My Blog
Articles, Personal Diaries and More
तनावपूर्ण जीवन
इस आधुनिक युग में मानवीय जीवन की कोई एक खास विशेषता, या पहचान भी कह सकते हैं, बतानी पड़ जाये तो तनाव से बेहतर कोई शब्द नहीं हो सकता। इस दौरान तकरीबन सभी के जीवन में तथाकथित विकास के ग्राफ के साथ-साथ तनाव का ग्राफ भी उतनी ही तेजी से बढ़ा है। इसमें क्या बच्चे, बड़े, जवान, औरत और आदमी? सब शामिल हैं। शुरुआत तो बच्चे के दुनिया में आते ही शुरू हो जाती है। खासकर आधुनिक मां-बाप को, बच्चे की जरा-सी छींक-खांसी से ही तनाव हो जाता है, दस्त होते ही तनाव, अधिक रोए तो तनाव, न रोये तो तनाव। जबकि यह सब प्राकृतिक प्रक्रियाएं हैं। दो-तीन साल का होते ही बच्चे को स्कूल भेजने का तनाव। और तब तक बच्चे में भी तनाव की शुरुआत हो ही जाती है। परीक्षा में अच्छे नंबर, खेल-कूद में ट्रॉफी से लेकर, किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने मात्र से तनाव हो जाता है। और कुछ नहीं तो दूसरे का खिलौना मेरे खिलौने से बेहतर कैसे? बच्चे बहुत छोटेपन से ही मां-बाप के तनाव को भी झेलने लगते हैं। उम्र के साथ उनके तनाव भी बढ़ते जाते हैं। बड़े होते ही अच्छे कॉलेज में प्रवेश का तनाव, फिर नौकरी का तनाव और फिर शादी होते ही तनाव अचानक दोगुना हो जाता है। हर अवस्था में मनुष्य यही सोचता है कि बस ये मुसीबत निकल जाए या समय बीत जाये तो तनाव समाप्त। लेकिन रिटायरमेंट के बाद वृद्धावस्था तक में भी तनाव कभी कम नहीं होता। क्या गरीब, क्या अमीर सब इसके चपेटे में रहते हैं। जिसके पास कुछ नहीं उसे कुछ पाने का तनाव है, जिसके पास सब कुछ उसे खो जाने का तनाव। अधिकांश जगहों पर यह भय से उत्पन्न होता है। असंतोष और असंतुष्टि शायद दूसरा बड़ा कारण हो। सच तो है, कहां भरता है मन? और चाहिए। और जिस दिन कुछ न मिले उस दिन तनाव। बड़े शहरों में, समय प्रारंभ से ही तनाव का एक कारण रहा है, मगर अब आम शहरों में भी मिनट के हिसाब से तनाव होने लगा है। बस, लोकल, ट्रेन को अगर दो मिनट भी देर हो जाये तो राहगीर को, बच्चे को स्कूल व कामकाजी को कार्यस्थल से आने में देरी होते ही घरवालों को घड़ी की ओर देखते हुए तनाव में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि आज का मानव बेवकूफ है, वो तो पढ़ा-लिखा है, यह दीगर बात है कि पढ़ने-लिखने ने अधिक तनाव पैदा किया है। वो समझदार भी है लेकिन ज्यादा समझ तनाव का अतिरिक्त कारण बनता जा रहा है। वो सतर्क तो है शायद इसलिए अपने तनाव को खत्म करने के लिए प्रयत्नशील होता है। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में भी अमूमन एक और तनाव जोड़ लेता है। लीजिए, ठीक ही तो है इस युग को तनाव का युग कहें तो क्या बुरा है?
