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स्थायित्व बेगारी पैदा करता है
खड़ा पानी सड़ने लगता है। मच्छर भी पैदा करता है। यह आसपास के क्षेत्र में रहने वालों में मलेरिया फैलाने का कारण बनता है। काई भी उत्पन्न हो जाती है। जिस पर चलने से आदमी फिसल सकता है। इस पानी को पीने का तो सवाल ही नहीं। लेकिन फिर जब यही पानी नदी-झरनों में निरंतर बहता रहता है तो पीने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व मानवीय सभ्यता के लिए हर रूप से उपयोगी साबित होता है। कहते भी हैं, आगे बढ़ते रहना ही जिंदगी है, जो रुक गया वो खत्म हो गया। इस तथ्य को सामाजिक जीवन में रखकर भी देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ देखें तो शासकीय नौकरी में स्थायित्व अधिकारी-कर्मचारियों में जंग लगा देता है। यहां स्थायित्व दो प्रकार का हो सकता है। एक, स्थायी नौकरी के संदर्भ में, दूसरा, एक ही स्थान पर सालों-साल पदस्थ रहना। दोनों ही हर लिहाज से नुकसानदायक और बेगारी पैदा करते हैं। चूंकि नौकरी से निकाले जाने का डर नहीं होता, इसलिए आलस्य उत्पन्न होने की प्रबल संभावना होती है। ऐसे में नैसर्गिक क्षमताओं का सदुपयोग नहीं होता। उलटे यहां हर स्तर पर निष्क्रियता फैलती है। यही नहीं, कर्मचारियों-अधिकारियों की ऐसी मानसिक अवस्था कभी-कभी व्यवस्था के लिए अत्यंत हानिकारक तक बन जाती है। खाली दिमाग शैतान का और लोग अनावश्यक राजनीति करने लग पड़ते हैं। शायद यही एक कारण है जो अधिकांश शासकीय संस्थानों का बेड़ागर्क हुआ पड़ा है। सरकारी कारखाने, निगम व कंपनी चाहे डूब जाएं या घाटे में चली जायें मगर कर्मचारियों-अधिकारियों को तनख्वाह मिलती रहती है। है न घोर अराजकता! अवाम के पैसे को बर्बाद करने का एक रास्ता!! माना कि स्थायित्व सुरक्षा व संतोष के साथ निडरता व निष्पक्षता पैदा करने में सहायक होता है, जो शासकीय अधिकारी-कर्मचारी के लिए आवश्यक है, मगर किस कीमत पर? वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण इस पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करता है। इसे व्यक्ति के साथ-साथ वृहद् समाज के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। दूसरी ओर, अस्थिरता तनाव जरूर पैदा करती है, मगर व्यक्ति अपना श्रेष्ठ देने के चक्कर में सदैव प्रयासरत रहता है। कहा भी जाता है, सीमित तनाव बेहतर परिणाम देते हैं, व्यक्तित्व का विकास होता है। अगर स्थायित्व शिथिलता प्रदान करता है, तो अस्थायी परिस्थिति चलायमान होती है। क्या वजह है कि अधिकांश स्थायी अधिकारी और कर्मचारी अपने अधीनस्थ अस्थायी चपरासी, नौकर या ड्राइवर रखना चाहते हैं? सरल शब्दों में कहें तो उनका भरपूर दोहन करना आसान होता है। उनसे अतिरिक्त, अनावश्यक और व्यक्तिगत कार्य भी कराया जा सकता है। अस्थायी कर्मचारी अमूमन चापलूस व डरपोक होता है। उससे स्वतंत्र विचार व दृष्टिकोण के साथ ही विरोध की उम्मीद करना बेमानी होगी। बहरहाल, दोनों पक्ष को मद्देनजर रखते हुए यहां सवाल उठता है कि शासकीय नौकरी में स्थायित्व किस हद तक जरूरी है?
