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मौसम में सनसनी
शीत लहर का प्रकोप जारी, पिछले दस साल का रिकार्ड टूटा, इस मौसम का सबसे ठंडा दिन, चंडीगढ़ श्रीनगर और शिमला से भी अधिक ठंडा, समूचा उत्तर भारत धुंध की चपेट में, अब तक 25 की मौत, कड़ाके की ठंड में जीवन अस्तव्यस्त, आदि-आदि। पिछले दिनों कुछ इसी तरह के शीर्षकों से अखबार के पृष्ठ भरे पड़े रहते थे। सर्दी के थोड़ा कम होते ही ‘ठंड का अभिमान टूटा’ लिख दिया गया था। कुछ ही महीने में गर्मी के मौसम के आते ही पारा के चढ़ने और गर्मी-पसीने-लू से बेहाल जनजीवन को लेकर समाचारपत्रों के शीर्षक भी बदल जाएंगे। यहां नये विशेषण लगाए जाएंगे। बरसात तक आते-आते नदियों के उफान और बाढ़ से भीषण तबाही की खबरें छापी जाएंगी। यहां भी कुछ नये शब्द नये तेवर के साथ उपस्थित होंगे। कुछ-कुछ कहीं-कहीं पानी में भीगते हुए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संदर्भित चुने हुए दृश्यों के साथ चिल्ला-चिल्लाकर बोलता दिखाई देगा। मगर इन सबके बीच एक तथ्य जो सभी में उपस्थित होगा वो है सनसनी। उपयोग में लिए गए शब्दों व दिखाए गए दृश्यों में एक तरह के डर में डूबा तीखापन होगा। और शब्दार्थ भय और भावार्थ भ्रम पैदा करते नजर आएंगे। आखिरकार क्यों? सर्दी के मौसम में ठंड नहीं होगी तो क्या होगी? और अगर यह कड़ाके की न पड़े तो उसका क्या मजा? उसकी उपस्थिति का अहसास न हो तो फायदा क्या? बर्फ के गिरते ही हम आनंदित जरूर होते हैं लेकिन दूसरे दिन ही बर्फ के जमते ही हमारे विचार पिघलने लगते हैं। क्यों? अब बर्फ गिरी है तो अपना असर तो दिखाएगी। सब कुछ हमारी सहूलियत, जरूरत और सोच के हिसाब से ही हो, कैसे संभव है? प्रकृति का भी अपना मिजाज है। उसके खेल हैं। उसकी मस्ती है। यही तो उसके रंग हैं। कलात्मकता है। चाल है, चक्र है। तो फिर उसमें भी सनसनी पैदा करने की कोशिश क्यूं?
ठंड को दिखाने वाले उपरोक्त विशिष्ट शीर्षक अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रदर्शित करते हैं कि अब हम ठंड का मजा नहीं लेते। या फिर यूं कहा जा सकता है कि अब हमें सर्दी अच्छी नहीं लगती। जिस बेसब्री से हम उसके आगमन की प्रतीक्षा करते हैं उससे कहीं अधिक उसके जल्दी से जल्दी जाने का हमे इंतजार रहता है। जबकि हकीकत में इनकी तीव्रता का भी अपना मजा है। मजेदार बात तो यह है कि गर्मी के आते ही हम उससे भी तुरंत परेशान होने लगते हैं। और बरसात में तो घर से बाहर निकलने तक में आगे-पीछे होने लगते हैं तथा घरों में अपने आपको कैद कर लेते हैं। यह हमारे परेशान होने की आदत जीवनभर लाइलाज बीमारी की तरह साथ-साथ चलती है। अब यह हमारा व्यवहार बन चुका है। नये जीवन का नया आदर्श। नये मापदंड। नयी जीवनशैली। नयी सोच। मगर इतना सब होने के बावजूद इस तरह की बात अब भी कहीं न कहीं खटकती हैं। और मन के किसी कोने से सवाल उठता है कि आखिरकार ऐसा क्यों? क्या मौसम की अति पूर्व में नहीं थी? बिल्कुल थी। शायद इससे भी कहीं अधिक। उलटा तब तो साधन भी नहीं थे। लेकिन हमारी संस्कृति इसे स्वीकार करती हुई, मौज-मस्ती मनाते हुए आगे बढ़ती थी। हमारी सभ्यता ने प्रकृति के हर स्वरूप को सिर्फ मन से स्वीकार ही नहीं किया बल्कि उसकी पूजा भी की है। इसी के मद्देनजर त्योहार रचे गए। यहां जीवन का उत्सव होता। जिसमें आनंद ही आनंद होता। सत्य भी है। हर मौसम के अस्तित्व की अपनी पहचान होती है और अपना विशिष्ट गुण। प्रकृति अपने उल्लास को हर दिन हर पल नये-नये रूप में प्रकट करती है। पृथ्वी उसकी रंगशाला है। कर्म भूमि है। जहां हर एक क्रिया में सृजन के बीज छुपे हुए हैं। यह नित नये सौंदर्य से भरी है। असल में मुश्किल यह है कि अब हमारे पास वक्त नहीं है कि हम ठहर कर उसे देख पायें, समझ पायें। हम महसूस नहीं कर पाते। उसका अहसास नहीं ले पाते, आनंद तो बहुत दूर की बात है। फास्ट फूड के युग में मौसम का मिजाज हमें तेज चलने से जब रोकता है तो हम परेशान हो उठते हैं। ऐसे में फिर हमें यह भी याद नहीं रहता कि ये मौसम के चक्र हमारे अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी हैं।
