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क्रिकेट के बाद
क्रिकेट का विश्वकप भारत ने जीत लिया। भारतीय क्रिकेट टीम को बधाई! राष्ट्र को जश्न मनाने का पूरा हक है। और भरपूर मनाया भी गया। मगर अब इसके बाद क्या? क्रिकेट को जीवन-मरण बना देने वाले लोगों से यह पूछा जाना चाहिए। क्या आमजन का जीवन आसान हो गया? क्या उनकी कोई भी मुश्किल खत्म हुईं? नहीं। वो तो अपने विकराल रूप में आज भी खड़ी हैं। तो ये पागलपन की हद तक उन्माद कैसा? खुशियों के साथ-साथ गर्व भी किया जाना चाहिए, मगर संपूर्ण जीवन का संदर्भ मानकर नहीं। तो कहीं ये भटकाव तो नहीं? खेल के द्वारा राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत करना बेहतर है मगर इसे स्थायी समाधान या विकल्प मान लेना मूर्खता ही कहेंगे। और यह मूर्खता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है। भीड़ का जुनून बढ़ता चला जा रहा है। दीवानगी बढ़ रही है। अगर कहा जाए कि बढ़ाई जा रही है तो सही होगा। मुश्किल इस बात की है कि हर एक इसमें शामिल होकर इसे बढ़ा ही रहा है। माहौल ऐसा बना दिया गया है कि अगर आपने कुछ अलग हटकर सोचा, तो आपकी खैर नहीं।
दूसरे आम बच्चों की तरह क्रिकेट मेरा भी बचपन से पसंदीदा खेल रहा है। इतना कि आज भी कहीं बॉल और बैट घुमाने को मिल जाए तो शर्म नहीं करूंगा। यही नहीं, थोड़ा बड़ा होने पर रेडियों पर क्रिकेट कमेंट्री सुनने का मजा ही कुछ और था। यह कुछ यादगार पलों में से एक है। इसी चक्कर में ट्रांससिस्टर भी खरीद लिया था। रास्ते में आते-जाते लोगों द्वारा स्कोर पूछना, कौन आउट हुआ, कितने रन बने, कुछ आम सवाल हुआ करते थे। उन दिनों, पता नहीं कमेंटेटर की आवाज के साथ हवाओं को किस तरीके से मिलाया जाता था कि कमेंट्री सुनने पर एक मस्ती छा जाती थी। हर कमेंटेटर का अपना एक विशिष्ट अंदाज हुआ करता था। उनकी आवाज ही उनकी पहचान बन जाया करती थी। उनकी बातों में साहित्यिक पुट, शब्दों की उड़ान, नयी-नयी कल्पनाएं होती। आवाज का उतार-चढ़ाव सुनने वाले को मंत्रमुग्ध कर देता। उस युग में भी क्रिकेट के हीरो हुआ करते थे। जिनका नाम गली-गली आम लोगों की जुबां पर होता। लेकिन वे भगवान नहीं बनाए गए थे। उन्हें इंसान ही बने रहने दिया जाता। हम अपनी युवा अवस्था में सुनील गावस्कर के दीवाने थे और उसके आउट होते ही मन जैसे मानो डूब जाता। और यह सच भी था कि उनके जाते ही अमूमन पूरी टीम लड़खड़ा जाती। वे अकेले एंडी राबर्ट और होल्डिंग से लेकर डेनिस लिली और थॉमसन की तूफानी गेंद का बड़ी आसानी से सामना करते। हमारे पास तेज गेंदबाजों का अभाव था। लेकिन बेदी, प्रसन्ना और चंद्रशेखर से ही बड़े-बड़े बैट्समैन को पसीना छूट जाता। हम इन लोगों के खेल से प्रेरित होते और तभी हमने कपिल देव की धमाकेदार विश्वकप की जीत देखी है। जिसने समूचे राष्ट्र को खेल-प्रेम में डुबो दिया था और लोग खुशी से झूम उठे थे। मगर यह सिर्फ प्रेम था, पागलपन नहीं।
