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तीन घंटे में भाग्य का फैसला
विगत रविवार अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा एआईईईई को एक अभिभावक की हैसियत से देखने व समझने का मौका मिला। पता चला कि देशभर में इस वर्ष तकरीबन साढ़े नौ लाख बच्चे उपरोक्त परीक्षा में बैठे थे। ये संख्या हर वर्ष बड़ी तीव्रता से बढ़ रही है। जिसके पीछे जनसंख्या वृद्धि के अतिरिक्त भी कई कारण हैं। मगर इस वर्ष तो कुछ विशेष ही हुआ। सुना है कि पूना से भोपाल तक के लिए विशेष ट्रेन चलाई गई। जिससे उस क्षेत्र के बच्चे इस परीक्षा के लिए आ-जा सके। कहा जा रहा है कि परीक्षा में बैठने वाले छात्र इतने अधिक थे कि पूना में सभी को सेंटर नहीं मिल पाया। अब पता नहीं इस खबर में कितनी सच्चाई है, लेकिन यह सच है कि इसी तरह अन्य शहरों में भी यह परेशानियां रही होंगी, और अगर नहीं हुई तो आगामी वर्षों में होगी। परिणामस्वरूप परीक्षा के केंद्र व संबंधित शहरों की संख्या बढ़ेगी। चूंकि ऐसा लगता है कि छात्रों की संख्या को तो आगे भी निरंतर बढ़ना ही है। इस बेतहाशा वृद्धि के कई कारणों में से प्रमुख है इंजीनियरिंग के छात्रों को मिलने वाली ऊंची, बड़ी और अच्छी नौकरियां। बड़े-बड़े कारपोरेट और कारखानों द्वारा दी जाने वाली भारी-भरकम वार्षिक वेतन की राशि, जिसे देख-देख कर बच्चे ही नहीं उनके अभिभावक भी लालायित होते हैं। इंजीनियरिंग से मैनेजमेंट करने में आसानी होती है और फिर एक इंजीनियर द्वारा एमबीए कर लेने से एक और एक ग्यारह हो जाते हैं। यह भी एक कारण है इंजीनियर बनने की होड़ का। वैसे भी इस क्षेत्र में कम वर्ष पढ़कर भी अधिक जल्दी रिटर्न मिलने लगता है जबकि दूसरी तरफ मेडिकल की पढ़ाई बहुत लंबी, बोझिल व कठिन है, साथ ही यह महंगी भी है। उसके बाद आपका अस्पताल चले न चले, कोई जरूरी नहीं और फिर चिकित्सा के क्षेत्र में सरकारी नौकरियां न के बराबर हैं तो प्राइवेट अस्पतालों में अच्छी रगड़ाई मगर वेतन कम है। यही कारण है जो मेडिकल में बैठने वालों की संख्या एक तरफ कम हो रही है तो दूसरी तरफ इंजीनियर बनने वाले छात्रों की संख्या बढ़ने लगी है। व्यावसायिक युग है, मांग व पूर्ति का नियम तो लगेगा ही। यही वजह है जो हर शहर में इसी अनुपात में इंजीनियर कालेज की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ती जा रही है। और साथ बढ़ रही है कोचिंग सेंटरों की संख्या। आज कालेज व कोचिंग अपने आप में एक बहुत बड़ा व्यवसाय बन चुके हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब यह देखने को मिलता है कि कई कोचिंग सेंटरों व कालेजों के मालिक स्वयं बहुत पढ़े-लिखे नहीं और अधिकांश संस्थाओं में पढ़ाने वाले ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने स्वयं कोई बहुत बड़ी डिग्री नहीं ले रखी है। और जो पढ़ा है उसमें भी अव्वल रहे हों जरूरी नहीं। कइयों ने उन उच्च संस्थाओं का मुंह भी नहीं देखा होगा जिसके लिए वे पढ़ाते आ रहे हैं। मगर मार्किटिंग का जमाना है भेड़चाल का युग है। हर आदमी अपने बच्चे को कोचिंग में भिजवाकर अपनी जिम्मेवारी से मुक्त होना चाहता है और फिर जल्दी से जल्दी उसका फल भी पाना चाहता है। नतीजा है कि उच्च और अच्छे संस्थानों में दाखिले के लिए प्रतिस्पर्द्धा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
एक दोस्त के बच्चे की आपबीती सुनकर यह लेख लिखने की इच्छा जाग्रत हुई। यह बच्चा बचपन से अति प्रतिभाशाली है। हर क्षेत्र में आगे। पढ़ाई में अव्वल। स्कूल में खेलकूद हो या वाद-विवाद सदैव आगे। स्कूल का कप्तान भी था। बारहवीं की पढ़ाई भी अच्छी कर रखी थी। अचानक दो दिन पूर्व चिकनपाक्स हो जाने के कारण उपरोक्त इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाया। और इस तरह से न केवल उसका साल बल्कि पूरा का पूरा करिअर दांव पर लग गया। वो इस वक्त बेहद हताश है। लोग इसे दुर्भाग्य कह सकते हैं। इसी तरह से कई बच्चे स्कूल व कोचिंग तथा बोर्ड व प्रवेश परीक्षा दोनों का भार एक साथ नहीं