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कोचिंग या कुंजी

विगत सप्ताह अखिल भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम घोषित हुए। एक मित्र का सुपुत्र गत दो वर्षों से इसमें सफल होने के लिए प्रयासरत था। उत्सुकतावश मैंने उन्हें फोन किया था। पता चला कि सिविल सेवा की अंतिम एवं महत्वपूर्ण कड़ी साक्षात्कार में वह निकल नहीं पाया। वार्ता के दौरान यह जानकारी मिली कि पिछली बार प्रीलिम पास होकर मेन परीक्षा तक पहुंचा था। इस साल इंटरव्यू तक पहुंचा है। अर्थात अब अगले वर्ष उम्मीद की जा सकती है कि सफलता हाथ लगे। ऐसी ही कुछ धारणा आम लोगों के बीच बन चुकी है। मित्र स्वयं भी अखिल भारतीय स्तर का अधिकारी है अर्थात लगभग ढाई दशक पूर्व इसी तरह की सिविल सेवा परीक्षा की चयन प्रक्रिया से गुजरकर केंद्रीय सरकार के विभाग में पदस्थ हुआ होगा। बातचीत के दौरान मेरे यह पूछने पर कि वह इन बीते हुए वर्षों में क्या फर्क महसूस करता है, के जवाब में उसके मतानुसार प्रतिस्पर्धा का स्तर ऊंचा और कठिन हुआ है, छात्र अधिक फोकस हुए हैं, साथ ही कोचिंग का महत्व बड़ा है। आखिरी कथन मुझे थोड़ा अटपटा लगा था। बीच में मेरे द्वारा टोकने पर कि क्या यह कोचिंग जरूरी है? वे पूरी तरीके से इसके पक्ष में दिखाई दिए थे। यह मेरे लिये अप्रत्याशित था। उन्होंने इसके पक्ष में कई तर्क देने की कोशिश की थी जो उतने वजनदार नहीं थे। अंत में उन्हें कहना पड़ा कि तुम चाहो तो किसी भी सफल उम्मीदवार से पूछ लो, उसने कहीं न कहीं से कोचिंग जरूर ले रखी होगी। मैंने भी अगला सवाल पूछ ही लिया था कि क्या आपने भी कोचिंग ली थी? उनका उत्तर ‘न’ में था। और इसी को केंद्र में रखकर उन्होंने आज की प्रतिस्पर्धा एवं वर्तमान पीढ़ी की प्रतिभा के पक्ष में कई कसीदे पढ़ दिए। लेकिन फिर अंत में मेरे यह कहने पर कि, तो क्या आप आज की पीढ़ी से अपनी पीढ़ी को कमतर आंकते है? वो कुछ देर के लिए चुप हो गए थे। बाद में धीरे से दार्शनिक अंदाज में कहने लगे, वो जमाना कुछ और था आज जमाना कुछ और है।

सवाल यहां उठता है कि इस दौरान क्या और किस तरह का फर्क आया है? क्या पूर्व की परीक्षाएं सरल होती थीं? यूं ही कुछ कह देना तो आसान है मगर विधिवत तर्कसंगत जवाब देना चिंतनशील व्यक्ति के लिए भी मुश्किल होगा। आज की पीढ़ी सूचना से अधिक लैस हो सकती है मगर पहले की अपेक्षा प्रतिभाशाली और अधिक बुद्धिमान व सक्षम भी है, कहना मूर्खता होगी। तो फिर ऐसी क्या वजह है कि आज सिर्फ सिविल सेवा में ही नहीं किसी भी सरकारी नौकरी की परीक्षा के लिए तकरीबन हर शहर में कोई न कोई कोचिंग की व्यवस्था जरूर मिल जाएगी। फिर चाहे वो इंजीनियरिंग सर्विस हो या फिर बैंक के क्लर्क की परीक्षा। यहां तक कि प्रमुख पब्लिक सेक्टर में भर्ती होने वाले जूनियर इंजीनियर की परीक्षाओं के लिए भी कोचिंग संस्थान मिल जाएंगे। यही क्यूं, नौकरी के अतिरिक्त अच्छे कालेज