तनाव के कारण बहुत से गिनाये जा सकते हैं। बहुत आसान हैं। सभी जानते हैं। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए मोटे तौर पर देखें तो ज्यादा पाने की इच्छा, महत्वाकांक्षा, चाहत, कुछ खोने का भय, वैज्ञानिक उपलब्धियों की आराम-तलबी और सबसे प्रमुख सामाजिक व्यवस्था का विघटन, मानवीय रिश्तों का कमजोर होना और परिवार की अनुपस्थिति। अब घर रहे कहां? वो तो सराय बन चुके हैं। जहां सब अपना-अपना वक्त बिताने आते हैं। बाजार ने संपूर्ण व्यवस्था को अपने नियंत्रण में ले लिया है, जो प्रतिस्पर्धा पैदा करता है, जिसके मूल में तनाव है। उधर, औरत ने आदमी के क्षेत्र में घुसपैठ तो कर ली, मगर क्या बस यही नारी का ध्येय है? आश्चर्य होता है। इस पर और बहस की आवश्यकता है। अपनी विशिष्ट पहचान के होते हुए भी दूसरे के रास्ते पर भागते हुए किसी की छाया को पकड़ना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। औरतों ने इस युग में अपने लिये तनाव का एक बहुत बड़ा, कभी न खत्म होने वाला इंतजाम कर लिया है। हमेशा इस बात पर भ्रम रहा है, मगर शायद ठीक ही हो कि उसके इस कदम से न केवल उसने, उसके परिवार और समाज ने भी बहुत कुछ खोया है। यह एक दोधारी तलवार है। घर में दोनों के कमाने से दोगुना पैसा तो आने लगा लेकिन साथ ही तनाव भी बढ़कर दोगुना हो गया। एक के तनावग्रस्त रहने पर दूसरे को तनाव होना स्वाभाविक है। लेकिन अगर दूसरा पहले से ही तनावग्रस्त है तो यहां तनाव का स्तर जुड़ता नहीं, बल्कि आपस में उलझकर कई गुणा बढ़ जाता है। बहरहाल, दोनों ही जानते हैं कि वे तनाव में हैं। घर में तो कोई और है नहीं। हां, अगर बच्चा है तो वह भी तनाव में आ चुका होगा। और इस तरह से तनाव का ग्राफ बढ़ता नहीं सीढ़ियों की तरह ऊपर तेजी से चढ़ता है। अतः नयी-नयी बीमारियों का होना स्वाभाविक है। ऐसे में आदमी डाक्टर के पास भागता है। पैसा खर्च करता है, अस्पताल की लाइन में खड़ा होता है, दवाइयां खाता है, ऑफिस से छुट्टी लेता है। ऐसे में चीजें और बिखरने लगती हैं। परिणामस्वरूप तनाव कम होने के स्थान पर और बढ़ने लगता है। हारकर वह कई बार गुरुओं-बाबाओं के चक्कर लगाता है। उनकी बातें सुनता है। खुद को शांत करने की कोशिश करता है, मगर दुनिया तो भाग रही है। उसे कहां चिंता? देख-देखकर उसका तनाव और बढ़ जाता है। वह यह तो जानता है कि तनाव है लेकिन यह नहीं जानता कि वह अंदर से पैदा हो रहा है और उसका इलाज भी उसी के पास है। दवाइयां, नये-नये आधुनिक मंत्र और तंत्र उसे कुछ पल के लिए सुकून तो दे सकते हैं मगर फिर वह आदी होते ही तनाव का एक और कारण बन जाते हैं। यह ठीक उसी तरह से है कि शराब के नशे में कुछ पल के लिए आदमी तो बहकता है लेकिन फिर नशे के उतरते ही शरीर टूटने लगता है।