मगर विगत दो दशकों में क्रिकेट का रंग-ढंग धीरे-धीरे बदल गया। बाजार ने क्रिकेट को भी अपने रंग में रंग लिया। मीडिया ने इसे गोद ले लिया। ऐसे में खेल में पैसे का हावी होना स्वाभाविक है। यहां भी बाजार ने एक बार फिर प्रामाणित कर दिया कि उसकी गिरफ्त में सब कुछ है। सच तो है, व्यवसाय, समाज, आर्थिक-नीति, राजनीति, खेल-नीति, कूटनीति सब कुछ आज बाजार ही संचालित करता है। यह आज के क्रिकेट के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है। इतना कि पूर्णतः व्यावसायिक हो चुके और साथ ही विज्ञापन संचालित इस खेल में अब कुछ भी सामान्य नहीं लगता और न जाने क्यूं कृत्रिमता का अहसास होता है। सामाचारपत्रों में क्रिकेट की जबरन हवा बनाने की कोशिश और मीडिया में क्रिकेट की घमासान से यह साफ हो जाता है। विश्वकप के बाद क्या? के जवाब में कइयों ने आईपीएल कहा। क्रिकेट का क्लबीकरण। बाजारवाद का खुला चित्रण। क्या यह क्रिकेट-प्रेमियों की भावनाओं के साथ खेले जाने का प्रमाण नहीं है? बिल्कुल अंधभक्त हो चुके क्रिकेट प्रेमी के मन में भी यह शंका पैदा करता है। और फिर ऐसी मारामारी देखकर सामान्य क्रिकेट-प्रेमी का लगाव कम हो तो कोई आश्चर्य नहीं। इस तरह की सोच वाले लोगों की संख्या कम नहीं। और फिर लोगों में इसकी नकारात्मक चर्चा तो है ही।
बहरहाल, मीडिया अपने उद्देश्य में सफल रहा। कुछ तो क्रिकेट पहले से पसंद करते थे, मगर कइयों को दीवाना मीडिया ने बना दिया। भारत-पाकिस्तान का सेमीफाइनल इसका बेहतरीन उदाहरण हो सकता है। मैच को चर्चा में लाने के लिए कोई कमी नहीं रखी गयी थी। और यह इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया था कि देश की भावना तक जुड़ गई। क्या हमारा राष्ट्रीय आक्रोश आजकल इस तरह से प्रकट होता है? अगर हां तो यह कई प्रश्न खड़े करता है। जवाब की तलाश में मैच की टिकट मिलने पर मैं भी वहां जाने के लिए तैयार हुआ था। जब बड़ी-बड़ी हस्तियां टिकटों के लिए परेशान हो रही हों और मीडिया इसके पीछे पागल हो रहा हो तो एक बार स्वयं प्रत्यक्ष रूप में देखकर अनुभव लेने की मन में इच्छा जाग्रत हुई थी। लेकिन फिर मैच शुरू होने के घंटों पहले जाना अखरा था और काफी दूर से पैदल धक्का-मुक्की के बीच पहुंचना, नया अनुभव था। इस तरह के विशाल सामूहिक आयोजन में ट्रैफिक व्यवस्था का अस्तव्यस्त होना स्वाभाविक है। और जब हर व्यक्ति चार-पाहिया वाहन में आने का प्रयास करे तो आसपास के इलाकों में परेशानी का अंदाज लगाया जा सकता है। ऊपर से महत्वपूर्ण और लोकप्रिय व्यक्तियों के आ जाने पर सुरक्षा व्यवस्था और जटिल हो जाती है। यह सवाल आज भी पूरे वजूद के साथ खड़ा होता है कि क्या अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को ऐसे आयोजनों में जाने से बचना नहीं चाहिए? माना उन्हें एक आम व्यक्ति की तरह इस तरह के कार्यक्रम देखने का शौक भी हो सकता है मगर फिर एक महत्पूर्ण व्यक्ति बन जाने की कीमत तो चुकानी ही चाहिए। अपना समर्थन और प्रोत्साहन तो दूर से भी दिए जा सकते हैं। खैर, यह मेरा पहला मौका था जब मैंने क्रिकेट को पैवेलियन छोर से देखा। यहां से मैच तकरीबन पूरी तरह साफ दिखाई देता है। बॉल एवं बल्लेबाज का हर एक मूवमेंट नजर आता है। यह यहां स्पष्ट रूप से महसूस हुआ कि गोलाकार मैदान के चारों ओर बैठे आम लोगों और पैवेलियन में बैठे खास के बीच उतना ही फर्क है जितना अंतर एक अमीर और गरीब के बीच होता है। शायद यही कारण रहा होगा जो इस सामंतशाही खेल में प्रारंभ से ही पैवेलियन को प्रमुख भवन और मुख्य व्यक्तियों के बैठने का स्थान बनाया जाता था। और बाकी बचा हिस्सा आम दर्शक के लिए होता। आज पैवेलियन पांच सितारा