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शासित और शोषित
किसी-किसी शब्द के साथ पूरा इतिहास खड़ा नजर आता है। और हम उसे शब्दार्थ की जगह भावार्थ के साथ अधिक लेते है। चूंकि भाव हमारे दिल को छूते हैं। मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करते हैं। और इसी कारण से संबंधित शब्द संवेदनशील भी बन जाते हैं। इनका उपयोग सावधानीपूर्वक करना पड़ता है। जरा-सी चूक समाज में हलचल पैदा कर सकती है। तूफान खड़ा कर सकती है। इसके ठीक विपरीत अपवादस्वरूप ही सही, कुछ एक शब्द भावार्थ में अति संवेदनशील होते हुए भी सतही शब्दार्थ के साथ ही दैनिक बोलचाल में खूब चलते हैं। अर्थात स्वीकार्य होते हैं। शोषित में शोषण शब्द का भावार्थ जुड़ा होना हमें आंदोलित करने का कारण बनता है। और इसकी वजह बड़ी सीधी है, शोषण शब्द के साथ हमारी पीड़ा जो जुड़ी है, यातनाओं-अत्याचारों से पूरा इतिहास भरा पड़ा है। समय के साथ इस संदर्भ में कई लोकथायें प्रचलन में हैं तो कई कहानियां सुनी सुनाई जाती हैं। जो कई बार भ्रांतियां तो पैदा करती हैं मगर भुलाई नहीं जा पाती। क्या करें, इन घावों को समय भी कभी पूरी तरह से भर नहीं पाता। ये जख्म नासूर बन जाते हैं, शारीरिक-मानसिक शोषण से उत्पन्न दुःख-दर्द लोगों की यादों में पक्के तौर पर अंकित हो जाते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं। शायद यही एक प्रमुख कारण है कि जहां भी शोषण दिखाई देता है, चिंगारी सुलगने लगती है और हम कुछ भी करने पर उतर आते हैं। दूसरी ओर, यूं तो शासित होना, कहीं न कहीं हमारी गुलाम प्रवृत्ति की ओर ही इशारा करता है मगर हम खुशी-खुशी इसे स्वीकार करते हैं। यह दीगर बात है कि शासन व्यवस्थाओं को उखाड़ फेंकने के लिए हमने मानवीय इतिहासक्रम में कई क्रांतियां कीं, संग्राम किये, शासक को सत्ता से बेदखल किया, लेकिन फिर तुरंत ही दूसरे को राजसिंहासन पर बिठाकर पुनः स्वयं को शासित बनाया। विडंबना है। इसे हमारी बौद्धिक परिपक्वता में जटिलता के एक छोटे से उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है।
शासन व्यवस्थाएं कोई भी हों, संचालक और संचालित दो वर्ग हमेशा उभरकर आता है। सीधे शब्दों में कहें तो शासन व्यवस्था ने शासक और शाषित को जन्म दिया है। ये जुड़वा बच्चे हैं, लेकिन एक-दूसरे से एकदम भिन्न। एक ही सिक्के के दो पहलू के समान हैं, कहना बेहतर होगा। शासक होगा तो शासित भी होगा और अगर कोई शासित है तो यकीनन शासक भी होगा। फिर चाहे वो किसी भी रूप में हो। इसे कुछ इस तरह से भी कहा जा सकता है कि अगर शासन व्यवस्था है तो शासक और शासित दोनों होंगे। फिर चाहे शासन राजा-महाराजाओं का हो, तानाशाह का हो या फिर प्रजातांत्रिक व्यवस्था ही हो। यहां पर सभी शासन व्यवस्थाओं को साथ-साथ एक ही कठघरे में खड़ा करने पर थोड़ी मुश्किल हो सकती है। विशेष रूप से प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्थाओं के समर्थकों को यह स्वीकार्य नहीं होगा। मगर सच तो यही है कि अगर शासन करना है तो राजनीतिक नेतृत्व को शासक बनना ही पड़ता है और अवाम को शासित बनाना ही पड़ता है। यूं तो सभी शासन व्यवस्थाओं में मूल रूप से कोई विशेष फर्क नहीं, लेकिन चूंकि शासक शब्द में नकारात्मकता की बू आती है इसीलिए प्रजातांत्रिक समर्थक लोग इस शब्द से स्वयं को बचाने की कोशिश में रहते हैं। मगर इस सत्य से भी मुंह नहीं चुराया जा सकता कि सतही रूप से देखने में न सही व्यावहारिकता व वास्तविकता में वे शासक की भूमिका में ही होते हैं। गाहे-बगाहे कहा भी तो जाता है कि अमुक-अमुक नेता को शासन करना नहीं आता। असल में