असल में इस तनाव का इलाज हमारे पास ही है। वो भी छोटी-छोटी चीजों में। दूर जाने की जरूरत नहीं। कुछ पढ़ने की जरूरत नहीं। किसी सहायता की जरूरत नहीं। वैसे हम सब जानते हैं, मगर हमें अपने पर यकीन नहीं रहा। यही तो कारण है कि हमने तनाव पैदा कर लिया। क्या हमें याद है कि हमने अपने मन-पसंद गाने कितने दिन पहले सुने थे? वो भी गाड़ी चलाते हुए नहीं, क्योंकि यह तो तनाव पैदा करता है। कहीं बाहर नहीं, बल्कि घर में आराम से। स्नानगृह में हमने कितने साल पहले गाना गुनगुनाया था? कला जीवन में रंग भरती है। रंग-बिरंगे। यही नहीं, हर तरह का सृजन तनाव समाप्त करता है। घर के आसपास खेत-खलिहान न सही लेकिन एक छोटा-सा बगीचा तो होगा। और कुछ नहीं तो गमला ही होगा। क्या कभी ठहरकर बीज को अंकुरित होते हुए हमने देखा है? रोज सुबह उठकर पौधे को बढ़ते हुए देखना, कलियों का आना, फूल का खिलना, भंवरों का मंडराना, यकीनन तनाव को कम करते हैं। एक छोटे से कागज पर कुत्ते, बिल्ली और शेर, कुछ नहीं तो दो चोटी वाली मोटी-पतली बच्ची के चित्र को बनाने की कोशिश तो की ही जा सकती है। हर कोई चित्रकार तो नहीं हो सकता, तो क्या हुआ चित्र बनाने की कोशिश तो की जा सकती है। और न बनने पर कम से कम हंस तो सकता है। वैसे तनाव करने वाले इस बात पर भी तनाव कर लेंगे कि उसका चित्र ठीक नहीं बना। ऐसे आदमी को तो फिर कागज-कलम हाथ में पकड़ना भी नहीं चाहिए। शाम को सबके साथ या फिर अकेले ही घर में नाचा भी जा सकता है। हां, कुछ देर के लिए घड़ी की ओर देखना बंद किया जा सकता है। चलिए, अगर आपको खाना बनाने का शौक है तो रसोई में घुस जाइए, बना डालिए कुछ भी। यकीनन दोस्तों से बड़ा और वह भी अगर एक तरह के सोचने वाले हों तो, तनाव को खत्म करने के लिए कोई और दूसरा माध्यम नहीं हो सकता। परोस दीजिए उनको अपना बनाया खाना। खट्ठा-मीठा, पका-जला। हां, डर इस बात का है आधुनिक मनुष्य इस बात का भी तनाव कर सकता है, इसलिए यहां पर दिखावे की पार्टी या किट्टी पार्टी की बात नहीं हो रही, जहां कपड़ों, घर की साज-सज्जा और मेन्यू को लेकर भी तनाव हो जाता है। अगर ऐसा है तो इससे उलटा बचना चाहिए। तो फिर लौटते हैं प्रकृति की ओर, जो आप पर दबाव नहीं डालती, जवाब नहीं मांगती, वाद-विवाद नहीं करती, प्रतियोगिता नहीं करती, अपेक्षा नहीं रखती, उसे जिस भी दृष्टिकोण में देखेंगे, उसी रूप में दिखाई देगी। घर से दूर प्रकृति में जाना तनाव-मुक्त होने का अचूक साधन कहलाता है। हां, मगर पर्यटन में भी कई तरह के तनाव को नकारा नहीं जा सकता। व्यवस्थाजनित, समाजजनित, बाजारजनित असुविधाएं कई होती जा रही हैं। छोड़िये, घर से ही देखिए, चांद कितना सुंदर दिखाई दे रहा है। आप जहां भी हैं, जिस भी हाल में हैं, कुछ पल के लिए रुक जाइए, ताकते रहिए, आसमान में चमचमाते हुए तारों को, प्रतिदिन अपना स्वरूप बदलते हुए आकाश को। बरसात हो रही है तो भीग जाइए, जुकाम का तनाव मत करिये, कपड़े और कागज के गीले होने का तनाव मत कीजिए। यह तो फिर भी सूख जाएंगे लेकिन अगर आपने तनाव बनाये रखा तो आपका जीवन पूरी तरह से रेतीले रेगिस्तान की तरह प्यासी जमीन बनते देर नहीं लगेगी। जहां कभी हरियाली नहीं होती, चिड़िया नहीं चहचाती, फूल नहीं खिलते। क्या आप अपना जीवन रेगिस्तान में परिवर्तित करना चाहते हैं?