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मातृभाषा का प्रभाव
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ने वाले हिंदी भाषी छात्रों के गणित और विज्ञान में कमजोर होने की बात अकसर की जाती है। आमतौर पर वे अंग्रेजी में इसे रटते पाये जाते हैं। यह कुछ हद तक सच भी है। यहां ज्ञान को समझकर ग्रहण करने में विदेशी भाषा बाधक बनती है। परिस्थितिजन्य सामाजिक व आर्थिक मुश्किलों के बावजूद हिंदी एवं स्थानीय भाषा में पढ़ने वाले छात्र विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर परिणाम देते हुए देखे जा सकते हैं। अगर इन आम घरों के सामान्य बच्चों को उचित अवसर और समुचित वातावरण प्राप्त हो तो ये आश्चर्यजनक परिणाम दे सकते हैं। वर्षों से विशिष्ट वर्ग द्वारा जनित व पोषित अंग्रेजी के प्रभुत्व से बाहर निकलकर देखें तो इस सत्य व तथ्य के और भी कई कोई रोचक पहलू नजर आयेंगे। हिंदी मीडिया की टीआरपी का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ा है। हिंदी समाचारपत्र की प्रचार संख्या अंग्रेजी से बहुत आगे निकल चुकी है। पिछले कुछ वर्षों में हालत इतने बदल चुके हैं कि अंग्रेजी के बड़े से बड़े अंध-समर्थक लेखक-चिंतक भी हिंदी जगत में लिखने-दिखने के लिए आतुर नजर आते हैं। अंग्रेजी में दिन-रात सोने-खाने वाला यह वर्ग अब हिन्दी में बोलने के लिए मजबूर है। बाजार को किसी से मतलब नहीं, वो तो सिर्फ और सिर्फ लाभ की भाषा जानता है, तभी तो विज्ञापन के क्षेत्र ने भी हिंदी को अपना लिया है। यह दीगर बात है कि हिंदी से खाने-कमाने वाला बॉलीवुड अंग्रेजी नाम की सांसें लेता है। लेकिन यह भी सच है कि ऐसे जबरन थोपे गये अंग्रेजपरस्त कलाकार हिंदी भाषा की अज्ञानता व कमजोरी के कारण ही सफलता की वो उंचाइयां हासिल नहीं कर पाते जो वे प्राप्त कर सकते थे। संक्षिप्त में कहें तो स्थानीय भाषा का वर्चस्व बढ़ा है।
राजनीतिज्ञों को तो जनता से सीधे संपर्क साधने के लिए मजबूरीवश उनकी भाषा में ही बात करनी पड़ती है। असल में स्थानीय भाषा में ही अवाम के दिल को पढ़ा जा सकता है। जो राजनेता ऐसा नहीं करते वे हवा-हवाई बनकर रह जाते हैं। इतिहास गवाह है, क्रांतियां और आंदोलन भी देशी भाषाओं में ही अंगड़ाई लेती हैं। नारे और देशभक्ति गीत मातृभाषाओं में ही लिखे जाते हैं। सरल शब्दों व स्पष्ट अर्थों में ही इनकी लोकप्रियता का राज छिपा होता है। इन शब्दों का भावार्थ जब सीधे दिलोदिमाग को झकझोड़ता है तो अवाम एकजुट होकर सड़कों पर उतर आता है। इन शब्दों में छिपे मूल विचार अपनी भाषा में होने के कारण सीधे-सीधे समझ आते हैं जो फिर जन-जन को उद्वेलित करते हैं। साथ ही आक्रोशित और क्रोधित भी करते हैं। दया और दुआ भी दिल की भाषाओं में ही ली और दी जाती है। प्यार और दुश्मनी व्यक्त करने के लिए भी अपने ही शब्द अधिक प्रभावशाली होते हैं। करुणा अपने शब्दों में ढलकर ही हृदय को छूती है और आंखों से आंसू बनकर बहने लगती है। अपनी भाषा में देखी जाने वाली फिल्मों में ही सिनेमाघरों के अंदर सिसकियों की आवाज आती है तो ठहाके भी यहीं लगते हैं। क्या आपने किसी अंग्रेजी फिल्मों में खुलकर हंसते और रोते हुए भारतीय दर्शकों को देखा है? नहीं देखा होगा। हां, यह अमूमन धीरे से फुसफुसाते और मुस्कुराते हैं। और अपनी कमजोरी छिपाने के लिए इसे ही सभ्यता का नाम दे दिया जाता है। फिल्मी