विश्व साहित्य प्रकृति से भरा पड़ा है। सराबोर है। डूबा हुआ है। दोनों की संवेदनशीलता, कलात्मकता और सौंदर्य-बोध साथ-साथ चलता है। रामायण-महाभारत में प्रकृति के विराट स्वरूप को स्वीकार किया गया है। यहां मौसम के विशिष्ट गुण कथा-प्रवाह में सहायक हैं। मगर अब कालीदास के मेघदूत को पढ़ने व समझने का किसी के पास वक्त नहीं। सुमित्रानंद पंत का छायावाद नजरों से ओझल हो चुका है। कबूतर और बादल संदेशवाहक का काम नहीं करते। खुले शारीरिक प्रदर्शन के दौर में प्राकृतिक बिंबों की आवश्यकता कहां रह गयी। निर्जीव मोबाइल-कंप्यूटर के युग में प्राकृतिक स्पंदन की क्या जरूरत? अब हम मौसम का नजारा भी कैलेंडर या स्क्रीन पर देखना पसंद करते हैं।
ठंड में बाजरे-मक्के की रोटी को मक्खन-घी और गुड़ के साथ खाना हमने न जाने कब से अचानक छोड़ दिया। अब हमें जब बताया जाएगा तो शायद हम खा भी लें। किसी फिल्म के हीरो या हीरोइन जिस दिन इसे किसी फिल्म में खा लेंगे, उस दिन यह एक बार फिर हमारा पसंदीदा व्यंजन होगा। फाइव स्टार होटल या पश्चिम के किसी होटल चेन में मिलने पर हम उस दिन इस खबर को सनसनी के रूप में परोसेंगे। बाजार इस बात को भी बेचने लगेगा। तब इसको भी ब्रांडेड करने की कोशिश की जाएगी। गांव के खेत-खलिहान तक में खाया जाने वाला हमारा प्रिय भोजन तब शायद एक नये रूप में नये नाम के साथ बाजार में उपस्थित होगा। और फिर हम रंग-बिरंगी पार्टी की भीड़ में घुसकर, कतार में लगकर इसे खाने-पाने के लिए लड़ते नजर आएंगे। जबकि यह तो हमारी संस्कृति में, हमारे पूर्वजों के रहन-सहन में, घर-घर में, सदियों से उपलब्ध है। मूंगफली व तिल से लेकर गाजर-मूली-साग और न जाने कितनी खाने की चीजें जो हमारी सेहत को मजबूत कर दे इस मौसम में प्रकृति ने हमें दे रखी हैं। सूखे मेवे की बात करते ही तुरंत गरीबी का जिक्र किया जाएगा। यह कुछ हद तक सही हो सकता है। मगर फिर हर वर्ग के लिए यहां कुछ न कुछ उपलब्ध है। लेकिन मुश्किल इस बात की है कि हमारी प्राथमिकताएं बदल गयी हैं। उपभोग समान से सजी दुकानें हमें अपनी ओर आकर्षित करती हैं। और खाने-पीने की जगह हम दिखने-रहने पर अधिक जोर देने लगे हैं। और फिर हम ही ने तो गली-मोहल्ले व चौराहों पर लकड़ी, कोयले और तमाम तरह के प्राकृतिक ईंधन से लगने वाला सामूहिक अलाव को धीरे-धीरे खत्म कर दिया। हमारे पास मोबाइल रिचार्ज और आईपीएल क्रिकेट देखने में खर्च करने के लिए तो पैसे हैं, लेकिन बादाम और किशमिश खाने के लिए नहीं, जो ठंड से लड़ने के लिए शरीर को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करते हैं। हमारी सोच और नयी जीवनपद्धति ने हमें और गरीब और भूखा कर दिया। पहले गरीबी जरूर थी मगर कोई गरीब भूखे पेट ठंड से किसी वीरान सड़क पर कभी मरता नहीं था। लावारिस लाशें अब आम हैं। महानगर हमारी ही देन है तो उसकी बीमारियों को भी हमें ही झेलना होगा।
बहरहाल, नये जीवनविकास की पद्धति ने हमें अपने आप से दूर कर दिया और हम प्रकृति के आम व्यवहार से भी परेशान होने लगे। जबकि धुंध में पेड़ पहाड़ नदी नाले और पंछियों के छुप जाने का दृश्य देखने का अपना ही आनंद है। शायद इस दृश्य को किसी भी रूप में मानवीय केनवास पर सजीव चित्रित नहीं किया जा सकता। हां, उसका प्रतिबिंब किसी फिल्म के सीन में देखकर हम अचंभित जरूर होते हैं। ठंड की गुनगुनाती धूप में घर के पिछवाड़े, छत पर, चुपचाप घंटों बैठे रहने का अपना ही आनंद है। मगर क्या करें? संकरी गलियों में बने डिब्बों से मकान में पहली बात तो धूप आती नहीं और अगर आती भी है तो उस वक्त हम रोजी-रोटी के लिए घर से दूर कहीं भागते-उलझते नजर आते हैं। जीवन संघर्ष का यह स्वरूप हमने खुद बुना है। ये रास्ते हमीं ने बनाए हैं। इसके लिए किसी और को दोष देना उचित नहीं। खेत-खलिहान में बैठने का, चौपाल में गपियाने का मजा शायद अब किताबों में ही पढ़ने को मिले। नहीं-नहीं, इसे लिखने व पढ़ने का भी अब वक्त कहां? अब तो समाचारपत्रों के शीर्षकों को पढ़कर ही सारी खबर को समझने की कोशिश की जाती है। शायद यही कारण है जो हम हर शीर्षक में सनसनी पैदा करने की कोशिश करते हैं। प्रकृति हमारे रहन-सहन, संस्कृति ही नहीं जीवन से भी गायब हो चुकी है। आत्मा के निकल जाने पर शरीर निर्जीव हो जाता है। सच तो है, हम संवेदनहीन मशीन ही तो बन चुके हैं।