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बुद्धिजीवियों में दृष्टिदोष
इसे महज संयोग ही कहेंगे कि गोधरा और गुजरात दोनों ही शब्दों का प्रारंभ एक ही अक्षर से होता है। लेकिन सिर्फ इससे कोई समानता नहीं परिभाषित की जा सकती, न ही आपस में संबंध स्थापित किया जा सकता है। हां, यह संयोग नहीं है, इसे यथार्थ कह सकते हैं कि गोधरा गुजरात में है। यह बरसों से एक आम और अनजान कस्बा ही तो था। मगर इसे क्या कहें, समझना मुश्किल नहीं कि अचानक रातोंरात कैसे और क्यूं यह इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। इतना कि बाद में समूचा गुजरात उसी पर केंद्रित हो गया। यही नहीं गोधरा की हवा गुजरात में फैल गयी। और फिर दोनों विश्व की जुबान पर थे। प्रभाव (नकारात्मक) इतना अधिक था कि गोधरा और गुजरात अपने इस नये तत्कालीन रूप में देखे जाने लगे। दोनों ही के रूप वीभत्स थे। ये अमानवीय थे। सामान्यजन के लिए असहनीय थे। मानवीय इतिहास के दो काले अध्याय थे। आदिकाल से वर्तमान तक मानव के सामाजिक विकासक्रम की कहानी में इस तरह की अमानवीयता को समझना आसान नहीं। जो कि पूर्व में भी होती रहीं। स्थान बदलते रहे, नाम बदलते रहे, चेहरे बदलते गये, लेकिन अमानवीयता का स्वरूप नहीं बदला। आखिर क्यूं? जवाब सीधा और सरल नहीं। और मनुष्य को हर युग में इसकी तलाश रही है। मगर इसके लिए एक ही स्थान पर रुक जाना भी जरूरी नहीं। वैसे भी जीवन क्या किसी एक बिंदु पर ही सीमित व स्थिर रह सकता है? नहीं। समय के साथ प्रकृति में सबकुछ बदल जाता है। परिवर्तन तो ब्रह्मांड के रहस्य के मूल में है। लेकिन फिर हमारा असामाजिक व्यवहार क्यूं नहीं बदल पाता? कारण चाहे जो भी हो, हम इस कुचक्र से क्यूं नहीं निकल पाते? कुछ हद तक यह तो समझ आता है कि कइयों के जख्म जल्दी नहीं भरते और लोग गमों को दिल से लगाये तमाम उम्र बिता देते हैं। यह भावना का क्षेत्र है, यहां तर्क नहीं चलता। मगर इसे क्या कहेंगे जब कुछ लोगों को, जिनका इससे सीधा कोई संबंध नहीं होता, वे भी अपनी दोषपूर्ण दृष्टि के साथ इसे उलझाते रहते हैं। और वो भी भावावेश वाले कुछ पल के लिए नहीं, बल्कि सालों साल तक। वे क्यूं नहीं अपनी दृष्टि का दोष ठीक कर पाते? ऐसा नहीं कि इसकी संभावना नहीं होती, बल्कि वे इसे ठीक करना नहीं चाहते। और जब भी मौका मिलता है अपनी दोषपूर्ण दृष्टि के नजारे दूसरों को भी दिखाते रहते हैं। उपरोक्त संदर्भ में भी देखें तो इतने समय के बाद भी, कुछ एक की निगाह, हर बात पर, गोधरा तक ही जाती है तो कुछ सिर्फ गुजरात पर ही टिके रहते हैं। क्या यह उचित है? नहीं। मगर कुछ बुद्धिजीवियों के लिए तो शायद यह जन्मसिद्ध अधिकार है। बस यहीं से मुश्किल शुरू होती है। जो मूल त्रासदियों से भी अधिक तकलीफदायक होती है। ये हमारे दुखों को कम नहीं करती, भावनाओं को सहलाती नहीं बल्कि भड़काती हैं, तन में आग लगाती हैं। यही आग सुलगती हुई कब ज्वालामुखी बन जाती है पता नहीं चलता। बुद्धिजीवी और विशिष्टजन तो आगे निकल जाते हैं, किसी नये स्थान की नयी व्याख्या के लिए, मगर आम आदमी को पीछे नफरत की आग में छोड़ जाते हैं। शायद यह भी एक कारण है जो मानवीय इतिहास के काले पन्नों की पुनरावृत्ति होती रहती है।
