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स्वतंत्रता का अहसास
क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं? यह प्रश्न अगर पूछा जाये तो देखने-सुनने में तो बड़ा सरल लगता है, आसान भी है पहली नजर में उत्तर देना, लेकिन विस्तार में जाते ही कुछ और बिंदु भी उभरने लगते हैं, और असलियत का अहसास होने लगता है। गहराई में जाने पर उसकी व्यापकता नजर आने लगती है और धरातल पर उतरते ही वास्तविकता का ज्ञान होने लगता है। किताबों में लिखी हवाई-बातें और हकीकत की कड़वी सच्चाई में जमीन-आसमान का अंतर मिलता है। यह सोचने के लिए मजबूर कर देता है और जाने-अनजाने साथ ही कई सवाल भी खड़े होने लगते हैं। मसलन, एक छोटा-सा उदाहरण देखें, क्या हमें वास्तव में कुछ भी, किसी भी संदर्भ में, कहीं भी, अपने दिल और दिमाग में उत्पन्न हुई बात कहने की स्वतंत्रता है? सीधे-सीधे ‘हां’ कहना आसान नहीं होगा। कई तरह के जवाब आयेंगे। कई मत और तर्क भी साथ-साथ दिये जाएंगे, अपनी-अपनी बात को वजन देने के लिए। कई लोग सामाजिक मर्यादाओं और संस्कृति के हवाले देने शुरू हो जाएंगे। धर्म सामने आ जाएगा। दूसरे की भावना को ठेस न पहुंचे, इस तरह की बातें भी होने लगेंगी। और फिर यही चर्चा दूर तक निकल जाएगी। मुद्दे पर मुद्दे निकलेंगे। पक्ष-विपक्ष, अपने-अपने तर्कों के साथ अंतहीन वार्तालाप में फंस जायेगा। दूसरे के अधिकारों व स्वतंत्रता के हनन की बात भी होगी। समाज की व्यवस्था में उपस्थित सहअस्तित्व के सिद्धांत का मसला उठेगा। अपनी ही बनाई विभिन्न परिभाषाओं को प्रमाणित करने की कोशिश की जाएगी। समझने-समझाने के प्रयास में, सवाल पूछने वाले की स्वतंत्रता की सहज भूख स्वतः ही शांत हो जाएगी। आप संतुष्ट हो न हो अनुत्तरित जरूर हो जायेंगे। अंत में मानना ही पड़ेगा। ठीक है। मगर फिर मूल प्रश्न तो अभी भी खड़ा है, फिर चाहे इस संदर्भ में कुछ भी कहा जाए। असल बात तो यही है कि आप पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हैं। सिर्फ बोलने या लिखने में ही नहीं, किसी भी तरह से। लेखन की दुनिया में तो और भी मुश्किलें हैं। यहां तो सामाजिक ही नहीं न्यायिक-संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत आपकी स्वतंत्रता को सीमित करने के कई प्रावधान हैं और गलती पर पाये जाने पर सजा भी है। लिखने वाले के लिए फंसने के कई प्रमाण भी स्वयं ही लिखित में उपस्थित हो जाते हैं। कह सकते हैं यहां तो सबूत के साथ-साथ साक्ष्य भी खड़ा है। और ऐसे में कायदे-कानून, कचहरी, पुलिस सब कुछ आपके पीछे हाथ धोकर पड़ जाएंगे। यही नहीं, नैतिकता के आधार पर भी आपको दोषी ठहराया जा सकता है और विभिन्न सामाजिक संगठनों, धर्मगुरुओं और अन्य लेखकों को आप पर आरोपों की बौछार करने का मौका मिल जाएगा। आपके नाते-रिश्तेदार व परिवार वाले भी आपके विरुद्ध हो सकते हैं।
अजीब विडंबना है। एक तरफ प्रजातांत्रिक व्यवस्था में संविधान आपके स्वतंत्रता की गारंटी देता है तो वहीं अगले किसी अनुच्छेद में अप्रत्यक्ष रूप से इसे सीमित भी कर देता है। कारण चाहे जो भी हों। सच पूछा जाये तो आप पूरी तरह स्वतंत्रत नहीं हैं। अब लेखकों को ही ले लीजिए, एक-एक शब्द चबा-चबाकर, सोच-विचार कर, ठोक-बजाकर लिखना पड़ता है। कई बार विचारों को तोड़ना-मरोड़ना पड़ता है। मुख्य मुद्दे को घुमाना पड़ता है। नहीं तो लेने के देने पड़ सकते हैं और आप बिना वजह किसी बड़ी मुसीबत में भी फंस सकते हैं। फिर वही बात आती है कि दूसरे की स्वतंत्रता का हनन और भावनाओं के ठेस आदि का मामला बनता है। वैसे तो यह तर्क ठीक लगता है मगर आखिरकार किस कीमत पर? सब कुछ आपकी स्वतंत्रता की कीमत पर। असल में दूसरों की बात आते ही आपको कई बिंदुओं पर समझौता करना पड़ता है। न चाहते हुए भी सीमाओं और बंदिशों को स्वीकार करना पड़ता है। मगर इन सब तर्क-वितर्कों के बीच स्वतंत्रता का तो मजा ही खत्म हो जाता है। जिसका अहसास हमें अभी तक है ही नहीं। कहा जाएगा कि ऐसे तो समाज खतरे में पड़ सकता है, व्यवस्था के लिए नियम कायदे-कानून आवश्यक हैं। यह भी कह सकते हैं कि प्रकृति भी कई तरह की सीमाओं में बंधी है। मानता हूं। मगर कल्पना करें कि सब कुछ पूरी तरह स्वतंत्र हो तो कैसा होगा?
