससे बचने के लिए ही शायद शास्त्रों में कहा भी गया है कि आचार्यों, गुरुओं व दार्शनिकों को राजसत्ता व भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर रहना चाहिए। मगर आज तो यह वर्ग इसमें डूब रहा है। वर्तमान काल में मीडिया का अहम रोल है। मगर यहां तो सामान्य एंकर भी अपने प्रश्न व पूछने की शैली से कई बार यह प्रदर्शित कर जाते हैं कि वो किसका पक्ष ले रहे हैं। यह परिस्थिति नये किस्म के भ्रम को जन्म देती है। सत्ता के लिए अंधी प्रतिस्पर्धा पैदा करती है। और दर्शकों को गुमराह करती है। होना तो यह चाहिए कि बहस में आने वाले लोग मुद्दे के हिसाब से अपना-अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करें। ऐसी परिस्थिति में नीति व अनीति के बीच पहचान आसान हो जाती है। लेकिन आज का बुद्धिमान अपने हित को ध्यान में रखकर बोलता है। वो भी पूरी दृढ़ता के साथ। फिर वो अपनी बातों को न्यायोचित भी ठहराता है। कई बार सिर्फ इसलिए विरोध करता है क्योंकि वो दूसरे पक्ष का मत है, फिर चाहे वो सही ही क्यों न हो। कभी-कभी वो हंसी का पात्र भी बन जाता है मगर फिर भी वह कुछ और सोचना और समझना ही नहीं चाहता। उसने अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं। यही नहीं, वो अपने पक्ष के लिए तमाम तर्क-कुतर्क भी प्रस्तुत करता है। शब्दों के साथ खेलते हुए झूठ को सच बना डालता है। इस प्रक्रिया में जाने-अनजाने ही वो अपने विरोधी-पक्ष को दुश्मन मान बैठता है। ऐसा कई बार देखा गया है कि कुछ एक मतों को बुद्धिजीवी वर्ग सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं करता क्योंकि वो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। ऐसे में उसकी ईमानदारी संदिग्ध होना स्वाभाविक है। परिणामस्वरूप वार्ताकार तो अपना हित साध लेता है मगर अवाम को नुकसान पहुंचा जाता है। यहां यह मान लेना कि आमजन सब समझता है, ठीक नहीं होगा। सत्य तो यह है कि भोली-भाली जनता इन बातों में कई बार आ जाती है। और शायद इसीलिए एक तरफ सत्ता बरकरार रहती है तो दूसरी तरफ अवाम की मुश्किलें हमेशा बनी रहती है। शक्तिशाली जानता है कि परिस्थितियों की यथास्थिति कैसे बनायी रखी जा सकती है और वो अपने दांव खेलता रहता है।
शकुनि ने सत्ता प्राप्ति की हर चाल को राजनीति कहकर महिमामंडित किया था। आज का तमाम शक्तिशाली वर्ग उनका अनुयायी बनता नजर आता है। सवाल उठता है कि क्या आज के पितामह भीष्म-प्रतिज्ञा तोड़ेंगे? क्या कृष्ण एक बार फिर अवतार लेंगे? अगर नहीं तो इस कलियुग को कौन पार लगायेगा? आज का अर्जुन क्या यूं ही भ्रमित रहेगा? बहरहाल, और कुछ नहीं तो कम से कम संजय ही सच का बखान कर अंधे धृतराष्ट्र की आंखें खोले, वरना सर्वनाश सुनिश्चित है।