सवाल यहां उठता है कि क्या गोधरा, गुजरात या इसी तरह की किसी भी घटना को अलग-अलग किया जा सकता है? क्या इनको अलग-अलग दृष्टि से देखा जाना चाहिए? नहीं। इन सभी ने अपने-अपने हिस्से की पीड़ा को सहा है। और उनका दर्द का रिश्ता है। इन सभी में और भी कई समानताएं हैं। यहां भी, दोनों ने अपनो को खोया है। दोनों की छाती पर बहने वाला लहू इंसान का था। मगर दुर्भाग्य कि कुछ लोगों को यह दिखाई नहीं देता। पिछले कई सालों से दोनों बंटे हुए महसूस होते हैं। कह सकते हैं कि बांट दिया गया लगता है। यहां तक कि बुद्धिजीवियों में भी एक वर्ग गोधरा के साथ खड़ा है तो दूसरा वर्ग गुजरात के साथ। यह लकीर बारीक जरूर मगर इतनी सशक्त है कि आराम से पढ़ी और समझी जा सकती है। इसके द्वारा इन वर्ग-प्रेमी बुद्धिजीवियों ने अपने पाठक वर्ग को भी पूरी तरीके से बांटने की कोशिश की है। इन शब्दों के जादूगरों द्वारा शब्दों के साथ ऐसा बेहतरीन खेल खेला जाता है कि साफ-साफ वर्गीकरण पहली नजर में दिखाई नहीं देता। क्या किया जाए? कहने को तो ये आदर्शवादी बुद्धिजीवी होते हैं मगर ये सिर्फ अपने वर्ग के साथ जुड़े होते हैं। क्या इनकी नजर इतनी कमजोर है? क्या इन्हें दूर-दोष है? अर्थात नजदीक का दिखाई देता है दूर का नहीं। तभी तो यह तर्क भी देते हैं तो सिर्फ एक के लिए। यहां यह बात भी नहीं कि जो संपूर्ण समाज के हित में बात की जा रही हो। थोड़ा-सा भी गौर फरमायें तो उनकी तमाम बयानबाजी के पीछे कोई न कोई व्यक्तिगत हित जुड़े हुए दिखाई देने लगते हैं। हकीकत में देखें तो ये अपने वर्ग के लिए भी नुकसानदायक ही होते हैं। बहरहाल, ये ऐसा समझते हैं कि वे बुद्धिजीवी हैं, इसीलिए आसानी से शब्दों से खेल लेंगे। वो मानते हैं कि पाठक तो बेवकूफ है। मगर क्या यह सत्य है? शायद नहीं। फिर भी कुछ भोले-भाले इनकी बातों में आकर अपने विचारों को दूषित कर ले जाते हैं।
गोधरा और गुजरात तो मात्र उदाहरणार्थ हैं, अन्यत्र भी अधिकांश बुद्धिजीवियों को दो वर्गों में बंटा हुआ देखा जा सकता है। जबकि हमारी आंखें उनके इंतजार में रहती हैं जो दोनों के लिए रोता हो। जो एक निगाह से देखता हो। दोनों के लिए एक समान तर्क करता हो। जो दोनों के पक्ष में सही बात के लिए खड़ा हो। और साथ देने का वायदा करे। जो दोनों के हित और न्याय की बात करे। यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण कि इन घटनाक्रम की पुनरावृत्ति होने से रोकने के लिए कारगर कदम सुझाये और उन्हें अमल में भी लाये। क्या निष्पक्षता यहीं से शुरू नहीं होती? क्या इससे निरपेक्षता परिभाषित नहीं होती? क्या यही असली धर्म की पहचान नहीं? क्या यह मानवता की सच्ची पुकार नहीं? कारण चाहे जो भी हों, हालात चाहे जो भी हों, सच-झूठ व गलत-सही के विश्लेषण से आगे, कारक चाहे जो भी हो, कर्ता चाहे जो हों, मगर अंत में दोनों ही ने मनुष्य