सह पाते और असफल हो जाते हैं। कई होशियार बच्चे तीन घंटे की परीक्षा में तीव्रता नहीं रखते मगर होते तेज बुद्धि के हैं। कई बच्चे तमाम उम्र पढ़ाई में आगे रहते हैं लेकिन प्रतियोगी परीक्षा में विभिन्न कारणों से अचानक पिछड़ जाते हैं। दूसरी तरफ कई बार सामान्य बच्चों को इन परीक्षाओं में आगे निकलते देखा गया है। यहां प्रश्न उठता है कि क्या इंजीनियरिंग के लिए चुनाव का यह तरीका सही है? माना इतनी बड़ी संख्या में प्रतियोगी छात्र होने पर किसी न किसी को कोई न कोई तरीका तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा जिसके माध्यम से लाखों में से हजारों को चुना जा सके। यह बात भी सही है कि सरकार भी इस क्षेत्र में समय-समय पर आवश्यकतानुसार बदलाव करके उसमें बेहतरी लाने की कोशिश करती रहती है। लेकिन एक राय पर, जो सभी को उपयुक्त लगे सरलता से पहुंच पाना संभव नहीं। मगर सुधार की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में यह विचार मन में आया कि एक छात्र जो जिन्दगीभर, बचपन से लेकर आज तक, सदैव हर क्षेत्र में अव्वल रहा हो, उसका आगे का संपूर्ण करिअर सिर्फ इसलिए नहीं समाप्त हो जाना चाहिए कि किसी कारणवश वो तीन घंटे की परीक्षा न दे सका या उसमें पिछड़ गया। सिर्फ तीन घंटे के अंदर चंद सवालों से उसका संपूर्ण भविष्य तय नहीं किया जाना चाहिए। यहां सिर्फ एक ही सवाल अनायास उभरता है कि क्या जीवनभर अव्वल रहने की कोई कीमत नहीं?
वर्तमान युग में, छोटे बच्चों की वार्षिक परीक्षाएं समाप्त की जा रही हैं। उद्देश्य है उस पर कम से कम मानसिक बोझ पड़े। परिणामस्वरूप उसके व्यक्तित्व का सही मायनों में विकास हो सके। लेकिन फिर दूसरी तरफ एक अचानक इतने बड़े पहाड़ समान और महत्वपूर्ण परीक्षा के द्वारा भाग्य का फैसला, क्या वो इसके लिए तैयार हो पाता है? सिर्फ एक परीक्षा से इतना बड़ा फैसला! नहीं, यह ठीक नहीं। होना तो यह चाहिए कि वर्षों के उसके परफार्मेंस को भी देखा जाना चाहिए। यही नहीं, हर स्कूल के अपनी-अपनी मार्किंग की पद्धति होने के बावजूद छात्रों को बचपन से मिलने वाले विभिन्न कक्षाओं के नंबरों का, उसके विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेने की उमंगता का, जोश का, उसके जीवन व करिअर के बनने में कहीं न कहीं महत्व जरूर होना चाहिए। इस चयन प्रक्रिया के बनाने में मुश्किलें आ सकती है। लेकिन असल होशियार को ढूंढ़ने के लिए थोड़ी मेहनत तो जरूरी है। यह भी वास्तविकता है कि हर शहर में अच्छे-बुरे हजारों स्कूल हैं और सभी के छात्रों को उनके स्थानीय परीक्षा के परिणाम के पैमाने मात्र पर आपस में तौला नहीं जा सकता। चूंकि हर स्कूल के अपने-अपने मापदंड और प्रणाली है। इसलिए अपनी-अपनी परीक्षाओं में से निकली हुई प्रतिभाओं को दूसरे स्कूल के परीक्षा परिणाम से तुलना करना उचित न होगा। लेकिन फिर बोर्ड की परीक्षाओं का महत्व तो कम से कम कहीं न कहीं होना चाहिए। कई विश्वविद्यालयों में प्रतियोगी परीक्षाओं एवं बोर्ड की परीक्षाओं का सम्मिश्रण करके मैरिट बनाई जाती है। लेकिन इनकी संख्या अभी न के बराबर हैं। वैसे आजकल बोर्ड परीक्षाओं में भी स्कूल के नंबरों का प्रतिशत जुड़ने लगा है। जो कि एक बेहतर तरीका है। इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए विभिन्न कक्षाओं के परफार्मेंस को भी महत्व दिया जा सकता है। हां, इनका अनुपात कम रखा जा सकता है। मगर होना जरूर चाहिए। बचपन से लेकर बड़े होने तक निरंतर अच्छा रिजल्ट देने वाले को जरूर पहचान मिलनी चाहिए। इससे बच्चों में जीवनभर लगातार मेहनत करने की आदत पड़ेगी और वह किसी एक परीक्षा को पढ़ना छोड़ सदा पढ़ने के लिए प्रेरित होंगे। हां, यह कहा जा सकता है कि स्कूलों में बहुत ज्यादा भाई-भतीजावाद चलता है और अपनों को अधिक से अधिक आगे बढ़ाने की कोशिश की जाती है। लेकिन फिर इसका भी कोई न कोई उपाय तो ढूंढ़ना होगा अन्यथा तीन घंटे में छात्र का भविष्य सुनिश्चित होता रहेगा और बचपन से लेकर बारहवीं तक पढ़कर पाये गए नंबर सब व्यर्थ जाएंगे।