My Blog
Articles, Personal Diaries and More
घर के पिछवाड़े खेतीबाड़ी
दोपहर के दाल में लगी तड़के की सुगंध घर में चारों ओर फैल गयी थी। नाक में घुसकर इसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इतनी सौंधी और भूख को जगा देने वाली खुशबू बहुत सालों के बाद आयी थी। पता चला कि गांव से आये शुद्ध घी में डाला गया लहसुन, घर के पिछवाड़े की छोटी-सी जमीन पर पैदा किया गया था। ऐसे में दाल को स्वादिष्ट तो होना ही था। ऊपर से डाली गई हरी धनिया भी घर में ही हुई थी। प्याज और लहसुन की हरी पत्तियों के साथ धनिया की हरी पत्तियों को पीसकर बनाई कई चटनी भी लाजवाब थी। जबकि आज इसमें थोड़े नमक के अतिरिक्त और कुछ विशेष नहीं था। इस चटनी के साथ मुलायम मूलियां खाने का मजा ही कुछ और है। यह देखकर हैरानी हुई थी कि घर में उगी हुई मूलियां बाजार की मूलियों के सामने सींकिया पहलवान नजर आ रही थीं। ये आकार में शायद एक-चौथाई से भी कम होंगी। लेकिन इनके मिठास और तीखे मूल स्वाद का कोई मुकाबला न था।
वर्तमान में मिले हुए शासकीय निवास के पीछे थोड़ी-सी खुली जगह है। आज के युग में इसे ईश्वर की विशेष कृपा के रूप में देखा जाना चाहिए। वरना आधुनिक शहरों में इसे ‘लग्जरी’ कहेंगे। यूं तो खुली व खाली जमीन कई बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों या रईसों के घरों के आसपास आज भी मिल जाएंगी। मगर अधिकांश भाग को लोग साफ-सफाई के चक्कर में सीमेंट का कर देते हैं। या फिर बहुत हुआ तो घास की चादर बिछा दी जाती है। वैसे तो प्राकृतिक रूप से शारीरिक संदर्भ में देखें तो यह भी बहुत फायदे का सौदा है। इस पर नंगे पांव सुबह-शाम पैदल चलना कई बीमारियों को रोके रखने में सहायक सिद्ध होता है। अमूमन घास के चारों ओर फूलों के पौधे लगा दिये जाते हैं। कई गृहस्वामी नये-नये प्रजाति के सुंदर सजावटी (ऑरनामेंटल) पौधे लगाने में विश्वास करते हैं। इनमें अधिकांश विदेशी नाम के होते हैं। और यकीनन सुंदर होते हैं। मगर घर के चारों ओर आम, जामुन, अमरूद आदि के पेड़ लगाने का प्रचलन तेजी से समाप्त हो रहा है। पता नहीं क्यों? शायद इसे भी आधुनिकता की परिभाषा से जोड़ दिया गया है। जबकि यह गर्मी में ठंडक के साथ-साथ मौसम में ताजे फल भी खाने के लिए देते हैं। इनसे उत्पन्न होती है शुद्ध वायु और दृश्य भी मनोरम बन पड़ता है। इनकी हरियाली आंखों को सुकून देती है। पेड़ों पर आने वाली तरह-तरह की चिड़ियां, उनकी चहचहाट संगीत का आभास देती है। कोयल और तोते तो अच्छे लगते ही हैं कौओं की कांव-कांव भी इतनी बुरी नहीं लगती। इन पर पलने वाले असंख्य प्रकार के कीड़ों में प्रकृति की विविधता देखी जा सकती है। पेड़ की पत्तियों से बरसात के मौसम में पानी का टपकना मन को मोह लेता है। इन सबके बीच बैठकर घंटों बिताया जा सकता है। मगर पता नहीं क्यों आजकल साफ-सफाई के नाम पर एक नयी जीवनशैली