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मौत का बाजारीकरण
एक नजदीक के रिश्तेदार की मृत्यु पर दिल्ली जाना हुआ था। राष्ट्रीय राजधानी के किसी श्मशानघाट में जाने का यह मेरा पहला अनुभव था। श्मशान के दर्शनशास्त्र के बारे में अकसर चर्चा होती रहती है और अधिकांश ने इसे महसूस भी किया होगा। मगर यहां आकर इस बात का पहली बार अहसास हुआ कि बाजार ने मौत के क्षेत्र में भी घुसपैठ कर अपना प्रभाव बना लिया है। अब तो श्मशानघाट के अंदर भी वैराग्य महसूस नहीं होता। इतनी भीड़-भाड़ में समझ पाना वैसे भी मुश्किल हो जाता है और ऐसे में भागमभागी करने पर धक्का-मुक्की हो जाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। अब क्या किया जाए, जल्दी से जल्दी ऑफिस या घर वापस पहुंचने की चिंता, रास्ते में होने वाले ट्रैफिक जाम और महानगरों के अन्य विभिन्न पहलुओं के कारण उत्पन्न मुश्किलों से आदमी वैसे ही परेशान रहता है। ऊपर से समय को बचाने के चक्कर में पहले ही दौड़भाग मची रहती है। इस चक्कर में वो यह भूल जाता है कि उसका समय कब आ जाये, कुछ पता नहीं। बहरहाल, निगम बोध घाट दिल्ली में बढ़ती जनसंख्या का दबाव साफ महसूस हो रहा था। अग्नि देने के कई दाह-स्थल थे और प्रत्येक के क्रमांक सुनिश्चित थे और शव के साथ आये परिजनों को निर्धारित स्थान मुहैया कराया जा रहा था। लकड़ी, पंडितों एवं अन्य आवश्यक धार्मिक कर्मकांडों की समुचित व्यवस्था थी। फिर भी शवों की कतार थी और लोगों में समय और स्थान को लेकर जल्दबाजी ही नहीं जद्दोजेहद भी दिखाई दी।
सब जानते हैं कि मौत एक दिन सभी को आनी है। मगर यह भी सच है कि जीते-जी मर कर भी कोई फायदा नहीं। इसीलिए प्रकृति ने इस दुःख और विरक्ति से निकलने के कई सारे बड़े अच्छे इंतजाम कर रखे हैं। लोभ-माया और मोह, ये सब आखिरकार उसी की ही तो देन है। बहरहाल, विभिन्न समाज ने भी आम नागरिक को श्मशान के वैराग्य से निकालने के अपने-अपने तरीके ढूंढ़ रखे हैं। और यह परंपरा बनकर सदियों से चली आ रही है। इसके तहत विभिन्न संस्कारों व धार्मिक कर्मकांडों का विधिवत पालन करना कई बार खीझ तो पैदा करता है लेकिन साथ ही प्रियजनों को सगे-संबंधी की मौत के सदमे से बाहर भी करता है। समाज ने मौत से उत्पन्न हर पहलू को संतुलित किया है। जिंदा इंसान के दुःख-दर्द ही नहीं उसकी हर मुश्किल को आसान करने के इंतजाम कर रखे हैं। अब जैसे कि यह जानते हुए कि मौत के प्रहार से परेशान परिवार अब चूंकि घर में रोटी तो बनायेगा नहीं और जिंदा आदमी को भूख तो लगेगी, उसने ऐसी सामाजिक व्यवस्था कर दी जिसमें आस-पड़ोस के लोगों के द्वारा भोजन बनाकर भेजा जाता है। युगों से यह सामाजिक तानेबाने का एक बेहतरीन सूत्र भी हुआ करता था। लोगों के आपसी संबंध बरकरार रहते थे। एक-दूसरे पर निर्भरता भी बनी रहती थी। यह पीढ़ी दर पीढ़ी समाज के अंदर जीवन का एक हिस्सा बनकर रहा करता था। अब शहरों में तो आस-पड़ोस के लोग ऐसा करने से बचते हैं और कई बार तो पहचानने से भी इनकार कर सकते हैं। रिश्तेदारों में हर तरह की दूरियां बढ़ती ही जा रही हैं। बहुत हुआ तो अग्नि-संस्कार के लिए कुछ समय बड़ी मुश्किल से निकाला जाता है। ऐसे में कंधा देने के लिए एकत्रित हुए चार लोगों के खाने का इंतजाम भी होटल से मंगा कर किया जाता है। यह देखकर लगा कि मानो बाजार ने यहां भी मुस्कुराते हुए कहा हो ‘आस-पड़ोस या रिश्तेदार नहीं हैं तो क्या हुआ, मैं तो हूं।’ और उसने बड़ी चतुराई से अपने व्यवसाय की एक दुकान खोल ली। दूसरी ओर छोटे शहरों की भी स्थिति बहुत सुखद नहीं। महानगर के रोग के कीटाणु हर जगह बड़ी तेजी से फैल रहे हैं।
