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प्रतियोगी परीक्षाओं में परिवर्तन

पिछले कुछ समय से स्कूलों की परीक्षा प्रणाली पर खूब चर्चा हो रही है। परिवर्तन की बात की जाती है। कुछ परिवर्तन हुए और कुछ होने वाले हैं। इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में परिवर्तन हो रहे हैं तो नौकरी की विभिन्न चयन परीक्षाओं में बदलाव की बातें सुनी जा रही हैं। ये कदम कितने सही दिशा में हैं या नहीं, इस लेख का विषय नहीं। यह कितना आवश्यक है? सवाल नहीं किया जाना चाहिए। चूंकि परिवर्तन जीवन का मूल सिद्धांत है। हां, यहां विश्लेषण इन परीक्षाओं में सफल और असफल होने वाले छात्रों के बीच किया जा सकता है। हिन्दुस्तान की दो महत्वपूर्ण परीक्षाएं, जिसके द्वारा हिन्दुस्तान के युवाओं का सितारा रातों-रात चमक उठता है, पर चर्चा की जा सकती है। पहला, अखिल भारतीय सिविल सेवा की परीक्षाएं, जिसके माध्यम से देश के लिए आईएएस, आईपीएस और अन्य क्षेत्र के नौकरशाहों का चयन किया जाता है। अर्थात देश की शासन व्यवस्था। दूसरी परीक्षा है- कैट (कॉमन एडमिशन टेस्ट), मैनेजमेंट के शीर्ष संस्थानों में प्रवेश के लिए ली जाने वाली परीक्षा। अर्थात कार्पोरेट वर्ल्ड के शीर्ष मैनेजरों का चयन। क्या कभी इन परीक्षाओं में भाग लेने वाले और सफल होने वाले परीक्षार्थी के बीच तुलनात्मक विश्लेषण हुआ है? हुआ होगा, मगर इसके कई और भी नजरिये हो सकते हैं। सभी इस बात से सहमत होंगे कि इन परीक्षाओं में सफल होने के लिए छात्रों को बेहद मेहनत करनी पड़ती है। एक से दो साल जम कर पढ़ना पड़ता है। ये किताबों में घुसे रहते हैं। पढ़ना, पढ़ना और सिर्फ पढ़ना। यूं तो पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त समाचारपत्र-पत्रिकाएं और सामान्य ज्ञान भी पढ़ने के लिए कहा जाता है। लेकिन सभी के मूल में किताबी पढ़ाई ही होती है।

यह सच है कि जब भाग लेने वाले प्रतियोगी की अच्छी-खासी संख्या हो तो चयन के लिए कोई न कोई प्रणाली तो निकालनी ही पड़ेगी। यहां बात एक अनार सौ बीमार की हो रही है। इन लाखों छात्रों के बीच में से शीर्ष के कुछ छात्रों के चयन के लिए कोई न कोई तरीका तो निकालना ही होगा। बहरहाल, चर्चा के लिए सर्वप्रथम हमें सफल परीक्षार्थी की उपयोगिता और गुणवत्ता को परिभाषित करना होगा। यह कितना सही होगा, तर्कसंगत होगा, सदैव वाद-विवाद का विषय हो सकता है। लेकिन यहां बात हो रही है कि आज के संदर्भ में ये परीक्षाएं कितनी सार्थक हैं? इस बात का मूल्यांकन होना चाहिए। ये अवाम और राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा करने में कितनी सफल हुई हैं? इसी संदर्भ में मुझे किसी एक परीक्षार्थी की इस बात ने सोचने के लिए मजबूर किया था, वह एक होनहार छात्र होते हुए भी इन परीक्षाओं में असफल रहा था, उसका कहना था कि मात्र तीन घंटे में प्रतिभा की परख कितनी संभव है? कुछ लोगों के लिए यहां किस्मत की बात करना बेवकूफीभरा होगा। विशेष रूप से उन्हें जो इन परीक्षाओं में सफल रहे हैं। वे स्वयं को इन परीक्षाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ और एकमात्र उपयोगी उम्मीदवार साबित करने का प्रयास करेंगे। लेकिन यह सवाल उन छात्रों से पूछो, जो प्रतिभावान होते हुए भी बिना किसी विशिष्ट कारण के सिर्फ इसलिए चूक गए क्योंकि परीक्षा के दौरान अचानक ही या तो उनकी तबीयत खराब हो गई या फिर परीक्षा से ठीक पहले घर-परिवार-समाज में कोई ऐसा हादसा हुआ जिससे वह विचलित हो गए थे। ये हमारे वश में नहीं, इसलिए इन पर चर्चा करना मूर्खता होगी। मगर उन बातों को तो गौर कर ही सकते हैं जो हमारे नियंत्रण में हैं और जिन पर ध्यान दिया जा सकता है। मसलन वे स्वयं को प्रस्तुत करने की कला में माहिर न होने का खमियाजा भी भुगत रहे थे। यहां सवाल उठता है कि क्या प्रतिभाएं मात्र एक परीक्षा के माध्यम से ही परखी जा सकती हैं? वो भी किताबी अध्ययन पर आधारित? यह इस बात की ओर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है कि इसके माध्यम से चुने गये परीक्षार्थी व्यावहारिक रूप से कितने उपयोगी और सफल सिद्ध हो सकते हैं?