और रहन-सहन की पद्धति प्रचलन में है। सब कुछ साफ और समतल, गोयाकि प्राकृतिक उपस्थिति पिछड़ेपन की निशानी हो। लगता है सीमेंटीकरण ही विकास का पर्याय बन चुका है। अधिक हुआ तो घर के भीतर भी छोटे-छोटे पौधे सजा लिये, बस। कुछ एक शौकीन निवासी अपने घरों के सामने अशोक वृक्ष से लेकर क्रिसमिस-ट्री जरूर लगायेंगे, लेकिन फलदार वृक्ष नहीं। यह फैशन में नहीं, और हो सकता है नयी पीढ़ी की निगाहों में सुंदर भी नहीं। और शायद इसीलिए आज हमें खाने के प्राकृतिक स्वाद का भी पता नहीं।
पूर्व में, स्थानांतरण पर आने वाले अधिकारी अपने सरकारी घर/बंगले में अमूमन तरह-तरह के वृक्ष लगाया करते थे। जबकि वो जानते थे कि जब तक यह वृक्ष फल देने लगेंगे तब तक उनका तबादला हो चुका होगा। मगर यह आम प्रचलन में था। पेड़ कोई लगायेगा और फल कोई खायेगा, कहावत यहां चरितार्थ होती थी। लोग इसे पुण्य से जोड़ते थे। यह भी एक तरह की संस्कृति की पहचान थी। कालांतर में वर्षों तक कहा भी जाता था कि अमुक-अमुक पेड़ अमुक-अमुक साहब अमुक-अमुक समय में लगा गए थे। घर में आने वाला हर नया रहवासी घर के इतिहास-भूगोल के साथ ही इन सब बातों को भी जान जाता था। मेरा बचपन भी काफी बड़े क्षेत्र में फैले बगीचे वाले घर में बीता। मुझे आज भी सामने लगे देसी आम के पेड़ व उसके स्वाद की याद है। मौसम में इतने आम फलते कि टोकरों में भरकर आसपड़ोस को भी दिये जाते थे। बगल में एक और आम का पेड़ था। यह विशिष्ट था। जिसके आचार की चर्चा दूर-दूर तक थी। साथ में हरी इमली का पेड़ था। जलेबी के आकार का फल। इसमें कई बीजों के चारों ओर लिपटा सफेद गुद्दी विशिष्ट स्वाद देता। यह फल आमतौर पर नहीं मिलता। शायद जंगली कहकर बिकता न हो। उसके बगल में बेर के छोटे पेड़ों का झुरमुट था। इसका खट्टा-मीठा स्वाद यादकर आज भी मुंह में पानी आ जाता है। रसोई की खिड़की के ठीक सामने सीताफल ÷शरीफा’ का पेड़ था। इसकी मिठास से भरी हुई रसीली गुद्दी सेब से भी बेहतर लगती। ये फल इतने बहुतायत में हुआ करते कि पककर गिरने लग पड़ते। जबकि भारत के कई शहरों में यह आज की तारीख में सेब से भी अधिक महंगे बिकते हैं। घर के पिछवाड़े पपीते के तीन-चार पेड़ थे। इस पर पपीता आकार में बड़ा तो नहीं फलता था लेकिन इसका स्वाद आज की तरह कृत्रिम नहीं होता। उसके गुण भी विशिष्ट थे। पिछवाड़े कोने में अमरूद के दो-तीन वृक्ष थे। जिस दिन कोई लालरंग वाला अमरूद निकल आये तो मेरा मजा दोगुना हो जाता था। केले के कई पेड़ थे। नीम और पीपल का पेड़ भी था। जिसकी मां पूजा किया करतीं। चारों ओर घनी झाड़ियां थीं, जिसकी समय-समय पर कटाई होती रहती। इसमें पशुओं से बगीचों को बचाने का लक्ष्य अधिक होता सुरक्षा भाव कम था। इसमें प्राकृतिक सौंदर्य भी था। इससे हरियाली दोगुनी हो जाती। आज इन हरी झाड़ियों को भी लोहे-ईंट की तथाकथित मजबूत दीवारों ने विस्थापित कर दिया है। यह दीगर बात है कि इससे चोरों को रोका नहीं जा सकता और पशु तो शहरों में बचे ही नहीं। बहरहाल, मुझे याद नहीं आता कि बचपन में कभी किसी एसी-कूलर की जरूरत पड़ी हो। इतने सारे पेड़ों के बीच स्थित घर में गर्मी कैसे आ सकती थी। मात्र पंखा चलाते ही पसीने का नामोनिशान नहीं होता था।
