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सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन
क्या आपने कभी सड़क पर चलते हुए किसी हिंसक हमले का सामना किया है? वो भी अचानक। बिना किसी आपकी गलती के। क्या आप पर पत्थर फेंके गए हैं? क्रुद्ध भीड़ ने क्या आपकी गाड़ी का घेराव किया है? वो भी तब जब आप एक आम सभ्य नागरिक की तरह चुपचाप अपने रास्ते पर चले जा रहे हैं। और तो और, आपका उन पत्थर बरसाने वाली क्रोधित भीड़ में शामिल किसी भी इंसान से दूर-दूर तक कोई संबंध न हो। न दोस्ती न दुश्मनी। ऐसे में साफ है कि आप इस घटनाक्रम के लिए तैयार भी नहीं होंगे। न तो शारीरिक रूप से न ही मानसिक रूप से। चूंकि आप ने कुछ किया ही नहीं तो आपको पता कैसे हो सकता है? और आप अपनी मंजिल की ओर अपनी धुन में बढ़ रहे होंगे। इसी बीच एक अनजान भीड़, जो किसी चौराहे पर पहले से खड़ी हो और आप जैसे ही वहां से गुजरें, आप पर पत्थरों से हमला कर दें तो आप क्या करेंगे? कैसी प्रतिक्रिया देंगे?कैसा महसूस करेंगे? यह एक भयानक अनुभव होगा। इसे हम हादसा कहेंगे। मगर इसकी गंभीरता का आकलन व्यक्तिगत रूप से सामना करने पर ही किया जा सकता है। इसके बिना वर्णन करना तो असंभव है।
हां, मैंने इस तरह की घटना-दुर्घटना का सामना किया है। विगत सप्ताह ऑफिस से घर लौटते समय एक चौराहे पर खड़ी भीड़ अचानक हिंसक हो गयी। दुर्भाग्यवश, ठीक उसी वक्त जब मेरी गाड़ी उस स्थान से गुजरने को थी। उनमें से किसी भी व्यक्ति का दूर-दूर तक हमसे कोई संबंध नहीं था। न अच्छे में न बुरे में। वाहन और वाहन चालक की कोई गलती भी नहीं थी। उलटे अनुभवी ड्राइवर ने भीड़ को देख अन्य वाहनों के पीछे-पीछे बड़ी समझदारी से बगल के एक रास्ते में अपनी गाड़ी भी लगा दी थी। हमारी तरह आगे चलने वाली कुछ अन्य गाड़ियां भी अचानक मुड़ी थीं। मगर तब ही अचानक पत्थरों की बरसात पीछे से शुरू हुई तो हम घबराये थे। यह अप्रत्याशित था। गलत दिशा में बचाव के लिए मुड़ जाने से आगे ट्रैफिक जाम की स्थिति थी और गाड़ी धीमे चल पा रही थी। ऊपर से पीछे से पत्थरों की मार। यह सब कुछ पलक झपकते ही प्रारंभ हो गया था। ऐसे में कुछ भी समझ पाना मुश्किल था। एक बार तो मन में विचार आया कि गाड़ी से निकलकर सड़क किनारे चुपचाप जा खड़ा हो जाऊं। मगर ड्राइवर ने ऐसा करने से रोका था। भीड़ की मानसिकता का पता नहीं। और अंत में हारकर हम इस घटनाक्रम को झेलते रहे। अफरा-तफरी में गाड़ियां आपस में उलझकर धीरे चल पा रही थीं। इसे ईश्वर की महिमा ही कहेंगे कि सैकड़ों पत्थरों की मार से कार को बेहद क्षति हुई, शीशे टूटे, दरवाजे टूटे मगर भाग्यवश हमें एक भी पत्थर नहीं लगा। हो सकता है गुजरने वाले अन्य वाहनों में से कुछ एक राहगीर को चोट आई हो। जब ड्राइवर ने अचानक रास्ता बदला था तो उस वक्त एक सेकेंड के लिए तो मैं कुछ समझ नहीं पाया था, बाद में ही अपने आप बात स्पष्ट हो रही थी। हां, पहले पत्थर की आवाज से अचानक दिल और दिमाग पर एक झटका-सा लगा था। पूरे शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई थी। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान इसका कारण समझ के बाहर था। मस्तिष्क कुछ समझकर कोई क्रिया कर पाता तब तक पत्थरों की बरसात से बचने के लिए दिमाग अनायास ही अपने शरीर को बचाने के लिए क्रियाशील हो रहा था। पत्थर की चोट की आवाज से घबराहट का होना स्वाभाविक था और बदहवास हालत में डर प्रारंभ हुआ था। हमारे पीछे एक विशालकाय ट्रक भी उस छोटे से रास्ते पर उतरकर भागने की कोशिश में था और शायद आखिरी वाहन था। यह हमारे लिये एक ढाल बनकर आया था। जिससे हमारा अतिरिक्त बचाव हुआ। कुछ मिनट बाद ही किसी तरह वहां से निकलकर, थोड़ी दूर पहुंचकर, मैंने एक लंबी सांस ली थी। और फिर तेजी से हम और दूर तक चले गए थे। कुछ किलोमीटर पर जाकर ही रुके थे। मानों किसी बुरे सपने से बाहर निकले हों, मौत के मुंह से बचकर आए हों। अंदर गाड़ी में देखा तो कांच और पत्थर भरे पड़े थे। घर पहुंचने पर देखा कि कांच के टुकड़े मेरे कपड़ों और बालों में भी घुसे और फंसे थे। हमें तब तक भी नहीं पता चल पाया था कि आखिरकार पत्थरबाजी हुई क्यूं?
