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वर्ण व्यवस्था की चुनौती

यूं तो विश्व के हर समाज व धर्म में अपने-अपने तरह के वर्ग और जातियां हैं। मगर भारतीय समाज का संपूर्ण तानाबाना वर्ण व्यवस्था पर आधारित रहा है। सदियों से यह भारतीय सभ्यता व संस्कृति के मूल में है। जातियां-उपजातियां इतनी अधिक हैं कि इस पर पूरा एक विशाल ग्रंथ तैयार हो सकता है। एक संपूर्ण जीवन शोध में लगाया जा सकता है। इसके बावजूद कोई उपजाति छूट जाये तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। विभिन्न धार्मिक एवं प्राचीन ग्रंथों में अपने-अपने ढंग से इनका उल्लेख मिलता है। बहरहाल, समाज के सामने आज इसे एक चुनौती के रूप में लिया जाता है। समाज की व्यवस्था सामाजिक बीमारी में कब परिवर्तित हुई, कहना मुश्किल है। मगर इसके दुष्परिणामों से छुटकारा पाने के लिए कई प्रयास किये गये। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और पता नहीं क्या-क्या, जो निरंतर जारी भी हैं। कुछ जगहों पर काफी हद तक राहत भी मिली। मगर मर्ज ऐसा है कि इलाज करने पर यह और अधिक बढ़ता चला गया। आज स्थिति यह है कि वर्ण व्यवस्था की जटिलता अपने भयावह रूप के साथ उपस्थित है। हालात इतने बदतर हैं कि कई जगह यह समाज को पूरी तरह से विभाजित करने का काम करती प्रतीत होती है। जाति से अधिक जातिवाद घातक है। आज यह संक्रामक रोग में रूपांतरित हो गया है। आधुनिकीकरण के कारण इसके जहर का प्रतिशत कम हुआ होगा मगर इसे मात्र सतह पर ही महसूस किया जा सकता है। असल में इस पुरानी बीमारी को जड़ से नष्ट करने की कोशिश नहीं हुई, तभी इसके लक्षण तो कहीं-कहीं दब गए मगर समाज कमजोर होता चला गया। इसका प्रभाव इतने गहरे तक हमारे मन-मस्तिष्क में रचा-बसा है कि जन्म और विवाह-संस्कारों में तो यह महत्वपूर्ण है ही, मरने पर भी गोत्र व जाति आदि पूछी जाती है। हास्यास्पद मगर हकीकत है कि धर्मांतरण के बावजूद जाति पीछा नहीं छोड़ती। क्या किया जाये, समाज के कुछ वर्ग की इसके कारण रोजी-रोटी चल रही है। उधर, प्रजातंत्र ने इसको और अधिक हवा देकर अपने रंग में रंग लिया। वोट बैंक बनाये रखने के लिए ऐसी व्यवस्था बरकरार रखना कइयों के लिए फायदे का सौदा है।

यह कितनी प्राचीन व्यवस्था है, ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में यह भिन्न-भिन्न रूप में सदा विद्यमान रही है। दो संस्कृतियों का संघर्ष और फिर कालांतर में शासक और शासित बनने का परिणाम इस रूप में सामने आया, कुछ इतिहासकारों का ऐसा मानना हो सकता है। आर्य और द्रविड़ संस्कृति के सहअस्तित्व की सामाजिक प्रक्रिया में दुष्परिणाम के रूप में भी इसे लिया जाता रहा है और धर्मग्रंथों में प्रचलित देवता और राक्षस कुल के वर्णन को कहीं-कहीं इसी संदर्भ में जोड़ा जाता है। इसी तरह की कई अवधारणाएं आज भी प्रचलित हैं। प्रारंभिक काल में कर्म और क्षमता के हिसाब से तो अधिकांश समय-काल में जन्म पर आधारित ही यह फली-फूली है। कर्म-प्रधान वर्ण व्यवस्था एक बेहतरीन बहस का मुद्दा हो सकता है। बहरहाल, वर्तमान में पिछले काफी समय से जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था ही चली आ रही