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हाचिको की कहानी

भोपाल से चलकर ट्रेन जबलपुर सुबह पांच बजे पहुंचा करती थी। घर रेलवे स्टेशन के नजदीक था। इसके बावजूद सामान साथ होने के कारण अमूमन रिक्शा करना पड़ता। हल्का बैग होने पर कई बार पैदल भी चला जाता था। कालेज में छुट्टियां साल में दो बार होती थीं। और इस तरह से तकरीबन छह महीने के अंतराल के बाद ही हॉस्टल से घर जाना हो पाता था। माता-पिता को तो मेरे आगमन की पूर्व सूचना होती ही थी मगर घर के पालतू कुत्ते ‘जैकी’ को इस बारे में पता नहीं होता था। कुत्ते न तो चिट्ठियां पढ़ सकते हैं न ही टेलीफोन सुन सकते हैं। बहरहाल, जैकी मेरी स्कूली शिक्षा के दौरान घर लाया गया था। तब वो मात्र एक महीने का पिल्ला था। कुत्ते चार-छह महीने में ही बड़े होने लगते हैं। उस दौरान हमने काफी मस्ती कर रखी थी। हम साथ-साथ अकसर शाम को बागीचे में खेलते। मेरे हॉस्टल जाने से वो उदास रहने लगा था। वो तब तक प्रौढ़ अवस्था में पहुंच चुका था। महीनों बाद जब भी मैं घर आता वो खुश हो जाता। स्टेशन से निकलकर जैसे ही मैं घर की ओर चलता, कुछ फासला तय करते ही जैकी घर में इधर-उधर तेजी से घूमने लगता था। घर पहुंचने पर मां बताया करती थीं। न जाने उसे मेरे आने की पूर्व सूचना कैसे प्राप्त हो जाती थी? घर का बाहरी गेट, जो इमारत से करीबन पचास कदम के फासले पर होगा, को खोलते ही वह अपनी विशिष्ट आवाज से घर के अंदर चारों ओर दौड़ने लग पड़ता था। यह उसका तरीका था घर के अन्य सदस्यों को मेरे आगमन की सूचना देने का। और घर में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम मुझे उसी से मिलना होता था। यह एक तरह से उसका अधिकार क्षेत्र था। वो कूद-कूदकर अपने आगे के दोनों पैरों को कभी मेरे कंधे तो कभी छाती पर रखकर, लिपटता-चाटता और इस तरह पूरे उत्साह से मिलता। मेरे कपड़ों की हालत खराब हो जाया करती थी। मगर मैं उसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहता था। उसके प्यार करने का ढंग देखते ही बनता था। सबसे पहले उससे न मिलने पर वह रूठ भी सकता था और गुस्से में आकर कई बार देर तक भौंकता रहता। उसका व्यवहार उसकी भावना को प्रदर्शित करता, जो उसकी आंखों में झलकता और चेहरे से टपकता था। यह दीगर बात है कि उसको समझने के लिए दृष्टि चाहिए।

जानवरों में अपने मालिकों के प्रति विशेष लगाव की ऐसी कई कहानियां घर-घर में मिल जाएगी। बस तरीकों में अंतर हो सकता है। घर के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के मृत्यु पर पालतू जानवरों की आंखों में आंसू तक देखे गये हैं। कई बार ये खाना-पीना भी छोड़ देते हैं। यहां कुत्ते के अतिरिक्त घर में पाले जाने वाले गाय, भैंस, घोड़े आदि कुछ भी हो सकते हैं। पंछियों का व्यवहार थोड़ा भिन्न होता है। मगर वे भी अपनी संवेदनाएं अवश्य प्रकट करते हैं। इन पशु-पक्षियों के कई किस्से विश्व प्रसिद्ध हैं। कुछ एक तो लोगों की जुबान पर पीढ़ियों से चले आ रहे हैं। प्राचीन काल में राजाओं और शूरवीर सेनापतियों के वफादार घोड़ों की कहानी लोगों की जुबान पर आम हुआ करती थीं। कुछ एक इतिहास के पन्नों में दर्ज भी हो जाती थीं। कइयों ने अपने मालिकों को युद्ध में विजय दिलाई तो कई अपने मालिक के साथ-साथ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये। जो कोई मर नहीं पाते थे वो फिर दुश्मनों के पास सामान्य भी नहीं रह पाते थे। इन स्वामिभक्त जानवरों को नियंत्रण में करना भी मुश्किल होता था। कई घोड़ों व हाथियों ने अपनी जान देकर अपने मालिक की जान बचाई। कई राजा अपने वफादार घोड़ों के अलावा किसी और पर सवारी किया भी नहीं करते थे। ये विशिष्ट घोड़े-हाथी यूं तो वैसे भी खरीदे और बेचे नहीं जा सकते, मगर इन अच्छे नस्लों की कीमत बाजार में सदा से बहुत ज्यादा रही है। बहरहाल, इनकी परवरिश विशेष रूप से की जाती थी और ये तमाम उम्र अपने मालिक के साथ ही रहा करते थे। कइयों ने इनकी याद में बुत बनाये तो कइयों ने इनके नाम से किले के मुख्य द्वार और स्थान का नामकरण किया। महाराणा प्रताप का चेतक हो या एलेक्जेंडर महान का ब्यूसा फलस, ये अपने मालिकों से भावनात्मक रूप से जुड़ जाया करते थे। राणा प्रताप ने चेतक पर सवारी करके ही हल्दीघाटी युद्ध में लड़ते हुए दुश्मनों के खेमे में खलबली मचा दी थी। मुगल सेनापति मानसिंह को भी एक बार बचना पड़ा था। ब्यूसा फलस एलेक्जेंडर के कई युद्धों में विजयी होने का साक्षी रहा है। महान योद्धाओं के घोड़े भी महान होते थे। इनके कई किस्से किंवदंती बनकर आज भी लोगों के बीच प्रचलित हैं। घोड़ों के अतिरिक्त हाथी भी कई राजाओं की व्यक्तिगत पसंद हुआ करती थी। टीपू सुल्तान की हथिनी आज भी याद की जाती है। राजा-रानियों के प्रेम-प्रसंग को लेकर कबूतरों की कहानी भी कम रोचक नहीं। आम भारतीय घरों में गाय और भैंस तो पूजनीय होते ही हैं, साथ ही कई बार भावनात्मक रूप से अपने मालिक से जुड़ भी जाते हैं। ये कभी-कभी दूसरों को अपना दूध दुहने का इजाजत भी नहीं देते और तंग करते हैं। कुत्तों की तो कहानी घर-घर में देखी व सुनी जा सकती है। सड़क पर चलने वाले आवारा कुत्तों को भी अगर दिन में दो बार रोटी दे दी जाये तो तीसरी बार वह स्वयं आपके दरवाजे पर उपस्थित हो जाएगा। और कुछ ही दिनों में आपसे व्यक्तिगत रूप से जुड़ने लगेगा। बिना कहे वह आपके घर की सुरक्षा भी करेगा और आपको देखकर पूंछ हिलायेगा। ऐसे में आपके घर के बाहर उसके बैठने का स्थायी स्थान बन सकता है और इस तरह वो एक नयी कहानी गढ़ने की कोशिश करेगा। इन्हीं में से कुछ एक कहानियां अति विशिष्ट होती हैं जो फिर जन-जन में लोकप्रिय हो जाती हैं।