गाने अपनी भाषा में ही गुनगुनाये जाते हैं। गीत मातृभाषा में ही याद हो पाते हैं। लोकगीत ठेठ स्थानीय भाषा में सालों साल पीढ़ियों में जिंदा रहते है। इन्हें याद करने और रखने के लिए किसी विज्ञापन एजेंसी की जरूरत नहीं पड़ती। स्थानीय गीत रुलाते हैं तो यही सोचने के लिए मजबूर भी करते है। आनंद का अहसास और प्रेम की पराकाष्ठा इन्ही के माध्यम से संभव है। इनकी अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही अपना रंग दिखाती है। विदेशी गानों को रट के कुछ पल के लिए चहका और बहका तो जा सकता है मगर उन गीतों से उत्पन्न मस्ती व जोश स्थायी नहीं होता। सारी भावना यंत्रवत् लगती हैं। जबकि अपनी भाषा में लिखा व गाया गया गीत-संगीत दूध में शक्कर की तरह घुलकर शरीर में प्रवेश करते ही लहू में दौड़ने लगता है। यह जीवन की अनुभूति कराता है और कोशिकाओं में तरंग उत्पन्न कर देता है।
इतिहास गवाह है, किसी भी देश ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं लड़ी। हिंदुस्तान में भी महात्मा गांधी इसलिए अधिक सफल और लोकप्रिय हुए क्योंकि वो अन्य समकालीन नेताओं के विपरीत अपनी भाषा में बात कर अवाम से सीधा संपर्क साधते थे। आज भी अंग्रेजीपरस्त अधिकांश नेता आमतौर पर राज्यसभा के लिए नामित हो पाते हैं जबकि दूसरी तरफ लोकसभा के लिए जनता द्वारा सीधे चुने हुए राजनीतिज्ञ अपनी-अपनी भाषा में ही बात करते हुए देखे जा सकते हैं। वर्तमान लोकप्रिय नेताओं की सूची में भी वही लोग शामिल हैं जो देशी भाषाओं में बात करते हैं। क्या ही अच्छा होता जो हमारी न्यायिक संस्थायें स्थानीय भाषा में कार्य करतीं। बेगुनाह कम से कम अपनी बात आसानी से रख तो पाते। उन्हें भाषा और शब्दों के माध्यम से गुनहगार साबित करने में मुश्किल होती। ऐसा ही कुछ अन्य प्रजातांत्रिक संस्थाओं में भी हो जाता तो शायद सारा शासन-तंत्र जनप्रिय हो सकता था। इन सब तथ्यों के बावजूद भी हमारा स्थानीय भाषा से दूरी बनाये रखना एवं अंग्रेजी के प्रति प्रेम समझ से परे है। जबकि सभी शासकीय व्यवस्थाओं में शासक के द्वारा स्थानीय भाषा का प्रयोग हर लिहाज से बेहतर साबित होता है। यह प्रभावकारी, असरदार, दूरगामी और सरल व सुगम होता है। इससे शासन सुचारु रूप से चलाया जा सकता है। अवाम तक अपनी बात आसानी से पहुंचायी जा सकती है। आम जनता के असंतोष को समझा और समझाया जा सकता है। उससे सार्थक बातचीत की जा सकती है। इन सबके बावजूद हिंदुस्तान का सिंहासन अगर अंग्रेजी शब्दों से घिरा पाया जाता है तो आश्चर्य होता है। शासक और शासित के बीच की दूरी, जो आज एक खाई में परिवर्तित होती नजर आ रही है, उसके पीछे विदेशी भाषा एक प्रमुख कारण दिखाई देती है। अवाम की पीड़ा को समझने के लिए उसकी भाषा को अपनाना जरूरी होता है। हर एक परिस्थिति में संपर्क स्थापित करना आसान होता है। उसके दुखदर्दों पर मरहम लगाने के लिए प्यार के दो बोल जरूरी हैं। ऐसे शब्द किस काम के जो उसे समझ ही न आये। यह तो वही मिसाल हुई कि भूखा रोटी के लिए तरस रहा है और उसे केक खाने के लिए कहा जा रहा है।
अन्ना का सफल जन-आंदोलन मातृभाषा प्रयोग का जीवंत उदाहरण बन सकता है। क्या वास्तव में देशी भाषा का उपयोग और पारंपरिक नारों के प्रयोग ने इसे लोकप्रिय करने में अहम भूमिका निभाई? इसका उत्तर वर्तमान के सामाजिक व राजनीतिक नेतृत्व के लिए मार्गदर्शन का काम करेगा।