है। परिणामस्वरूप कई नैसर्गिक प्रतिभावान गुणी व्यक्ति जाति व्यवस्था के बोझ तले अपनी चमक खोते देखे गये। जबकि ग्रंथों की माने तो पूर्व में ऐसा नहीं था। आज इसका सामाजिक दुष्प्रभाव इतना व्यापक और गहरा है कि कई लोग अपनी गरिमा और इज्जत को बनाये रखने के लिए अपनी जाति को छुपाने के प्रयास में रहते हैं। इसके पीछे एकमात्र कारण है कि उच्च वर्ग का वर्तमान तो सुविधा-संपन्न है ही साथ ही इतिहास को भी बड़ा गौरवशाली बताया जाता रहा है। जिसमें महान ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम सम्मिलित हैं। वैसे तो यह स्वाभाविक है। उच्च जाति को साधन और अवसर अधिक प्राप्त होने पर उनकी हर क्षेत्र में सफलता की संभावना बढ़ जाती है। दूसरी ओर मनुष्य की एक नैसर्गिक कमजोरी रही है कि वह सदैव गौरवपूर्ण इतिहास के साथ अपने आप को जोड़कर देखना चाहता है। वह अपने पुरखों के वैभव को बताकर स्वयं के रुतबे को कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से स्थापित कर देने के प्रयास में रहता है। इसके पीछे उसका अहम्‌ होता है। सदा बड़े दिखने या दिखाने की लालसा, और दूसरों को हेय दृष्टि से देखना एक मानवीय अवगुण है। मगर समय के साथ किसी एक वर्ग के साथ इसको जोड़कर सामाजिक स्वीकृति प्रदान कर दी जाए तो मानसिकता खतरनाक हो जाती है। ऐसे में एक वर्ग घमंडी तो दूसरा हीन-भावना से ग्रसित हो सकता है इसीलिए कई पिछड़े वर्ग के लोग वर्तमान में सफल व विकसित हो जाने पर भी अपनी जाति को छुपाने का और अधिक प्रयास करते हैं।

समाज में ऐसी धारणा बड़े प्रभावी ढंग से प्रचलित रही है कि कुछेक विशिष्ट वर्ण के पुरखों ने ही राज किया। जबकि यह सत्य नहीं है। इतिहास का विस्तृत अध्ययन करें तो पायेंगे कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि सिर्फ क्षत्रियों ने ही राज किया हो। कृष्ण यदुवंशी थे। चंद्रगुप्त मौर्य के कुल और वंश का सही-सही पता नहीं। मगध का नंदा वंश उच्च जाति से संबंधित नहीं था। इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाये तो कई ऐसे महान राजा हुए हैं जो उच्च वर्ण से संबंधित नहीं थे। आदिवासी क्षेत्र में कई स्थानीय राजाओं का शासनकाल स्वर्णिम रहा। कई राजाओं की जाति को लेकर स्थानीय समकालीन पुरोहितों ने भ्रम फैलाने की कोशिश की। कई महाराजाओं के राज्याभिषेक के समय भी कुछ इसी तरह के विवाद होने की बातें इतिहास में इधर-उधर पढ़ने में आ जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हर जाति और वर्ण के कुछ महान शासक इतिहास के पन्नों में भारत के किसी न किसी क्षेत्र पर अपना प्रभाव जमाये हुए देखे जा सकते हैं। दूसरी ओर सभी महान राजा व ऋषियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि व कुल का विश्लेषण करने पर कुछ अप्रत्याशित व अनापेक्षित जानकारियां प्राप्त होती है। धर्म-ग्रंथों में भी विभिन्न देवताओं को भिन्न-भिन्न कुल और वंश का दिखलाया गया और सभी अपनी-अपनी लीलाओं (कर्म) के माध्यम से आमजन में पूजनीय रहे हैं। वैदिक काल के लिखित इतिहास को नकारने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। जहां निम्नवर्ग के सैकड़ों व्यक्तियों ने अपने गुण व