जापान में 1923 के आसपास एक सामान्य प्रोफेसर के घर में हाचिको नाम का पालतू कुत्ता था। यह अकीटा नाम के विशिष्ट प्रजाति का था। प्रोफेसर को अपने कुत्ते से बहुत प्यार था। प्रोफेसर प्रतिदिन घर के नजदीक स्थित रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़कर कॉलेज जाते और शाम को ट्रेन से ही घर लौटते। हाचिको उन्हें रोज छोड़ने जाता और शाम को उसी स्थान पर, स्टेशन के बाहर उनका इंतजार करता। सुबह जाना और शाम को लौटना प्रोफेसर की दिनचर्या में शामिल तो था ही, मगर उसमें अब हाचिको भी शामिल हो चुका था। आसपास के दुकानदार और रेलवे कर्मचारी भी इसे देखकर खुश होते। एक दिन प्रोफेसर सुबह-सुबह घर से निकले तो हाचिको ने उनके साथ सामान्य व्यवहार नहीं किया था। स्टेशन छोड़ने तो आया मगर उस दिन कुछ असामान्य था। उसी दिन प्रोफेसर की अपने कार्यस्थल पर मृत्यु हो जाती है और वह शाम को घर लौट नहीं पाते। मगर हाचिको उस दिन भी नियत समय पर स्टेशन पहुंचता है। लेकिन उसका मास्टर तो अब आ नहीं सकता। बहरहाल, हाचिको प्रतिदिन, आगे के नौ साल तक, रोज शाम को, उसी वक्त उसी स्थान पर बैठकर, अपने मालिक का इंतजार करता है। और अंत में वहीं उसकी मौत हो जाती है। बीच में परिवार के अन्य सदस्य घर छोड़कर चले जाते हैं मगर हाचिको वहां से कहीं भी नहीं जाता। उसकी इस वफादारी को देखकर आसपड़ोस के अन्य सदस्य भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उससे प्यार करने लगते हैं। यह खबर आसपास के क्षेत्रों में भी पहुंच जाती है। उसकी मौत के पश्चात उसका पुतला उसी स्थान पर बनाकर लगाया जाता है।

यह एक सत्य घटना है जिस पर आधारित एक लोकप्रिय फिल्म का निर्माण जापान में हुआ था। कुछ दिन पूर्व हॉलीवुड में भी फिल्म ‘हाचिको’ बनायी गई। यह एक बड़ी साफ-सुथरी, संवेदनशील व जानवरों से प्रेम करने वाले लोगों के दिल को छू लेने वाली फिल्म है। यकीनन इसमें ‘हाथी मेरे साथी’ के राजेश खन्ना और ‘तेरी मेहरबानियां’ के जैकी श्राफ की तरह के किरदार नहीं हैं। इसमें न तो नाच-गाना है, न ही आइटम सांग है, न ही हाथियों को नारियल फोड़ते और कुत्ते को स्मगलरों से लड़ते हुए दिखाया गया है। हमारे यहां असामान्य विषय/घटनाओं पर बनने वाली फिल्मों में भी मसाला भर दिया जाता है। जिसके चक्कर में मूल संवेदना खत्म हो जाती है और वो एक नौटंकी बनकर रह जाता है। हाचिको को देखने के बाद यह एक बार फिर प्रमाणित होता है कि पश्चिम हमसे सिनेमा कला में आगे क्यों है? यकीनन ये फिल्म हमें अपने-अपने जानवरों से प्रेम करने के लिए चंद मिनटों में ही मजबूर कर देती है।