शासकों का विश्लेषण करें तो राजा को राजगद्दी का स्थायित्व भाव ही बेपरवाह बनाता है। यही आगे चलकर निरंकुश व क्रूर प्रशासक बनने में सहायक होता है। क्या वजह है जो प्रजातंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों को एक समय-सीमा के बाद पुनः जनता के बीच जाना होता है? प्रजातंत्र निर्माण प्रक्रिया के मूल तर्क में जायें तो यही उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है। यहां प्रजातंत्र का शासक अस्थायी होने का प्रतीक है। और यही कारण है जो वो अन्य शासन व्यवस्थाओं से बेहतर परिणाम देने में सफल हुआ है। कई विश्लेषणों में यह बात उभरकर आती है कि प्रजातंत्र के दुष्परिणाम के लिए नौकरशाह अधिक जिम्मेदार हैं। जो स्थायित्व का सबसे बड़ा उदाहरण है।
पत्रकारिता में स्थायित्व कुछ हद तक दबंगता एवं निष्पक्षता के साथ-साथ सत्यता के लिए भी आवश्यक है। आर्थिक व सामाजिक रूप से सुरक्षित व स्थापित पत्रकार ही सच लिखने का दम भर सकता है। जो खुद ही कमजोर व अस्थिर हो वो किसी ताकतवर के गलत कामों के विरोध में कैसे लिख सकता है? मगर फिर स्थायित्व की अति उसे निरंकुश भी बना सकती है। और वो अमूमन व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से लेकर आरोप-प्रत्यारोप के मक्कड़जाल में उलझकर रह जाता है। कई बार तो वह अपने अहम् के तुष्टिकरण में लग जाता है। ऐसे में उसे लगता है कि उसका बोला शब्द ब्रह्म होना चाहिए और जो वो लिख रहा है वही सत्य है। उम्र के साथ-साथ यह परेशानी एक बीमारी का रूप धारण कर लेती है। कई वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा बड़े सुलझे हुए शालीन व परिपक्व राजनीतिज्ञों की भी जबरन बेइज्जत करते हुए देखा जा सकता है। अगर पत्रकार कनिष्ठ और अनुभवहीन है तब भी गुस्सा कर सकता है, चिल्ला सकता है, ऊट-पटांग सवाल भी पूछ सकता है, मगर उत्तर देने वाले राजनीतिज्ञ का चुप रहना अपेक्षित होता है। उसकी थोड़ी-सी भी अतिरिक्त प्रतिक्रिया को सहजता से नहीं लिया जाता। बहरहाल, स्थायित्व की यही एक विडम्बना नहीं है। कई पाठकों की राय है कि नामी स्तंभकार तक अपने स्थायी कॉलम से कूड़ा-कर्कट पैदा करते हैं। अब वो भी क्या करें, इन्हें हर सात दिन के अंदर अखबार की सुनिश्चित जगह को शब्दों से काला करना होता है। ध्यान से देखें तो किसी मुद्दे पर गहराई से लेख लिखने के लिए एक सप्ताह पर्याप्त नहीं। और फिर सालों-साल निरंतर लिखते रहने से विचारों में शिथिलता आने का अंदेशा बना रहता है। ऊपर से हारी-बीमारी, घूमना-फिरना, घर परिवार के काम समय ले लेते हैं। कई बार पढ़ने-पढ़ाने का मौका न मिलने पर जल्दबाजी में यूं ही कुछ लिखा जाता है। पाठकों द्वारा इस बात की शिकायत अमूमन की जाती है कि स्थायी स्तंभ लिखने वाले कई स्तंभकारों के लेखों में पक्षपातपूर्ण रवैया होता है। तर्क प्रासंगिक और स्पष्ट नहीं होते। कोई चिंतन नहीं, कोई विचारधारा नहीं, कोई सोच नहीं, कोई विश्लेषण नहीं। अच्छा लेख तो कभी-कभी ही पढ़ने को मिल पाता है। उधर, लिखने वाले के दिमाग में निश्चित समय के भीतर लिखने का दबाव होता है। यहां उसकी मानसिक वैचारिक स्वतंत्रता में समय बाधक बन जाता है। ऐसे में लेख के साथ कई बार पूरा न्याय नहीं हो पाता। चिंतन-मनन एक तपस्या है, समय से परे बंधन-मुक्त प्रक्रिया है। जल्दबाजी में लेखन खानापूर्ति बनकर रह जाता है। समाज की दिशा और दशा का विश्लेषण कहीं पीछे छूट जाता है। लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि तब होती है जब पाठक स्वयं को उससे जोड़ सके और विचार संदर्भित लगे। लेकिन अधिकांश साप्ताहिक कॉलम में आज यह बिलकुल विपरीत और यथार्थ से परे लगता है। इनमें ऐसा कुछ नहीं होता जो हमें विचलित कर सके। यह बीमारी अन्य भारतीय भाषाओं या हिन्दी में ही नहीं, तथाकथित विद्वानों द्वारा बोली जाने वाली अंग्रेजी में भी देखी जा सकती है।