को खोया है। क्या यह काफी नहीं कि हम तमाम बहसों को दर किनारे करके इस बात को सोचने के लिए मजबूर हो जाएं कि आखिर में जीत किसी की हो या न हो, हर हाल में दोनों जगह हार मनुष्य की ही थी। दूसरी सभी बातें यहां गौण हो जाती हैं। राजधर्म हो, समाज धर्म हो या मानवधर्म, धर्म तो इन सभी में बराबरी से जुड़ा हुआ है। तो फिर वर्गीकरण कैसा? इस अपेक्षित सत्य के बावजूद राजनीति, समाजशास्त्र और व्यवसाय के क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों के हित-अहित तो एक बार कुछ हद तक समझ में आते भी हैं मगर जब बुद्धिजीवियों को पूरी तरह से वर्गों में बंटा हुआ देखा जाता है तो समझना मुश्किल हो जाता है।
पिछले दिनों एक बार फिर एक से बढ़कर एक लोकप्रिय चिंतक और बुद्धिजीवियों के लेख और वक्तव्य पढ़ने को मिले। ये समाज में स्थापित हैं। इनकी बहुत इज्जत है। इनको पढ़ा और सुना जाता है। इन पर विश्वास किया जाता रहा है। मगर उनके द्वारा ये कैसा खेल? ध्यान से देखते ही साफ कहा जा सकता था कि इनमें से अधिकांश किस पक्ष से बोल रहे हैं, किस के लिए बोल रहे और कौन निशाने पर है। यह समाज के लिए अधिक हानिकारक और नुकसानदायक है। ये जख्मों को कुरेद-कुरेद कर उसे जहर बना देते हैं। इसमें मवाद जमा होता है जो फिर जल्द सूखता नहीं। सूख भी जाए तो दाग जाता नहीं। कई बार तो लगता है कि ये बुद्धिजीवी तो चाहते भी यही हैं कि जख्म हरा रहे, दर्द बना रहे। और इनके इलाज की दुकान चलती रहे। क्या ये इसी तरह की हरकतों से यहां तक पहुंचे? क्या इन्हें भी अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए विभिन्न पैंतरेबाजी की जरूरत पड़ती रही है? यह प्रमाणित तो यही करता है। तो क्या स्वतंत्र, स्वस्थ व निष्पक्ष विचार इनसे अपेक्षित नहीं? क्या इनके ज्ञान व सूचना की कोई प्रमाणिकता है? लगता है कि ये समाज के नैतिक दायित्व को निभाने के कारण सफल नहीं हुए, बल्कि किसी के द्वारा किसी के लिए आगे बढ़ाये गए हैं। कहीं ये थोपे तो नहीं गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि इनकी महानता विशिष्ट वर्गों के साथ अपनी प्रतिबद्धता के कारण स्थापित हो? कहीं ये भी सीढ़ी की बजाय अदृश्य हाथों के माध्यम से ऊपर लाकर खड़े कर दिये गये हों? कहीं इन्होंने भी तो अपनी ऊंचाइयों के लिए किसी जनसमूह के कंधों को प्लेटफार्म के रूप में इस्तेमाल तो नहीं किया? यहां तक भी समझ आता है लेकिन दुःख इस बात का अधिक होता है जब सिर्फ अपने ही लोगों की मौत पर विलाप करते हुए इन्हें देखा जाता है। कालांतर में भी, हालात और परिस्थितियां चाहे जो कहें, इन्होंने अपने ही मत व तर्क को आगे रखना है। क्या मौत अपनी और परायी भी हो सकती है? क्या इसे आंका जा सकता है? क्या इसे तुलनात्मक रूप में देखा जाना चाहिए? यकीन नहीं होता कि श्मशानघाट में एक शव पर विलाप करता हुआ व्यक्ति बगल वाले के आंसुओं को समझ न सके। ये चिंतक, बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता बने न बने, पहले एक मनुष्य बनने का प्रयास तो करें।