में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए इतने अधिक कोचिंग संस्थान खुल चुके हैं कि इन्हें कुकुरमुत्ते की संज्ञा देना उचित ही होगा। इस संदर्भ में किसी भी तरह की चर्चा विस्तार में करने पर कोई तर्कपूर्ण तथ्य तो उभरकर आता नहीं। हां, यह आजकल जरूरी है, कहकर लोग आपको हेय दृष्टि से देखने लगते हैं या फिर कह देते हैं कि इन दिनों प्रतियोगिता बढ़ गई है। यह कुछ हद तक उचित हो सकता है। और इसके पीछे बढ़ती जनसंख्या एक प्रमुख कारण कहा जा सकता है। संभव है कि आबादी के अनुपात में कॉलेज में सीट और नौकरी की संख्या न बड़ी हो। लेकिन बढ़ी हुई प्रतिस्पर्धा में कोचिंग को हर मर्ज की दवा मान लेना, उचित नहीं लगता। कहीं न कहीं, और भी कारण होने चाहिए, जिन पर विचार किया जाना चाहिए। और वो है हमारी सोच-हमारी धारणा, युग की विचारधारा, हमारा बढ़ता अविश्वास साथ बढ़ती अभिलाषा।

ज्यादा समय नहीं हुआ है जब कक्षा में फेल होने वाले छात्र कुंजी का सहारा लिया करते थे। इसमें कुछ महत्वपूर्ण सवाल और उनके जवाब दिये होते थे। तत्कालीन वार्षिक परीक्षा के लिए अनुमानित प्रश्नपत्र बनाकर संलग्न किया जाता था। कमजोर छात्र इसे घोंट-घोंटकर रट्टा लगाते हुए किसी तरह परीक्षा पास कर लिया करते थे। मगर अव्वल छात्र ही नहीं सामान्य छात्र भी इसे एक अलर्जी के रूप में देखते थे। कुंजी हमेशा निम्न बौद्धिक स्तर के छात्रों के साथ जोड़कर देखी जाती थी। और इसका नाम लेकर आपस में मजाक उड़ाया जाता था। भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में यह आम दृश्य था। ट्यूशन कमजोर छात्र के लिए मानी जाती थी। कालांतर में धीरे-धीरे इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताबें यदा-कदा बाजार की दुकानों में दिखाई देने लगीं। यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इसे पढ़कर अभ्यर्थी इस विदेशी भाषा को थोड़ा-बहुत समझने के लायक बन जाते थे, उससे अधिक कुछ नहीं। मगर यह चलन जिस तेजी से आगे बढ़ा फिर कभी रुका नहीं। जिसका मूल कारण है अंग्रेजी के महत्व को बढ़ाना। वो भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद। यह दुर्भाग्यपूर्ण था और है।

इंग्लिश रेपीडेक्स कोर्स की किताबों की सफलता से बाजार को स्वाद लग गया था। आज दुकानों में, ऐसी कौन-सी परीक्षा है जिसकी कुंजी नहीं मिलती। कलेक्टर से लेकर क्लर्क की नौकरी तक। मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग, मेडिकल यहां तक कि अच्छे लॉ कॉलेज में प्रवेश के लिए भी पुस्तकें उपलब्ध हैं और धड़ल्ले से बिक रही हैं। तकरीबन सभी बड़े पब्लिशिंग हाउस इस व्यवसाय से जुड़े हैं। बाजार व मॉल के साथ-साथ अध्यापकों का घर भी कोचिंग का अड्डा बन चुका है। शिक्षकों ने स्कूल-कालेज में पढ़ाना छोड़ दिया है। छात्रों से ट्यूशन लेने के लिए एक तरह का मानसिक दबाव डाला जाता है। क्या यह उचित है? इसने इस हद तक दिमाग पर प्रभाव डाला है कि आज के सामान्य वर्ग से भी