होटल की सुख-सुविधाओं से संपन्न हो चुके हैं। एक आम आदमी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। साथ ही यह ये भी प्रदर्शित करता है कि अमीर और गरीब में कितना फासला होता चला जा रहा है। मगर यह खेल में भी पूरी तरह से अपने विकाराल रूप में उपस्थित होगा, यह देखकर हैरानी होती है। अवाम इसे देखकर अभी अनदेखा कर रहा है, बीच-बीच में इस पर उसका चकित होना स्वाभाविक है। यह बढ़ती हुई असमानता समाज को किस ओर ले जाएगी? यहां एक प्रमुख सवाल है। आज क्रिकेट ने अपने सामंतशाही इतिहास को न केवल आगे बढ़ाया है बल्कि उसे और क्लिष्ट व विकृत रूप दे दिया है। पहले पैसे वाले क्रिकेट को शौक के रूप में खेला करते थे। अब इस खेल से पैसा, शक्ति, संबंध, व्यवसाय संचालित होने लगा है। अब यह मात्र खेल नहीं रहा, अब यह खुद लोगों के साथ खेलता है। हैरानी होती है इस बात को देखकर कि अवाम को उन्मादित कर उसे अपने फायदे के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। यहां सिर्फ खेल नहीं होता, नये संपर्क भी बनाये जाते हैं, नये व्यावसायिक समीकरण बनते हैं। और फिर लाखों-करोड़ों लोगों के बीच चर्चा में आने का इससे बेहतर मौका और कहां मिलेगा? जो लोग इससे जुड़े हैं या जुड़ने का दिखावा करते हैं, वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं। किसी आमजन से जुड़े क्षेत्र को इससे बेहतर और क्या प्लेटफार्म मिल सकता है? फिलहाल विश्वकप जीतने के बाद बाजार को एक नहीं कई खिलाड़ी मॉडल के रूप में उपलब्ध होंगे, जो अब उनका उद्देश्य पूरा करने का काम करेंगे। मैच के बाद असली खेल तो अब शुरू होगा। फिर भी इस बात का संतोष है कि इस उन्माद और पागलपन का नोटिस कई लेखकों के लेख में मिलने लगा है और स्तंभों में विरोध के शब्द फूटने लगें।
उस रात घर लौटते समय मेरे भी दिलोदिमाग पर जीत का एक प्राकृतिक नशा छाया हुआ था मगर सड़कों पर उतरे युवाओं का दृश्य देखकर यह उतरने लगा था। मोटरसाइकिलों पर युवा इधर से उधर भाग रहे थे। चौराहों पर जीत की खुशी के साथ-साथ अन्य कृत्रिम नशों का पूरा प्रभाव दिखाई दे रहा था। अधिकांश कारों में तेज स्टीरियों बज रहे थे और लोग छतों पर बैठे तो कुछ खिड़कियों में आधे अंदर तो आधे बाहर लटके हुए थे। खुशी तो थी और होनी भी चाहिए मगर उसके प्रदर्शन में अति हो रही थी। हादसों का डर था तो दुर्घटनाओं की संभावना बन रही थी। शहरों में सैकड़ों गाड़ियों की लाइन लग चुकी थी। खेल की भावना पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो देती है, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या यह वास्तव में राष्ट्र-प्रेम है? क्या खुशी प्रकट करने का यही एक तरीका आधुनिक सभ्य समाज का है? कहीं यह मस्ती और उन्माद के क्षणिक पल को प्राप्त करने का युवाओं का एक माध्यम मात्र तो नहीं? मीडिया और उसके उदघोषक व विशेषज्ञ इस क्रिकेट-प्रेम को चाहे जो कहें मगर इस अनियंत्रित भीड़ को देखकर हैरानी हो रही थी। यह हमें किस ओर ले जाएगा? यह कैसा राष्ट्रवाद है? क्या हमारे पास कोई और नायक नहीं रहे? शायद। इतिहास गवाह है जब-जब अवाम भ्रमित या उन्मादित हुआ या किया गया है, व्यवस्थाएं क्रूर और अधिक आत्मकेंद्रित हुई हैं। इस हिसाब से हम कैसे समाज की परिकल्पना कर रहे हैं? मैं इस मुद्दे पर आशंकित हूं।