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सहमा हुआ आम आदमी

यूं तो पत्रों द्वारा पाठकों की राय मिलती रहती है। और यदाकदा टेलीफोन भी आ जाते हैं। मगर यह कॉल कुछ विशिष्ट थी। इसने मुझे रुककर सोचने के लिए मजबूर किया था। दूरदराज के क्षेत्र से किसी पाठक का फोन था। फोन पर वह असहज लग रहा था। कह सकते हैं कि कुछ-कुछ डर रहा था। उसकी बातों से लगा कि वह इस बात से आशंकित था कि कोई उसकी बात सुन तो नहीं रहा। उसकी धीमी आवाज में कहीं न कहीं भय का समावेश था। वह अपनी बातें कहने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि वह सही व्यक्ति से बात कर रहा है। उसने मेरा नाम कई बार पूछा था। ऐसा लगा कि वह मुझे मेरे लेखों के कारण पसंद करता था और बहुत हद तक प्रभावित भी था। शायद यही वजह थी कि वह अपने दिल की बात कहने के लिए प्रेरित हुआ। उसने हिम्मत जुटाई थी। वार्ता से यह पता चला कि वह अपने आसपास होने वाली विभिन्न गैर-कानूनी काम मसलन जंगल की कटाई, खदानों का अवैध खनन, ड्रग्स की तस्करी और इसी तरह की विभिन्न असामाजिक कार्य से बेहद दुखी है। वो किसी व्यक्ति विशेष या संस्था का नाम नहीं ले रहा था और उसकी तमाम बातें आम थीं मगर उसे वो विशिष्ट लग रही थीं। उसके मतानुसार एक पूरा समूह है जो इन कार्यों को अंजाम देता है इससे जुड़ा हर व्यक्ति पैसे बनाने के लालच में अंधा हो रहा है, ये लोग कुछ भी सुनने-समझने को तैयार नहीं, उल्टे रास्ते में दखल देने वाले किसी भी शख्स को छोड़ते नहीं। आगे बातचीत से पता चला कि वो इन कामों को रुकवाना चाहता था और इन सब बातों को देख-देखकर उत्तेजित था। उसकी व्यथित मानसिक अवस्था को देखते हुए मैंने उसे धैर्यपूर्वक सुनने की कोशिश की तो बातचीत में वह सच्चा देशभक्त लग रहा था। एक ऐसा व्यक्ति जिसे सिर्फ अपने या अपने परिवार से ही प्यार नहीं था बल्कि वह संपूर्ण समाज व देश के लिए संदर्भित व चिंतित दिखाई दे रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि वह चारों ओर घटित हो रही घटनाओं को देख-देखकर अंदर से पूरी तरह से हिल चुका है। वह यह जानता था कि तमाम गैर-कानूनी कामों के पीछे बड़े-बड़े हाथ हैं जो ऊपर कहां तक संबंधित हैं, कहा नहीं जा सकता। वह यह भी जानता था कि वे लोग उसे किसी भी वक्त नुकसान पहुंचा सकते हैं और उसे मिट्टी में मिला सकते हैं। ऐसे में उसकी हिम्मत की दाद देनी चाहिए। यह सब कुछ जानते हुए भी वह अपने अंदर इतनी ऊर्जा जुटा पाया कि अपने दिल की बात किसी अनजान से कह गया। उसकी बातों में वर्तमान व्यवस्था को लेकर असंतोष था और उसका विरोध दबे स्वरों में भी मुखर हो रहा था। वह वर्तमान राजनीतिक अवस्था से भ्रमित लग रहा था।

उपरोक्त तस्वीर हिंदुस्तान के किसी भी क्षेत्र की हो सकती है बस काम के रंग-ढंग बदल सकते हैं मगर आम आदमी की अवस्था एक-समान ही होगी। अपने आसपास घटने वाली गलत घटनाओं को हम अमूमन देखकर अनदेखा करते है। और दोस्तों-यारों के बीच भी इधर-उधर देखकर अप्रत्यक्ष रूप से ही धीरे से बोलते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि किसी को बताना मत। बड़े और प्रभावशाली लोगों का नाम जानते हुए भी हम डरकर आमतौर पर बताने से बचने की कोशिश करते हैं। मगर उस व्यक्ति ने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर प्रयत्न किया था। इसीलिए वो विशिष्ट था। उसका प्रश्न था कि क्या मैं इस में कुछ नहीं कर सकता? मेरे मौन ने उसे हतोत्साहित किया था। बाद में मैंने स्वयं की ओर देखा तो मुझे बेचैनी हुई थी।