पूछने पर तुरंत प्रतिक्रिया आएगी कि कोचिंग ज्वाइन करने से परीक्षा क्रैक करने का तरीका और शार्टकट पता लग जाते हैं, और दूसरों के अनुभवों से हम सीखते हैं। ध्यान से देखें तो यह सब पहले की कुंजी के (अव)गुण ही हैं। वो छात्र जो अपने विषय के बारे में विस्तारपूर्वक गहन अध्ययन करता हो, समझ व ज्ञान रखता है, क्या उसे किसी और शार्टकट की जरूरत है? एक तरह से हमने सफलता के लिए शार्टकट की विचारधारा को भी स्वीकार कर लिया। इससे युवावर्ग को फायदा हो न हो बाजार को लाभ जरूर हुआ। लाखों-करोड़ों की किताबें और अरबों का कोचिंग व्यवसाय स्थापित हो गया। यहां यह बताना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि किसी भी पाठशाला में गधे को घोड़ा नहीं बनाया जा सकता। न जाने हम क्यों इनकी बातों में आकर सपने देखने लगते हैं। इस धंधे ने अजीबोगरीब स्थिति पैदा कर दी है। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा के लिए गली-गली उपस्थित कोचिंग संस्थानों में पढ़ाने वाले अध्यापकों में से अधिकांश ने इन परीक्षाओं को पास नहीं किया होगा। अगर आप इनकी डिग्रियों की बारीकी से जांच-पड़ताल करें तो कई हास्यास्पद तथ्य उभरकर सामने आएंगे। ये झोलाछाप डाक्टरों का आधुनिक इंजीनियर रूपांतरण है। आईएएस में सिलेक्ट न होने वाले छात्र दूसरों को आईएएस में पास होने के गुर सिखाते हैं। है न मजेदार स्थिति।

उपरोक्त परिस्थिति के लिए इन परीक्षाओं को संपन्न कराने वाले लोग भी कुछ हद तक जिम्मेवार हैं। उनकी विचारधाराएं कहीं-कहीं दोषपूर्ण लगती हैं। प्रवेश परीक्षाओं को इतना क्लिष्ट व उच्च स्तर का अव्यवहारिक बनाया जा रहा है जिसकी आवश्यकता नहीं लगती। आगे की पढ़ाई या नौकरी में इसकी उपयोगिता पर भी संदेह होता है। क्या यह न्यायसंगत है? आईआईटी प्रवेश परीक्षा को उदाहरणार्थ देखें तो वो इतना विशिष्ट स्तर का बना दिया गया है कि अच्छे-अच्छों का दिमाग घूम जाए। हम यहां क्या साबित करना चाहते हैं? कई बार तो ऐसा लगता है कि परीक्षा लेने वाला अपनी विद्वता परीक्षार्थी ही नहीं आम लोगों पर भी थोपना चाहता है। इसके माध्यम से खुद को महान साबित करना चाहता है और बाकी को निम्नस्तर का। कई बार इस चक्कर में सवाल इतने मुश्किल बन पड़ते हैं कि समझ से बाहर हो जाते हैं। कई बार तो रचनाएं रचयिता के सिर के ऊपर से भी निकल जाती हैं। यह एक तरह का विज्ञान को संस्कृत में लिखने के समान है जिससे आम आदमी समझ न सके। यही कारण है जो कई सक्षम विद्यार्थी, जो इस तरह की विशिष्ट प्रणाली में पारंगत नहीं होते, प्रतिभाशाली होते हुए भी सफल नहीं हो पाते। छात्रों का वो वर्ग जो शार्टकट शैली में पेंसिल-पेन से गोले लगाने का काम अतिशीघ्र कर लेता है, सफल हो जाता है। असल में सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव प्रश्नपत्र हल करने की अपनी-अपनी कला है। कई ऑब्जेक्टिव में अच्छा करने वाला छात्र सब्जेक्टिव प्रश्नपत्र में विस्तार से