शब्दों से खेलने का जितना नाटक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में होता है उतना शायद और कहीं नहीं। जहां तक रही बात चुनाव द्वारा सत्ता परिवर्तन की (जिसका उदाहरण प्रजातंत्र समर्थक अमूमन दिया करते हैं) तो प्रजातंत्र ने उतने ही चेहरे बदले होंगे जितने राजाओं और तानाशाहों को इतिहास ने सिंहासन से बेदखल किया है। वरना प्रजातंत्र ने भी एक नये तरह के शासक वर्ग को जन्म दिया है जो समाज में अपना अलग (आम जनता से दूर) स्थान और विशिष्ट स्थिति कायम करने में सफल रहा है। मजेदार बात तो यह है कि इनमें भी अच्छे-बुरे राजाओं-तानाशाहों के सभी गुण-अवगुण मौजूद हैं। दूसरी ओर देखें तो, ऐसे भी कई राजा हुए जो वंश-प्रथा के अंतर्गत शासक होते हुए भी, जनता के लिए जनता के द्वारा राज प्रशासन चलाकर अति लोकप्रिय हुए। ये जनता की भावनाओं का ध्यान रखने का अहसास दिलाते रहते थे। राज व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने के लिए, जनता के बीच शांति बनाये रखने के लिए, सुशासन द्वारा लोगों का दिल जीतते थे। वे भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ही सही प्रजातांत्रिक होने के प्रयास में रहते थे। संवेदनशील और समझदार राजाओं को इस बात का ज्ञान और भान हमेशा रहता था कि कुशासन होने पर विरोध और विद्रोह की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। यह दीगर बात है कि उपरोक्त कटु सत्य के बावजूद अत्याचारी राजाओं की भी कमी नहीं रही और उन्होंने शासित को शोषित बनाकर वर्षों राज किया।
शासित और शोषित के बीच में एक बहुत ही महीन दीवार है। छोटी-सी दूरी। माइक्रोस्कोपिक विश्लेषण करें तो दोनों में मूल अवयव एक समान मिलेंगे, बस प्रतिशत में अंतर हो सकता है। यूं तो जो शासित होगा वह शोषित अवश्य है और जो शोसित है वो तो शासित है ही। बहुत ध्यान से देखने पर दोनों ही अवस्थाओं में बहुत विशेष अंतर नहीं है। लेकिन फिर भी अवाम को शासित बनाये रखते हुए शोषण करते रहना प्रजातांत्रिक व्यवस्था का, छिपा हुआ ही सही, मगर नंगा सत्य है। ये शब्द देखने में अति सुंदर हैं, बोलने में मधुर हैं और सतही रूप से समझने में तंग नहीं करता, मगर भीतर से उतना ही कुरूप नजर आता है और अन्य शासन तंत्र की तरह ही काम करता है। अर्थ पर जाएं तो शासित एक बेहतर शब्द है। कुछ-कुछ इज्जतदार और गरिमापूर्ण भी प्रतीत होता है। मगर धरातल की हकीकत पर क्या यह उतना ही सुरक्षित और सीधा होता है जितना दिखता और दिखाया जाता है? शायद नहीं। प्रजातंत्र में शब्दों का खेल ठीक उसी तरह से है जिस तरह से इसकी मूल परिभाषा में भाव तो है, मगर व्यावहारिकता कुछ और कहती है। वर्तमान, विश्व परिदृश्य पर नजर डालें तो जनता पर जनता के लिए जनता के द्वारा, यह एक मजेदार कल्पना से अधिक कुछ नहीं। यह सारा नाटक शब्दों का रोचक खेल प्रतीत होता है। संक्षिप्त में सीधे-सीधे सवाल पूछने पर कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भी, शासित होते हुए भी कोई शोषित न हो, क्या यह संभव है? जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।
वैसे तो शासित शब्द से भी अवाम को तकलीफ होनी चाहिए। कम से कम पढ़े-लिखे वर्ग में तो होना ही चाहिए। मगर ऐसा नहीं होता। अर्थात वह स्वयं चाहता है कि एक शासक हो। वो स्वीकार करता है कि उसे एक शासन व्यवस्था की आवश्यकता है। और वह खुशी-खुशी शासित बनने के लिए मानसिक रूप से हर समय तैयार भी होता है। शासक इसी सरल स्वीकारोक्ति से भ्रमित होकर, उसे शोषित की भूमिका में कब धकेल देता है पता ही नहीं चलता। तो क्या शासित होना अवाम की कमजोरी है या मजबूरी?