मैं जहां चाहूं, वहां रह सकूं। क्या मुझे आज अपनी ही पृथ्वी पर कहीं भी जाने की इजाजत है? नहीं। हमने कई प्रतिबंध, सरल शब्दों में कहें तो रोक-टोक लगा रखी है। देशों के बीच सीमा-विभाजन ने इसमें सबसे ज्यादा रोड़ा अटकाया। फिर शासन ने व्यवस्था के नाम पर दीवारें खड़ी कर दीं। बाहर ही नहीं अंदर भी। यहां नहीं जा सकते! वहां नहीं जा सकते! यह सुरक्षित क्षेत्र है! यह आरक्षित क्षेत्र है! यहां सेना का कब्जा है! तो यहां प्रशासक महोदय को खतरा है! और न जाने इस तरह की कितनी पंक्तियों को हम अमूमन रोजमर्रा में यहां-वहां देख लेते हैं और उन जगहों पर जाने से रोके जाते हैं। स्थान ही नहीं कुछ एक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के पास जाना-मिलना संभव नहीं। अमुक-अमुक वीआईपी है तो उसके आसपास भी नहीं भटक सकते। अपनी विकास यात्रा में हमने जाने-अनजाने अपनी स्वतंत्रता को कम किया है। पहले की अपेक्षा हमारे नेता-अभिनेता हमारी पहुंच से दूर हो गए हैं। अपने चारों तरफ नजर घुमाइए, समय के साथ-साथ शायद हम ज्यादा बंदिशों में स्वयं को ढाल रहे हैं। यह मॉल है! यह प्रथम श्रेणी का रेल डिब्बा है! यह वातानुकूलित बस है! यह दूसरे धर्म का स्थान है! यहां किसी कंपनी का स्वामित्व वाला स्थान है। आदि-आदि। न जाने नये-नये तरह से हमने कई स्थानों पर रोक लगा रखी है। और कुछ नहीं तो यह तो लिखकर गेट पर ही टांग देते हैं कि यह ‘आम रास्ता नहीं है।’ कहां है हमारी स्वतंत्रता? इसे तो भ्रम की स्वतंत्रता या फिर मृग-मरीचिका कहा जाना चाहिए। यह दीगर बात है कि गुलाम न होने को लेकर मन में अच्छा विश्वास पैदा किया जा सकता है। यह कहकर दिलासा दिया जा सकता है कि गुलामी के दौर में कैसी-कैसी कठोर बंदिशें थीं, अब तो सब कुछ हमारा है। मगर फिर ध्यान से देखने-जानने पर जब सपना टूटता है तो कई प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के पश्चात सिर्फ व्यवस्था के तरीके बदल गये, शासक के नाम बदले हैं, मगर आम जीवन नहीं बदला। क्या वास्तव में कोई एक साधारण व्यक्ति किसी व्यवस्था में पूर्णतः आजाद होकर रह सकता है? अगर नहीं तो व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग जाना चाहिए। बात यहीं नहीं समाप्त हो जाती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आगे, प्रेम करने की स्वतंत्रता, रोजमर्रा में उन्मुक्त जीवन जीने की स्वतंत्रता, व्यवस्था के नीतिगत मामले जानने की स्वतंत्रता जैसे कई और भी पक्ष हैं। किसी दूसरे को तंग किए बिना भी तो एक स्वच्छ व स्वतंत्र जीवन जिया जा सकता है। मगर किसी भी क्षेत्र में देख लें? कला और भाषा में स्वतंत्रता की दुहाई दी जाती है मगर संकुचित मानसिकता यहां भी दिखाई पड़ती है। हम तो विचारों व धर्म तक के गुलाम बन जाते हैं। अर्थात कल्पना में भी स्वतंत्र नहीं हो पाते। घुटन महसूस करते हैं। परिवार में, समाज में, ऑफिस में, सड़कों पर। हर जगह। हां, इसका हल मिलना