समाज की अव्यवस्थाओं से दुखी होकर अमूमन हम व्यवस्था परिवर्तन के लिए क्रांति की बात करते हैं। इस दौरान बड़े-बड़े क्रांतिकारियों का नाम लिया जाता है। हम आम जनता में उनसे उत्साह भरवाते हैं और तालियां बजवाते हैं। मगर सत्य तो यह है कि हर दूसरा आम व्यक्ति क्रांतिकारी नहीं बन सकता। इसे गुण-अवगुण जो कहें मगर वो अपनी प्राकृतिक क्षमताओं में सीमित रहकर जीवन गुजर करता रहता है। और अमूमन विद्रोह नहीं कर पाता। उलटे अत्याचार और शोषण को सहता रहता है। सदियों तक क्रूरता का शासन रहा क्योंकि आम आदमी डरता है। वो किसी भी मुश्किल का सामना करने के लिए तैयार नहीं बल्कि परिणामों से सहमा होता है और तभी सामान्यतः विरोध में खड़ा नहीं हो पाता। आमतौर पर हम सब अपने आसपास होने वाली गलत घटनाओं से दुखी व परेशान होते हैं और दिन-प्रतिदिन बिगड़ती स्थिति के लिए मन ही मन उद्वेलित भी रहते हैं। अव्यवस्था हमें क्षणिक ही सही मगर आक्रोशित करती है। हमारा क्रोध भट्ठी बनकर स्वयं को ही जलाता रहता है। वर्तमान काल तो और भयावह है। इस वैज्ञानिक काल ने अमानवीय एवं गैर-कानूनी कार्य करने के लिए आधुनिक अस्त्र-शस्त्र के साथ-साथ चेहरे पर नकाब लगा लिये हैं और वह बेहद चतुराई से अपने खेल को खेल रहा है। वह पहले से अधिक क्रूर हुआ है। साधारण व्यक्तियों का दमन शारीरिक ही नहीं अब मानसिक भी होने लगा है। स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी हैं कि चारों ओर होने वाली तथाकथित क्रांतियां भी अब भ्रमित करती हैं और कई शासकों के तख्ता-पलट प्रायोजित व पूर्व नियोजित लगते हैं। यह एक तरह की छद्म क्रांतियां हैं जिसमें कई बार भाग लेने वाले क्रांतिकारियों को स्वयं पता नहीं होता कि वह किसी के हाथों की कठपुतलियां बन चुके हैं। उधर, मीडिया अपनी विश्वसनीयता तेजी से खो रहा है। और वो कब शासक के हाथों विष फैला रहा हो, कहना और समझना मुश्किल है। घटनाएं समाचार बनते-बनते अपनी आत्मा खो चुकी होती हैं और उन्हें ऐसे शब्दों में परोसा जाता है जो भावार्थ को पलटकर रख देते हैं। हिंदुस्तान में भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, हम विकास की रफ्तार तेज करने के चक्कर में खुद को समुद्री भंवर में फंसा चुके हैं। जो कब हमें रसातल में ले जाये पता नहीं। सबसे अधिक चिंता की बात है कि यह सांस्कृतिक और सभ्यता की गुलामी का दौर है। ऐसे में उस समाज को कोई नहीं बचा सकता जहां का बुद्धिजीवी वर्ग भी दूसरों की निगाह से देखने लगे और असंदर्भित व असंबंधित विचारधारा पर सवारी करके अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करे। यही नहीं जब उसे रोका-टोका जाये तो वह रुककर सोचने की बजाय ताल ठोंककर हर तरफ से शब्दों व विचारों की बमबारी करने के लिए तैयार हो जाये। परिणामस्वरूप समाज मानसिक गुलामी की ओर बढ़ने लगता है। और फिर उसे युगों-युगों तक शासित व शोषित बनाये रखने से कोई नहीं रोक सकता।

इन सबके बावजूद उपरोक्त व्यक्ति की वेदना अंधकारमय वातावरण में आशा की किरण लेकर आती प्रतीत होती है। इसे क्रांति के बीज के रूप में भी लिया जा सकता है। छोटे-छोटे प्रयास ही बाद में बड़े काम करने के लिए प्रेरणा का ह्लोत बनते हैं। हर सामान्य व्यक्ति ऐतिहासिक व महान या बहुत लोकप्रिय क्रांतिकारी या सेलेब्रिटी सामाजिक कार्यकर्ता ही हो, कोई जरूरी नहीं। वैसे भी हिंदुस्तान में मंच पर बैठने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। नेता बनने की ख्वाहिश बढ़ती जा रही है। जबकि अधिकांश में नेतृत्व के लिए आवश्यक प्राकृतिक गुण नहीं। अब राजनीति समाज सेवा का क्षेत्र नहीं रहा बल्कि कमाई का जरिया बन चुका है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा सर्वोपरि है। प्रजातंत्र तो कहने के लिए है, राजनीति के द्वारा धीरे-धीरे पारिवारिक व्यवस्था ने अपना आधिपत्य जमा लिया है। आज अधिकांश नेता जमीन से उठकर खड़े हुए कम बल्कि ऊपर से समाज पर थोपे हुए अधिक प्रतीत होते हैं। इनके असली उद्देश्य छिपे हुए और भिन्न हैं। मगर ऐसे नेतृत्व के पीछे की भीड़ भी नदारद है। और जो है भी वो जुटाई हुई लगती है। मगर फिर भी वो सफल और सत्ता में है और बने रहने के लिए सारे हथकंडे अपना रहे हैं। ऐसे भ्रमित माहौल में आम आदमी की आवाज कहां मायने रखती है? उसे तो उपयोग में लाया जाता है। मगर सत्य यह भी है कि जब उसके सहने की क्षमता समाप्त हो जाती है, जब वह अति का शिकार हो जाता है, जब वह रुक नहीं पाता, अपने आप को रोक नहीं पाता तो उसकी भयभीत आंखें चारों ओर हो रहे अत्याचार एवं हाहाकार के बीच में भी तिनके का सहारा ढूंढ़ने के लिए बेचैन रहती है। इसी बेचैनी को जब शब्द मिलता है तो क्रांति की चिंगारी सुलगती है। यह कब ज्वालामुखी में परिवर्तित हो जाये, कह नहीं सकते। आम आदमी के अंदर की आग छोटी-सी चिंगारी के रूप में निकलती जरूर है मगर वो चाहता है कि यह आग का शोला बने। विद्रोह की शुरुआत यहीं से होती है। जिस दिन भी इस दबी-कुचली ऊर्जा को रास्ता प्राप्त होगा वो बिजली की तरह चमक उठेगी। और अंधेरे में उजाला तेजी से चारों और फैल जाएगा।