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समाज की मौत

नोएडा में दो बहनों की तकरीबन छह महीने तक घर में बंद रहने की कहानी ने दिल झकझोर कर रख दिया था। यकीन ही नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है? दिल ही नहीं दिमाग भी स्वीकार करने को तैयार नहीं। बार-बार अनायास ही यह प्रश्न मन में उभरता कि ऐसा कैसे हो सकता है? अब इसे दुर्र्भाग्य ही तो कहेंगे कि इतने लंबे समय तक दुनिया से पूरी तरह दूर रही बहनें, बंद कमरे में तो जिंदा रहीं, मगर वापस आम जीवन से जुड़ते ही उसमें से एक की मौत हो गई। असल में यहां उस लड़की की अकेले मौत नहीं हुई है, यह हमारे संपूर्ण समाज की मौत है। जीवनमूल्यों की मौत है। सभ्यता-संस्कृति-संस्कारों की मौत है। अरे! यह कैसा समाज है? अगर ऐसा ही होना है तो फिर हमने इतने जतन से इसकी स्थापना ही क्यों की थी? सालों-साल, धीरे-धीरे इसे हमने विकसित क्यूं किया? सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में अनगिनत विद्वानों व विचारकों ने अपनी संपूर्ण जीवन- ऊर्जा क्यों व्यर्थ की? हजारों-लाखों शब्दों को पत्थरों पर उकेरा गया और फिर विज्ञान के विकास के साथ अनगिनत कागज काले किये गए, क्यों? पूछा जाना चाहिए कि आखिरकार धर्म की स्थापना ही क्यूं हुई? वो भी एक नहीं सैकड़ों धर्म! क्या इसी दुर्दशा के लिए?

मैंने इस संदर्भ में कइयों से बात करने की कोशिश की। आधुनिक नवजवानों से लेकर पुरानी पीढ़ी के बीच जाकर टटोलने का प्रयास किया। एक बात जो साफ उभर कर सामने आयी कि आज की नयी युवा पीढ़ी तक को इस खबर को सुनकर दुःख हुआ था। अर्थात मानवीय संवेदना जिंदा है। मगर मेरे इस सवाल पर कि यह कैसे संभव है कि कोई भरे पूरे मोहल्ले में इतने दिनों तक कमरे में बंद रहे और आस-पड़ोस को कोई विशेष खबर तक न हो, इस पर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं था। उनके आसपास बिखरी जीवनशैली व व्यक्तिगत अनुभवों से इसमें शायद कोई खास बात नहीं। लेकिन मैं अब भी यह मानने व समझने को तैयार नहीं कि आसपड़ोस ने छह महीने तक स्वयं को इस असामान्य घटनाक्रम से कैसे आंख मूंदकर रखा होगा? मस्तिष्क स्वीकार करने को तैयार नहीं कि तमाम रिश्ते-नातेदारों में से किसी ने भी छह महीने तक परिवार के दो सदस्यों की सुध नहीं ली? इस पर प्रतिक्रिया आयी थी कि लोग आजकल आपस में सालों साल बात नहीं करते। यह भी धीरे से कह दिया गया कि हो सकता है किसी से संबंध ही बरकरार न हों। अगर यही यथार्थ है तब भी पच नहीं पा रहा था और अपनी सोच के अनुसार मेरा मस्तिष्क यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ कि दुनिया में उनका कोई भी अपना नहीं। मगर मैं शायद गलत था, सच तो यही है कि आम घर-परिवार में अभी कुछ वर्षों पहले तक बुआ-फुफा, चाचा-चाची, ताऊ-तायी, मौसी-मौसा से लेकर बड़ी-मां, छोटी-मां और अम्मा-भगिनी-भैया में हंसती-खेलती-कूदती जिंदगी अचानक कहां अंकल-आंटी में सिमटती हुई कृत्रिम दुनिया में बदलकर रह गयी, पता ही नहीं चला। आंख बंद कर, रुक कर सोचें तो कभी-कभी यकीन नहीं होता। और पुनः वही सवाल उभरता है कि यह कैसे हो सकता है? यहां पूंजीवादी बाजार पर हमेशा की तरह शक करना उचित न होगा। उसके लिए तो इन रिश्तों में भी व्यापार करने व मुनाफा कमाने की क्षमता है। और कुछ नहीं तो हर रिश्ते को एक सुंदर-सा ग्रीटिंग कार्ड तो भेजा ही जा सकता है। और फिर संचार-क्रांति के बाद तो मिनट-मिनट पर एक-दूसरे से बात करने वाली नयी पीढ़ी के साथ यह कैसे संभव है? जिधर नजर डालो सभी के हाथों में मोबाइल है, जहां देखो वो या तो मोबाइल पर बात करता नजर आता है या एसएमएस करता हुआ। दिनभर इतना अधिक बात करने वाली संस्कृति के बीच में सूखे रेगिस्तान के ऐसे अनजान टापू कैसे हो सकते हैं?