पहले हम बात करते हैं अखिल भारतीय परीक्षाओं की। इसके माध्यम से जिले के कलेक्टर, पुलिस कप्तान, इनकम टैक्स कमिश्नर आदि, संक्षिप्त में कहें तो भविष्य के शासन व्यवस्था में बैठने वाले शीर्ष नौकरशाहों का चयन होता है। अब गौर करें, आज की परिस्थिति में, एक पुलिस कप्तान को क्या करना होता है? आज का अपराधी सामान्य व्यक्ति नहीं रह गया। आज आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी संगठित विचारधाराएं काम करती हैं। इनका लक्ष्य केंद्रित है और ये चतुर-चालाक व्यक्तियों का समूह बनता जा रहा है। ये शारीरिक और मानसिक रूप से सुदृढ़ और अपनी विचारधारा के प्रति समर्पित होते हैं। ये आर्थिक और राजनैतिक रूप से शक्तिशाली हैं। ये भावनात्मक रूप से भी मजबूत हैं। ये अच्छे वक्ता होते हैं। ये लोगों को अपनी बातों के जाल में फंसाना जानते हैं। इनमें से कुछ दर्शनशास्त्री व चिंतक भी हैं और उच्चस्तर पर पढ़े-लिखे भी। यह दीगर बात है कि ये सब भ्रमित हैं, मगर कई अपने-अपने क्षेत्र के सूरमा हैं। वो जमाने गए जब ये सिर्फ बंदूकों-तलवार से जंगलों में लड़ा करते थे या चाकू-छुरी से शहर की छोटी-मोटी गुंडागर्दी किया करते थे। अब इनका जाल व सूचनातंत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैल चुका है। इनके कई रूप हैं जिन्हें पहचानना अपने आप में एक चुनौती है। यहां सवाल उठता है लिखित परीक्षाओं में अव्वल नंबर लेने वाला युवक क्या इन संगठित मजबूत इरादों वाले असामाजिक तत्वों के सामने खड़ा हो सकता है? और फिर बात यहां सिर्फ खड़े होने की नहीं है, क्या वो इन्हें नियंत्रित कर सकता है? क्या इनसे व्यावहारिक रूप से धरातल पर लड़ सकता है? कुछ लोग कह सकते हैं कि हमें पंजा लड़ाने वाला पहलवान का चयन नहीं करना है। यह सच है। लेकिन क्या सिर्फ किताबी ज्ञान से यह बात सुनिश्चित हो जाती है कि चयन किये जाने वाला सफल उम्मीदवार शारीरिक मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत हो? यकीनन इसकी संभावना कम ही होगी। इतिहास-भूगोल आदि का ज्ञान पढ़कर एक व्यक्ति अर्थशास्त्र, विधि और विज्ञान की बात तो कर सकता है परंतु विश्व में फैले हुए अपराधी व संगठित गिरोह का, जिसने कई मुखौटे चढ़ा रखे हैं, सामना करने में समर्थ हो, जरूरी नहीं। आज का समाज हर क्षेत्र में आगे बढ़ चुका है। यह विविधता लिये हुए है। वर्तमान काल की मुश्किलें भी कई रूपों में सामने आ रही हैं। विकास की नयी परिभाषा गढ़ी गयी है। ऐसे में, जिले का जिलाधीश, क्या सिर्फ भाषा और गणित की किताब पढ़कर नेतृत्व प्रदान कर सकता है? शेक्सपियर का साहित्य या स्थानीय किसी भी भाषा की श्रेष्ठ कविता इसका जवाब नहीं दे सकती। आधुनिक युग में परिस्थितियां और घटनाएं तेजी से घटती हैं, स्वाभाविक है इनको नियंत्रित करने वाला भी उतना ही तेजी से चलने वाला हो। क्या करोड़ों के घोटालों की तह तक जाने में एक किताबी छात्र सफल हो सकता है? क्या वो इसे रोक पाने की योग्यता वाला अधिकारी बन सकता है? इसमें कोई शक नहीं कि इन परीक्षाओं से निकलने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से एक होनहार छात्र होता है मगर उसका व्यक्तित्व संपूर्णता से भरा हुआ भी होगा, यह दावे से नहीं कहा जा सकता। यह कहना भी कि, एक सफल छात्र को ट्रेनिंग के दौरान ऐसी शिक्षा दी जाती है कि वह इन कार्यों के लिए अनुभवी हो जाता है, गलत होगा। क्योंकि नैसर्गिक प्रतिभाओं से सिर्फ अनुभव प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता। क्या यह ठीक नहीं होगा कि इन शक्तिशाली और उच्च पदों के लिए सर्वगुण संपन्न और ऊर्जावान युवाओं का चयन हो। ऐसी प्रणाली विकसित की जाए कि समाज के हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने वाले का चुनाव हो।