उपरोक्त सवाल अमूमन नहीं पूछा जाता। मगर स्वयं ही अनायास उभर आता है कि तथाकथित विकसित, पढ़े-लिखे, सामाजिक, समझदार मानवजाति को हमेशा किसी न किसी शासक की आवश्यकता पड़ती ही क्यों है? समाज का होना ही इसका कहीं प्रमुख कारण तो नहीं? कहीं व्यवस्था के नाम पर शासक वर्ग अपनी स्थिति सुदृढ़ तो नहीं करता? और भी सवाल पूछे जाने चाहिए। मसलन, विभिन्न शासन व्यवस्थायें क्या तमाम उम्र विकसित ही होती रहेंगी? या फिर परिपक्वता की संपूर्णता को कभी प्राप्त भी होगी? भावार्थ और शब्दार्थ की अकादमिक व्याख्या चाहे जो हो, यह भी तो आखिरकार हमारी बुद्धि की ही उपज है जो शब्दों को जन्म देती है तो उसे परिभाषित भी करती है। यह समाज में चलन और व्यवहार को समय के हिसाब से शब्दों द्वारा अलंकृत करती रहती है। शासक के अस्तित्व को उसने कभी चुनौती नहीं दी? आखिर क्यों? सिर्फ उसके अच्छे-बुरे का लेखा-जोखा ही क्यों बनाती रही? ऐसा क्यों है, कि शोषित समाज के लिए इतिहास लिखा गया, दर्शनशास्त्र भरा पड़ा है, कई क्रांतियां हो गई, लाखों की जान चली गई, कई परिवर्तन हुए, यही नहीं धर्म के साथ-साथ सामाजिक नेतृत्व भी सदा शोषित के पक्ष में चिल्लाता, लड़ता, संघर्षरत नजर आया, मगर शासित के लिए एक शब्द नहीं। सब चुप कर जाते हैं। आखिरकार ऐसा क्यों? कहीं यह इसलिए तो नहीं कि हर नेतृत्व आखिरकार शासक बनने की ओर ही अग्रसर होता है। फिर चाहे वो बौद्धिक स्तर पर ही क्यों न हो। वो भी अपने अंदर भविष्य के शासक की संभावना से इनकार नहीं कर पाता। मानवीय महत्वाकांक्षा ही शासित शब्द को खत्म करने या उन्हें बराबरी का दर्जा देने के विचार को असंभव बनाती है। शायद मानव जाति की सबसे बड़ी विडंबना है कि वह शासक और शासित के वर्ग में बंटा है और हमेशा रहेगा। जिस दिन वह शासित न होने की संभावना को मूर्त रूप देना शुरू कर देगा, उस दिन वास्तव में विकसित कहलाएगा। तब तक उसे श्रेष्ठ योनि कहलाने का भी कोई हक नहीं।