उपरोक्त संदर्भ में यहां कुछ स्तम्भकारों पर भी टिप्पणी की जा सकती है। अब चूंकि ये दूसरों का विश्लेषण करते नहीं थकते तो इन्हें स्वयं की भी आलोचना सहर्ष स्वीकार करनी चाहिए। वे प्रतिकूल टिप्पणी को भी स्वस्थ रूप से लेंगे ऐसी उम्मीद इन सभ्यजन से तो की ही जा सकती है। आज की तारीख में अंग्रेजी के कई स्तंभकार हिंदी में भी बराबरी से छप रहे हैं। उनमें से एक वयोवृद्ध वरिष्ठ, लोकप्रिय व रईस स्तंभकार हैं। इन्हें पाठक द्वारा कितना गंभीरता से लिया जाता है, यहां चर्चा का विषय नहीं। उनके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता की बात करें तो उन्होंने जैसा देखा व महसूस किया उसे ज्यों का त्यों अपने लेख में पेश कर देते हैं। उसमें किसी प्रकार का लार-लपेट नहीं होता, आडंबर नहीं। लेकिन सब कुछ व्यक्तिगत दृष्टिकोण होता है जिसे आम विचारधारा बनाने की कोशिश की जाती है। इसमें कोई शक नहीं कि इनकी शैली रोचक होती है। कई बार लेख आधुनिक ग्लैमर एवं अभिजात्य वर्ग की किसी विशिष्ट नारी पर केंद्रित होता है जिस पर संबंधित महिला आत्ममुग्ध हो सकती है। लेकिन साथ ही इनके लेखों के माध्यम से इनके पारिवारिक सदस्यों से लेकर घरेलू पालतू जानवरों तक के बारे पता चलता रहता है। लेख पढ़कर कोई भी यह जान सकता है कि अब इनके घर के पिछवाड़े में स्थित पेड़ों में कौन-सा फल और फूल गिरने या लगने वाला है। कौन-सा विशिष्ट व्यक्ति इनके साथ बैठकर स्कॉच पीने वाला है। कई बार यह नीरसता प्रदान करता है और पाठकों में उकताहट पैदा करता है। यहां विशेष उल्लेखनीय बात है कि वो कई बार अपने लेखन में मृत व्यक्ति की चर्चा करते हैं। दुर्भाग्यवश दिवंगत आत्मा अपना पक्ष रखने के लिए उपस्थित नहीं हो सकती। इसी राह पर आगे बढ़ते हुए एक और अंग्रेजी स्तंभकार हैं जो हिन्दी अखबारों में भी अब नियमित छपने लगे हैं। दृश्य मीडिया में शब्दों के साथ-साथ चेहरे पर कठोरता इनकी पहचान जरूर है मगर साप्ताहिक कॉलमों में कई जगह अंग्रेज और अंग्रेजी से अंधा-प्रेम छिपता नहीं। हिंदी समाचारपत्रों में छपने के कारण अब पश्चिम की गौरव-गाथा को अंग्रेजी के अलावा हिन्दी का पाठक भी पढ़ने के लिए मजबूर होगा। अंग्रेजी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए अंग्रेजों को इससे बढ़िया प्रतिनिधित्व करने वाला हिन्दुस्तानी नहीं मिल सकता। हिन्दी के जाने-माने नौकरशाह कवि साप्ताहिक लेखों में अमूमन अपनी निजी यात्रा का वर्णन करते हैं। मगर इन लेखों में अपने दोस्तों पर विशेष कृपा-दृष्टि रखना नहीं भूलते। और नापसंद लोगों को प्यार से ही सही, फटकारने से नहीं चूकते। इनके स्तंभ में एक वरिष्ठ नौकरशाह के स्थायित्व से उत्पन्न अहम् की बू आती है। मगर फिर ऐसे में निष्पक्ष विचारों को स्थान कैसे मिल सकता है? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है। उपरोक्त सभी लेखों में, स्तंभ के शाब्दिक अर्थ की तरह जड़ता का अहसास होता है। एक विशिष्ट सोच के कारण खुलापन नहीं मिलता।
और भी उदाहरण होंगे। फिल्म समीक्षकों में कुछ एक स्थायी नाम हैं। इनके व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को पाठकों को झेलना पड़ता है। इनके द्वारा अच्छी फिल्मों को फ्लाप घोषित किये जाने के कारण कई दर्शक फिल्म देखने नहीं जाते। यही नहीं, कई बार संपादकों के लिए उनके अखबार में कुछ ज्यादा ही बड़ा स्थान रख दिया जाता है। यह सुनिश्चित होता है। चूंकि संपादकों के पास वक्त नहीं होता तो अमूमन सहयोगियों द्वारा संपादकीय लिखा जाता है। यहां एक ही बात को बार-बार अलग-अलग तरह से लिखकर काम चलाया जाता है, जिससे किसी तरह से जगह भरी जा सके। यह पेड-न्यूज छापने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व सुरक्षित स्थान है। यूं तो एक ही पक्ष को लिखना हास्यास्पद लगता है। लेकिन ऐसा निरंतर लिखा जा रहा है।
स्थायित्व से उत्पन्न होने वाले नकारात्मक प्रभाव को अन्य क्षेत्रों में भी बराबरी से देखा जा सकता है। यह महामारी का रूप लेता जा रहा है और संक्रमण की तरह तेजी से फैल रहा है। चाहे वो शासन व्यवस्था और उसकी संस्थायें ही क्यों न हो! समाज और संस्कृति में भी बदलाव आवश्यक है। अन्यथा रूढ़िवादी होने के आरोप लगने लगते हैं। परिवर्तन जीवन का सिद्धांत और समय की पहचान है। हमें समाज के हर क्षेत्र में बदलाव की आवश्यकता है जो समय-समय पर किया जाना चाहिए। वरना खड़े पानी की सड़न और बदबू से हम बच नहीं सकते।