बताया गया कि दोनों बहनों का मानसिक संतुलन ठीक नहीं था। माता-पिता की मौत के बाद वे धीरे-धीरे डिप्रेशन में चली गईं। कुछ दिनों बाद घर से भाई के चले जाने के पश्चात तो पालतू कुत्ता उनके जीवन का एकमात्र अंतिम सहारा था। और उसकी मौत के बाद तो वे पूरी तरह मानो टूट ही गई थीं। अर्थात अगर कोई रिश्ते साथ होते तो शायद मानसिक रूप से वे असंतुलित न होतीं। यही तो प्रमुख वजह है जो मानसिक बीमारियों की संख्या आजकल बढ़ रही है। पहले भी तो लोग इसी समाज में रहा करते थे। बीमारियां भी होती थीं मगर मानसिक रोगियों की संख्या नगण्य थीं। हो भी कैसे सकती थी, जब दिमाग ही खाली नहीं रहने दिया जाता था। सामान्य आस-पड़ोस में इतने रिश्ते होते थे कि सारा दिन कहां और कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता। ऐसे में अकेलेपन का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। असल में तमाम मानसिक व्याधियों के मूल में यह अकेलापन ही तो है। पूर्व में सुख-दुःख, कम या ज्यादा, सब परिवार के बीच आपस में बंट जाया करते थे। परिवार भी रिश्तों के जाल में इतने बड़े हो जाते कि अपने आप में एक पूरा मोहल्ला उसमें समा जाया करता था। परिवार की व्याख्या को घर की दीवार सीमित नहीं कर पाती थी। घर के हर घटनाक्रम में आसपड़ोस के लोग भी पूरे अधिकार के साथ सम्मिलित हो जाया करते थे। चलिए, यह राग बहुत पुराना हो चुका कि आधुनिक सभ्यता ने एकल परिवार बनाया है तो उसकी मुश्किलों को भी हमें ही झेलना पड़ेगा। मान लिया। मगर फिर समाज किस काम के लिए है? ऐसे समाज के बनाये रखने का क्या औचित्य? ऐसे समाज में रहने का क्या फायदा? कुछ लोगों का यह तर्क भी ठीक है कि जब हम समाज को कुछ दे नहीं सकते तो समाज से लेने का हक कैसा? तो फिर हम समाज में रह ही क्यों रह रहे हैं? हमें इतनी ही नफरत, ईर्ष्या या अपने आपमें रहने का गरूर है तो फिर समाज में इकट्ठा रहते ही क्यों हैं? अजीब हेकड़ी है। मैंने टेलीविजन पर उपरोक्त संदर्भित एक बहन के मुंह से बार-बार अपने भाई के बारे में बात करते सुना। चाहे उसके अर्थ जो भी निकलते हों, उसके मूल में उसके प्रति प्यार और चिंता ही जाहिर हो रही थी। ऐसे में उस मृत बहन के जीवित भाई को क्या कहा जाए? इस तरह की परिस्थिति वाले अन्य भाइयों व उनके परिवार को समझना होगा। जीवन बेहद खूबसूरत है अगर सभी संबंधों को साथ लेकर चला जाये। जहां तक रही उस मोहल्ले-कॉलोनी में रहने वाले अन्य परिवार की बात!!! तो सामाजिक व्यवस्था के कई प्रश्न उभरते हैं यहां पर। अगर यह सच है कि इन लोगों ने उनकी इतने दिनों तक सुध नहीं ली तो इनके सामाजिक कहलाने और समाज में बने रहने पर प्रश्नचिन्ह लगना चाहिए और अगर उनके सुध लेने पर भी यह हालत हुई है तो फिर हम सबको सामाजिक लज्जा आनी चाहिए! यहां परवीन बॉबी की जीवन दास्तां याद आती है। एक बेहद खूबसूरत व सफल अभिनेत्री को साथ के नजदीकी लोगों ने तब तक भरपूर इस्तेमाल किया जब तक सब ठीक था। मगर अंत, उतना ही भयानक। कोई भी साथ न था। ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएंगे। फिल्मों की चमकदार दुनिया अंदर से उतनी ही अंधेरी है, जितना हीरे के अंदर कोयले के गुण पाये जाते हैं। मगर हम ऊपरी चमक से आकर्षित होकर उसके पास खींचे चले जाते हैं। पूर्व में आम मोहल्ले, घर-परिवार में ऐसा होने पर बड़े-बुजुर्ग क्या करते, यह हमें शायद अब याद न हो, अधिकांश शायद इसे पसंद भी न करें, मगर फिर इसी बहाने कम से कम सामाजिक डर बना हुआ था और लोग साथ-साथ जी रहे थे।

यह हमें स्वीकार करना होगा कि मनुष्य चाहे जो कर ले, वो मूलतः एक सामाजिक प्राणी है। वो अकेला रह नहीं सकता। चाहे जैसे मर्जी कह लो, उसे किसी न किसी के साथ की जरूरत होती है। तभी तो हम, आधुनिक सभ्यता व व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर, जितनी भी ढींगें हांकें और अकेले रहने का बिगुल बजाएं, लेकिन हर आदमी को किसी न किसी सहारे की तलाश में भटकते हुए देखा जा सकता है। वो अकेला रह ही नहीं सकता। फिर चाहे वो मोबाइल से बात करते हुए अपने ही तरह के किसी इंसान की आवाज सुने या एसएमएस में संदेश भेजे। टीवी देखते हुए भी तो वो आखिरकार अपने ही तरह के चलते-फिरते लोगों को देखकर संतुष्ट हो जाता है। यहीं क्यूं, सोशल-नेटवर्किंग के नाम पर आजकल वो अपने लिये मानवीय संबंध ही तो पैदा कर रहा है। मगर यहां हैरानी इस बात की है कि वो काल्पनिक रिश्तों और वर्चुअल सोसायटी के लिए तो घंटों कंप्यूटर पर लगा सकता है लेकिन अपने पड़ोस में सिसक रहे जिंदा इंसान के लिए एक मिनट नहीं निकाल सकता। उसने अपने नये कंप्यूटर मकड़जाल का नाम सोशलसाइट तो रख दिया लेकिन खुद पूरी तरीके से असामाजिक हो गया। यही नहीं, एक मजेदारी वाली बात और है कि इस मकड़जाल में हर आदमी अपने ज्यादा से ज्यादा मित्र बनाने के लिए प्रयासरत रहता है। और इसकी संख्या बढ़ने पर पहले गर्व करता और फिर दिखाता भी है। मगर बगल में जिंदगी और मौत से लड़ रहे इंसान के लिए उसके पास वक्त नहीं। एक तरफ आधुनिक मकड़जाल के माध्यम से पुराने संबंधों को खोजकर संपर्क स्थापित करने का प्रयास तो दूसरी ओर वास्तविक जीवन में वर्तमान रिश्तों को दूर रखने का आग्रह! कमाल ही है!! सुबह उठते के साथ आधुनिक मानव खाना खाये न खाये मगर अपनी छोटी-बड़ी बात एसएमएस या सोशल-नेटवर्किंग साइट पर जरूर डालता है, और दूसरे की बातों का जवाब भी देता है। हर मन-पसंद पोस्टिंग पर पसंद का बटन भी दबाता है लेकिन पड़ोस में एक इंसान की दो लाइनें सुनने के लिए उसके पास समय नहीं है। यह कैसा विरोधाभास है। ऐसा लगता है कि आज का मानव यथार्थ से भागकर कल्पनालोक में जीना चाहता है जबकि वहां भी कोई उसके लिए चांदनी रात नहीं बल्कि चारों ओर अंधेरा है। ऐसे में इसे भ्रमित युग क्यों नहीं कह दिया जाता? वो दिन दूर नहीं, और शायद कुछ यहां-वहां पढ़ा भी गया कि, इसी कारण अब तो अंतिम यात्रा में कंधा देने के लिए चार लोग भी बड़ी मुश्किल से जुटते हैं। जाते-जाते भी आदमी ने अपने आप को एकदम अकेला कर लिया है।