क्षमताओं से उच्च वर्ण में प्रवेश किया और ऐतिहासिक पहचान बनाई। इसका बड़ा सीधा-सा कारण है कि शासन शक्ति और नियति से होता है। ज्ञान, बुद्धिजनित और ईश्वरीय देन है। और शक्ति व बुद्धि किसी एक वर्ण या विशिष्ट वर्ग की गुलाम नहीं हो सकती। प्रकृति के प्रत्येक मनुष्य के खून का रंग एक समान है और किसे शारीरिक रूप से अधिक बलवान और मानसिक रूप से सक्षम के साथ-साथ भाग्यशाली बनाकर ईश्वर पैदा कर दे, कहना मुश्किल है। समय का चक्र किसके साथ जुड़ जाये, कहा नहीं जा सकता है। यह ईश्वरीय कृपा किसी एक परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी सदा बनी रहे, संभव नहीं। वैसे भी सौंदर्य, बुद्धि और शक्ति किसी की गुलाम नहीं। आदिकाल से लेकर आधुनिक युग तक कई महान व्यक्तियों को दूसरी जातियों में पलते-बढ़ते देखा जा सकता है। इसीलिए शायद वैदिक काल में व्यक्ति की कार्यक्षमता के अनुरूप उनकी वर्ण व जाति घोषित की जाती थी। परंतु कुछ निहित स्वार्थ ने ऐसी सामाजिक व्यवस्था कर दी कि इसे जन्म से संबंधित कर दिया गया। और लोग अपनी जाति में पैदा होते चले गये। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि बड़े कुल और परिवार में जन्मा बच्चा यकीनन अधिक सुविधाओं का भोग और मौकों का उपयोग करता है। उसके समर्थन में कई सारी बातें होती हैं। परिणामस्वरूप उसकी सफल होने की संभावना अधिक होती है। लेकिन फिर नियति को कहां ले जाओगे?

आज हम जाति व्यवस्था के कुप्रभाव से जूझ रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण, शासकीय आर्थिक सहायता, अंतरजातीय विवाह और न जाने कितने सारे प्रयोग किये जा रहे हैं। समाज के पिछड़े तबकों को उठाने का भरसक प्रयास किया जा रहा है। इसी कड़ी में अगर इतिहास के उन पन्नों को उभारा जाये जिसमें यह प्रदर्शित हो कि अमुक-अमुक जाति के एक व्यक्ति ने इतिहास में शासन किया है और उसका शासनकाल गौरवपूर्ण था, या फिर वो अत्यंत ज्ञानी था तो उससे जुड़े लोगों में आत्मविश्वास और आत्मानुराग पैदा होगा। वे स्वयं को गौरवान्वित महसूस करेंगे और अपनी जाति को छोटा समझकर छुपाने का प्रयास नहीं करेंगे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि चतुर-चालाक समाज के नीतिकारों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी थी कि कई महान राजा भी सफल होने के बाद स्वयं को क्षत्रिय घोषित करने में प्रयासरत हो जाते थे। और इस मुद्दे पर समकालीन संबंधित लोग बहुत कुछ अपना फायदा भुनाते थे। दूसरी तरफ निम्न वर्ग के बुद्धिमान को भी ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया से दूर रखा जाता था। आज इस सामाजिक व मानसिक पिछड़ेपन के रोग को ठीक करना होगा क्योंकि यहां यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि गरीबी अधिक कष्टदायक व तकलीफदायक है और यह हर जाति और समुदाय में बराबरी से बंटी हुई है। बस फर्क इतना है कि उच्च जाति का गरीब भी कहीं न कहीं अपने आप को स्वाभिमान से जोड़ लेता है जबकि निम्न जाति का उच्च पदस्थ व्यक्ति भी स्वयं के सम्मान के लिए प्रयासरत रहता है। यहां असल में बात आत्मसम्मान की है जिस पर हल्के से भी चोट लगने पर दर्द गहरा होता है।