लिखने में साधारण रह जाते हैं। कारण चाहे जो हो, सारी परीक्षा प्रणाली धीरे-धीरे ऑब्जेक्टिव को स्वीकार करने लगी है। क्या यह सब्जेक्टिव के मास्टर्स के लिए दुर्भाग्यपूर्ण नहीं? यहां सवाल यह भी उठता है कि क्या आईआईटी में प्रवेश और उत्तीर्ण होने पर इस तरह की विद्वता का आगे के कार्य में कोई उपयोग होता है? कितने हैं जो आगे अनुसंधान के क्षेत्र में जाते हैं? उनमें से अधिकांश साबुन, तेल, पाउडर, ब्रॉ, पेंटी बेचने की कंपनियों में उच्च वेतन पर लग जाते हैं। आईआईएम की प्रवेश परीक्षा में इतनी अधिक अंग्रेजी पूछी जाती है कि भारतीय भाषा में पढ़ा छात्र इसमें सफल होने की सोच भी नहीं सकता। यह अंग्रेजी पढ़कर पले-बढ़े नकली अंग्रेज आखिरकार नौकरी तो ज्यादातर कंज्यूमर गुड्स की कंपनी या बैंक में ही करते हैं, जहां आम आदमी से संपर्क करना होता है। ये नकली अंग्रेज माल बेचने में कैसे सहायक हो सकते हैं? प्रश्न खड़ा करता है। विश्व व्यापार की बात करने वालों को जान लेना चाहिए कि आज भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार है और नौकरी की संभावना यहां अधिक है। बहरहाल, आईआईएम के चक्कर में हजारों-लाखों अंग्रेजी के कोचिंग खुल गए। है न अजीब विरोधाभास! कुंठित मानसिकता और बीमार सोच, जिसने हमें अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी भाषा का गुलाम बना दिया। शायद यही कारण है जो हमारी विद्या और शिक्षाएं जमीनी स्तर से जुड़ नहीं पातीं और समाज में दो वर्ग पैदा कर देती है।

छात्र जो इन परीक्षाओं में सफल हो जाते हैं, वो तो अच्छे होते ही हैं, और यकीनन बिना कोचिंग के भी सफल होते मगर कुंजी इनकी प्रतिभा को कुंद करती है। ऐसे भी कई होते हैं जो उतने ही प्रतिभाशाली होते हुए भी, कई अप्रत्याशित कारणों से असफल रहते हैं। उनमें यह परीक्षाएं अविश्वास पैदा करती है, एक किस्म का डर। इन सबके चक्कर में बाजार ने कई स्वांग रचे, परिणामस्वरूप तमाम तरह की कुरीतियों ने जन्म लिया। प्रश्नपत्र का लीक होना, उलटे-सीधे हथकंडे अपनाये जाना आदि-आदि। यहां तक कि कोचिंग और कुंजी जन-जन को स्वीकार्य हो गई। मुद्दे की बात तो यह है कि परीक्षा जितनी अस्पष्ट और विशिष्ट टाइप की बनाई जाएगी उतना ही बाजार का यह धंधा पनपेगा। जबकि ज्ञान प्राप्त करने का यह कोई तरीका नहीं है। और न ही किसी एक परीक्षा को पास कर लेने से विद्वता प्रमाणित होती है। लेकिन इस चक्कर में कई स्वस्थ और विद्वता रखने वाले गरीब छात्र अपना आत्मविश्वास खो देते हैं और आत्मग्लानि महसूस करते हैं। कई मानसिक रोगी हो जाते हैं। जिसे सामान्य किताबें प्राप्त नहीं, क्या उनके लिए लाखों की कोचिंग और हजारों की कुंजी संभव है। हम उन्हें पहले ही मानसिक रूप से पराजित कर देते हैं। छात्रों को इस काली अंधेरी सुरंग में भेजने के लिए समाज के साथ-साथ खुद मां-बाप भी दोषी हैं। जहां उनकी प्राकृतिक क्षमताएं कोचिंग और कुंजी को रटने में व्यर्थ हो रही हैं।