मैनेजमेंट संस्थाओं के चयन प्रक्रिया की बात करें तो, इसमें अमूमन अंग्रेजी भाषा के ऊपर बहुत जोर दिया जाता है। यहां सवाल उठता है कि क्या सिर्फ भाषा से प्रबंधकीय बारीकियां समझी व समझायी जा सकती हैं? क्या सिर्फ भाषा के द्वारा प्रबंधन किया जा सकता है? या यूं कहें कि क्या सिर्फ भाषा के माध्यम से किसी कारखाने का उत्पादन और विक्रय बढ़ाया जा सकता है? किसी संस्था के लाभ में भाषा का कितना योगदान हो सकता है? यह एक अव्यवहारिक बात लगती है। यह सच है कि हम भाषा के माध्यम से अपनी बातों का आदान-प्रदान बेहतर ढंग से कर सकते हैं। मगर उसके लिए सिर्फ अंगे्रजी का ज्ञान होना ही आवश्यक क्यों? हमारे देश के बुद्धिजीवी वर्ग इस बात का तत्काल उत्तर देंगे कि विश्व व्यापार के लिए अंग्रेजी आवश्यक है। मगर यहां सवाल उठता है कि आपको अपना माल किसे बेचना है? बाजार में करोड़ों हिन्दी और चीनी भाषा बोलने वाले लोग हैं। आपके अधीनस्थ कार्य करने वाले लोग भी स्थानीय भाषा में ही बातचीत करते हैं फिर भी सिर्फ अंग्रेजी की बात करना कहीं एक धोखा तो नहीं? कहीं ये समाज के गिने-चुने लोगों द्वारा प्रभुत्व बरकरार रखने की साजिश तो नहीं? मूल बात है कि सिर्फ भाषा से ही प्रबंधन बिल्कुल नहीं हो सकता।

एक अच्छे प्रबंधक के पास नेतृत्व का गुण होना चाहिए। उसका एक लक्ष्य होता है। दूरदर्शिता होनी चाहिए, समय के साथ चलना, लोगों को साथ लेकर चलने की कला होनी चाहिए। आदमी के समूहों को प्रभावित करना आना चाहिए। मेहनती, समझदार, भावुक व संवेदनशील मगर किसी भी रूप में कमजोर नहीं। सोलह-कला संपन्न। मैनेजमेंट एक नैसर्गिक कला है। यह नेताओं अभिनेताओं में भी पायी जाती है। कोई भी शैक्षणिक संस्थान स्वाभाविक मैनेजर पैदा नहीं कर सकती। इसके द्वारा अच्छे मैनेजर में सिर्फ निखार लाया जा सकता है। संस्थायें एक क्लर्क तो बना सकती हैं लेकिन नेतृत्व प्रदान करने वाला कुशल अधिकारी नहीं। इसीलिए हिन्दुस्तान में ही नहीं विश्व उद्योग को खंगाल कर देख लें, जिन व्यक्तियों ने इतिहास रचा अर्थात मिट्टी से उठकर महल खड़ा किया, वो किसी मैनेजमेंट संस्थान के छात्र नहीं थे। फिर चाहे वह हमारे धीरूभाई अंबानी हों या फिर मुंबई स्थित टिफिन वालों का व्यापारिक समूह। यहां इन प्रतिभाओं को व्यावहारिक ज्ञान अधिक होता है। दूसरी ओर रईसों के बच्चों ने बड़ी-बड़ी संस्थाओं से डिग्री लेकर कोई विशेष तीर नहीं मारा। कइयों ने अगर अपने बाप-दादा की जागीर को किसी तरह से चलाया है तो कइयों ने उसे डूबा भी दिया।

हमें समय के हिसाब से अपनी चयन प्रक्रियाओं में समय-समय पर परिवर्तन करना होगा। हमें ऐसी चयन प्रक्रिया को अपनाना होगा जो सही प्राकृतिक प्रतिभाओं को, गांव की बस्तियों तक से निकाल सके। सचिन तेंदुलकर से लेकर पीटी उषा तक, ध्यानचंद से मिल्खा सिंह भी, किसी एकेडमी या संस्थान द्वारा पैदा नहीं किए जाते। यहां उन चयनकर्ताओं की पारखी निगाहें थीं जिन्होंने इन्हें भीड़ में से पहचान कर अलग किया।