आज आधुनिक घरों में उपरोक्त खुली जगह का मिलना वैसे भी मुश्किल है। जहां हैं भी, वो भी व्यवस्थित रूप से प्राकृतिक नहीं। जब भी मुझे पता चलता है कि किसी गृहस्वामी या अफसर ने किसी पेड़ को कटवा दिया है तो दुःख पहुंचता है। यूं तो यह कानूनी जुर्म है। शायद इससे बचने के लिए इसीलिए चालाक मनुष्य कई तरीकों से इसे धीरे-धीरे नष्ट करता है। आज का पढ़-लिखा मानव जानकर भी अनजान बन जाता है कि वो अपनी ही प्राणवायु को दूषित कर रहा है। बहरहाल, अपने नये मकान में आगे और पीछे ऐसा कोई भी पेड़ नहीं जो मुझे छाया दे सके। फल का तो सवाल ही नहीं। पिछले दस सालों से रहने वाले इस घर के हर अधिकारी ने बगीचे के सौंदर्यीकरण पर काफी मेहनत की है मगर फिर भी कहीं कुछ कमी खटकती है। सौभाग्य से बागवानी का शौक मेरे परिवार में सभी को है। और इसीलिए घर के पिछवाड़े की खाली जमीन पर कई तरह की सब्जियां लगाई गई हैं। हर मौसम में घर में नये-नये स्वाद से भरपूर भांति-भांति के व्यंजन बनते है। जिनका लुत्फ मैं सबसे अधिक उठाता हूं। क्या आपने बथुये का रायता खाया है? जरूर खाया होगा, लेकिन अगर बथुआ घर का हो तो फिर स्वाद में फर्क देखिये। घर में उगी हुई छोटी-सी मिर्ची का तीखापन चखने लायक होता है। मेथी बहुत आसानी से लग सकती है और इसके परौंठे का मजा ही कुछ और होता है। तुलसी तो हर जगह लगाई जानी चाहिए और चाय में डालते ही स्वाद भी बढ़ा देती हैं। अरबी के पत्ते को बेसन में लपेटकर बने पकोड़ों का वो स्वाद होता है कि बाकी सारे पकोड़े उसके सामने फीके लगें। भिंडी और बैंगन भी बहुत आसानी से पैदा हो सकते हैं। केले भी इस मौसम में लगा दिये गए हैं। यह भारतीय संस्कृति में शुभ भी माना जाता है। कढ़ी-पत्ते के पेड़ का तो जवाब ही नहीं। पोहा और कढ़ी व दाल लाजवाब हो जाते हैं। और बगल में लगाया है पपीते का पेड़, जो शायद दूसरे साल तक फल देने लगें। कोने में एक आम के पेड़ को भी रोपा है। मैं यकीन से जानता हूं कि जब तक यह बड़ा होकर फल देने लगेगा तब तक मैं यहां से स्थानांतरित होकर जा चुका होंगा। लेकिन यह अपने आप में उस पूरे इलाके में पहला पेड़ होगा जो तनकर खड़ा होगा और शायद आसपास के लोगों को मीठे-रसीले आम के साथ-साथ छांव भी देगा। मैं चाहता हूं कि आसपास के बच्चे इस पर पत्थर फेंककर आम तोड़े, इस पेड़ पर चढ़े, लकड़ी के डंडे से आम तोड़ने की कोशिश करें। वो कंप्यूटर की काल्पनिक दुनिया से बाहर निकले और यथार्थ में बचपन का मजा लें। मेरी ईश्वर से एक ही प्रार्थना होगी कि कोई ऐसा घर का मालिक न आये जो इसे काटने की सोचे।