इस दिल्ली प्रवास ने कई और भी अनुभव कराये। वक्त नहीं हैं लोगों के पास। संबंध नहीं बचे। रिश्तों में गर्माहट नहीं है। यहां तक कि मौत के उपर संवेदना प्रकट करने में भी नाटकीयता की पूरी संभावना है। समय इतना तेजी से बदल चुका है कि इस अंतिम समय के लिए भी अब लोगों की भीड़ नहीं जुटती। वैसे तो अपवादस्वरूप बड़े शहरों में भी कई आत्मीय और मिलनसार लोग मिल जाएंगे। हर मुश्किल के बाद भी वे अपने कर्तव्य को निभाने से नहीं चूकते। दूसरी ओर छोटे शहरों में सामाजिक मूल्य का पतन उसी रफ्तार से देखने को मिलता है। बहरहाल, इन सभी जगहों पर किसी की मौत पर इकट्ठा हुए लोगों की संख्या व चेहरे देखकर यह आसानी से बताया जा सकता है कि मरने वाला कितना सामाजिक था, कितना लोगों से मिलता-जुलता था, कितने रिश्तों को निभाता था, कितनों से उसे प्रेम था, उसके कितने चाहने वाले थे। और सबसे बड़ी बात कि यह बड़ी आसानी से समझी व बताई जा सकती है कि वह किस तरह का व्यक्ति था। किसी व्यवसायी की मौत पर यकीनन व्यवसाय के क्षेत्र से संबंध रखने वाले लोग अधिक इकट्ठा होंगे। किसी राजनीतिज्ञ की मौत पर राजनेताओ का जमावड़ा होगा। आस-पड़ोस से बात-बात पर लड़ने वालों की मौत पर पड़ोसी भी आने से कतराते हैं। रिश्तेदारों से बैर रखने वालों की मौत पर लोग किसी न किसी तरह से बहाना बनाकर बचना चाहते हैं। यह लेनदेन का जीवन है। यहां सब कुछ जो आप देते हैं वही वापस प्राप्त होता है। और जो आप लेते हैं वही लौटाने की चेष्टा करते हैं। यह दीगर बात है कि व्यावसायिक युग ने इस सामान्य गणित को भी प्रभावित किया है और रिश्तों में भी लोग फायदा-नुकसान देखने लगे हैं। किसी रईस और प्रभावी व्यक्ति की मौत पर दिखावा करने वालों की कमी नहीं। बाजार ने जीवन के हर क्षेत्र का व्यावसायीकरण कर दिया है।
सुना था कि अस्पताल से मृत शरीर लेने से पहले डाक्टरों द्वारा पूरे पैसे ले लिये जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि बीमार व्यक्ति को भर्ती करने से पहले ही कई बार कुछ अग्रिम राशि ले जी जाती है। अब यह कहां तक प्रचलन में आ चुका है, पता नहीं। लेकिन इस बारे में मस्तिष्क हमेशा कहा करता था कि ठीक ही तो है, अगर ऐसे सभी को बिना पैसा चुकाये जाने दिया जाये तो मुश्किल हो सकती है। आखिरकार अस्पताल कैसे चलेंगे? कर्मचारियों को वेतन कैसे मिलेगा? दवाई व उपकरणों की व्यवस्था कैसे होगी? मुझे भी रिश्तेदार के मृत शरीर को अस्पताल से लेने में कई घंटे लग गये थे। औपचारिकता निभाते-निभाते मृत्यु का दुःख-दर्द स्वतः ही गायब हो चुका था। यह नये समाज की देन है। इस दौरान तमाम बिल का भुगतान करना पड़ा था। यहां तक कि आईसीयू में मृत्यु से पूर्व तक मरीज को जितनी भी दवाइयां अस्पताल से दी गई थीं, उसके पैसे भी देने थे। मन में विचार आया कि जिन दवाइयों से मरीज को बचाया नहीं जा सका, क्या उसके पैसे देने का कोई औचित्य है? व्यवसायिक ढंग से भी सोचें तो बाजार की वो सेवाएं जिनका उपयोग हम नहीं कर पाते उसे वापस करके पैसे लेने की चेष्टा करते हैं। कई बार इस बात की पूर्व में ही व्यवस्था कर लेते हैं कि अगर किसी कारण से सामान या सेवा पसंद नहीं आयी या उपयोग नहीं की जा सकी तो इसे हम वापस कर देंगे या फिर खरीदारी से पूर्व यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि कम से कम इसे बदलना संभव हो। यहां यह अजीब-सी बात लगी और फिर दिल ने कहा कि जो दवाई किसी की जिंदगी को बचा नहीं पायी अर्थात जो उपयोग ही नहीं हुई, लाभकारी नहीं हुई, उसका पैसा देना कहां तक उचित हो सकता है? यहां पर विचार-विमर्श का एक बिंदु खड़ा होता है, इस पर पक्ष-विपक्ष हो सकता है। मगर यह तो पूर्व में निर्धारित किया ही जा सकता है कि जो रोगी ठीक होकर जायें उनसे तो पूरे पैसे लिये जायें मगर जो न बच पायें कम से कम मरणोपरांत उनको कुछ हद तक बख्श दिया जाये। इसमें यह पेंच उभर सकता है कि ऐसे में गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को अस्पताल में दाखिला ही न मिले। और वह सड़कों पर इधर से उधर भागते ही मौत के मुंह में पहुंच जाये। मगर यह तो अब भी देखा जाता है कि कम बचने की संभावना वाले मरीज को प्राइवेट अस्पताल में दाखिल करने में आनाकानी की जाती है। और स्वस्थ शरीर को कई बीमारी का नाम झूठा दिखाकर हजारों की दवाई पिला दी जाती है। अजीब विडंबना है, बाजार द्वारा मौत के व्यावसायीकरण की। जिसका उत्तर भी बाजार को चलाने वाले उन शक्तिशाली हाथों को देना होगा, जिनका वक्त भी एक न एक दिन जरूर आयेगा।