मुश्किल देख चुपचाप सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं। गाहे-बगाहे प्रश्न जरूर कर लेते हैं। और अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता पर स्वयं ही गौरवान्वित भी हो जाते हैं। जबकि हम जानते हैं कि हम कितने गलत हैं। ऐसे में बचपन याद आता है, जहां दोस्तों के बीच सर्वाधिक स्वतंत्रता होती थी। सच पूछें तो बड़े होने के साथ-साथ हमारी स्वतंत्रता भी धीरे-धीरे कम हो जाती है। समाज ने विकास जरूर किया मगर साथ ही स्वतंत्रता को सीमित कर दिया। कई बार इसका अहसास ही नहीं होता और बंदिशें लागू हो जाती हैं। बहरहाल, विज्ञान ने इसमें मदद की है। और एसएमएस व ईमेल के द्वारा अभिव्यक्ति के क्षेत्र में स्वतंत्रता की नयी परिभाषा गढ़ी है।
एसएमएस व ईमेल की दुनिया में बोलने-लिखने का अधिकार अपने व्यापक रूप व सच्चे अर्थों में काफी हद तक स्वतंत्र है। ठीक उसी तरह से, जिस तरह बचपन के दोस्तों के बीच किसी भी विषय पर खुलकर चर्चा, व्यंग्य व मजाक किया जाता है। यह अन्यत्र संभव नहीं। नेता-अभिनेताओं पर आमतौर पर टिप्पणी करना वैसे भी आसान होता है, मगर दोस्तों के बीच धर्म व धर्म-गुरुओं को भी नहीं बख्शा जाता। जबकि ऐसा करना बड़े उम्र के परिपक्व लोगों के बीच भी उतना आम नहीं। यूं तो एसएमएस व ईमेल भी पब्लिक डोमेन में जाते ही विभिन्न तरह के सामाजिक बंधन और कानून के अंतर्गत आने लगे हैं। और प्रतिक्रियाएं तेज होने लगी हैं। फिर भी यहां काफी हद तक आज भी स्वतंत्रता महसूस की जा सकती है। आधुनिक युग में समयाभाव के कारण लोगों का आपस में मिलना-जुलना क्या कम हुआ, जीवन ठहरा हुआ-सा प्रतीत होता है। ऐसे में खुलकर बातचीत की संभावना वैसे भी कहां रह जाती है? इन परिस्थितियों में ईमेल-एसएमएस आशा की किरण के रूप में प्रकट हुई है। आपसी संवाद स्थापित करने को एक बार फिर बढ़ावा मिला है। यह नये तरह का संपर्क सूत्र है। इसका प्रभाव क्षेत्र असीमित है और विश्वभर में फैलाव लिये हुए है। कभी-कभी इसमें ज्ञानवर्धक तथ्यों के अतिरिक्त व्यंग्यात्मक बाण भी छिपे होते हैं। कई बार पढ़ने वाला अपने आपको हंसने से रोक नहीं सकता, तो कई जगहों पर सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। निजी समूह के बीच आपस में यहां किसी भी तरह की कोई बंदिश नहीं, रोक-टोक नहीं। जो मर्जी बोलना है, बस लिख डालो। इन पर कोई नैतिक जिम्मेदारी भी नहीं होती। भाषा व शब्दों का कोई नियंत्रण नहीं। विचारों की खुली छूट। सत्य अपने नग्न स्वरूप में खड़ा हो जाता है। कुछ एक ई-मेल तो कई बार आंख खोलने वाले होते हैं और जाने-अनजाने ही बहुत कुछ कह जाते हैं। और शायद यही कारण है जो कंप्यूटर-इंटरनेट की काल्पनिक दुनिया तीव्रता से पैर पसार रही है। और आमजन इससे तेजी से जुड़ रहा है। यह असल में मनुष्य के स्वतंत्र होने की छटपटाहट है जो इस नये रूप में निकल रही है। बंधन रहित स्वतंत्रता का एक सुखद अहसास यहां लिया जा सकता है।