इस तरह की घटनाओं को हम समाचारपत्रों में पढ़ते रहते हैं और मीडिया में भी अमूमन देखते हैं। मगर स्वयं सामना करने पर ही इसकी भयावहता का अंदाज लगाया जा सकता है। यूं तो इसके कारण कई होते हैं। मसलन, कई बार सड़क पर दुर्घटना हो जाने पर, बस्ती में से किसी को चोट लगने या घायल की मौत हो जाने पर तुरंत आसपास के लोग इकट्ठा हो जाते हैं और अमूमन गाड़ियों को रोकने और तोड़ने लगते हैं। हाईवे पर स्थित बस्तियों में ऐसा अकसर होता रहता है। दुर्घटना करने वाली गाड़ी पकड़ में आने पर उसके साथ तो तोड़-फोड़ की ही जाती है मगर बेकसूर लोग भी चपेटे में आ जाते हैं। कई बार तो कसूरवार भाग जाता है और बाकी बेवजह फंस जाते हैं। किसी मोहल्ले में कुछ हादसा हो जाने पर पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई न करने पर रास्ता रोकने व पत्थर बरसाने की प्रतिक्रिया अकसर की जाती है। स्थानीय प्रशासन के खिलाफ भी ऐसा अकसर किया जाता है। राजनीतिक कारणों से भी चक्का-जाम और पत्थरबाजी हम सुनते रहे हैं। आंदोलन, हड़ताल, बंद, रास्ता रोको, फिर चाहे वो छात्रों का हो, मिल मजदूरों का हो, किसी संस्था के कर्मचारियों का हो, राजनीतिक पार्टी का हो, यहां तक कि कभी-कभी धार्मिक संस्था के भक्तजन भी नाराज होकर व्यवस्था के खिलाफ रोष दिखाते हुए कुछ इस तरह की हरकत कर जाते हैं। सड़कों पर गाड़ियां रोकने लगते हैं। कई बार वाहनों में आग लगा दी जाती है। निर्दोष यात्रियों को पीटा तक जाता है। इनमें से अधिकांश बेचारे वो होते हैं जिन्हें इन दुर्घटनाओं या प्रशासनिक व्यवस्था से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं। वो उस व्यवस्था के भागीदार भी नहीं, उन्हें शासन से भी कोई लेना-देना नहीं। वे किसी भी तरह से किसी भी अनहोनी के लिए जिम्मेदार नहीं होते। कई बार तो उन्हें यह भी पता नहीं होता कि पत्थर मारने वाली भीड़ चाहती क्या हैं? वो हैं कौन? और जाने-अनजाने ही वे उनके क्रोध का शिकार हो जाते हैं।
ऐसी परिस्थिति में एक अजीब-सा संबंध स्थापित हो जाता है, पत्थर फेंकने वाले और पत्थर खाने वाले के बीच। अमूमन पत्थर खाने वाला पत्थर फेंकने वाले के प्रति एक दुर्भावना को पैदा कर लेता है। और यह स्वाभाविक भी है। वैसे तो पत्थर फेंकने वाले का रोष समझा जा सकता है, मगर सबसे मजेदार बात तो यह है कि कई बार भीड़ में शामिल लोगों को भी यह नहीं पता होता कि वे पत्थर क्यों चला रहे हैं? कई बार खेल-खेल में, कई बार भावनाओं के तहत, कई बार जोश में और कई बार गुस्से में वे ऐसा करते हैं। कई बार यह जान-बूझकर प्रेरित किया जाता है। पत्थर फेंकने के लिए उकसाया जाता है। कई बार इससे बात बहुत बिगड़ भी जाती है और स्थिति अनियंत्रित हो जाती है। और अगर न भी बिगड़े तो उनकी हालात समझिये जो इससे चोटग्रस्त हो जाते हैं। उनका कसूर क्या है? कुछ जिंदगीभर के लिए अपाहिज तक हो जाते हैं। अधिकांश को आर्थिक हानि तो होती ही है, कभी-कभी मौत तक हो जाती। सबसे बड़ी बात कि पीड़ित व्यक्तियों के मन में नकारात्मक भावना पैदा होती ह,ै जो जिंदगीभर के लिए जहर बनकर रह जाती है।
कहने वाले शिक्षा देने की तर्ज पर यह कह सकते हैं कि पत्थर फेंकने से पहले फेंकने वालों को यह तो देख ही लेना चाहिए कि सामने वाला इंसान उस बात का दोषी है भी या नहीं? वो भी आप ही की तरह एक आम आदमी तो नहीं? हो सकता है वह भी एक पारिवारिक इंसान हो ? क्या वास्तव में उसका कोई गुनाह है? अगर नहीं तो कम से कम यह तो सोचना ही चाहिए कि इस प्रतिक्रिया से क्या आपको कोई फायदा होगा? क्या आपका गुस्सा किसी ऐसे व्यक्ति पर तो नहीं उतर रहा जो आपके क्रोध के लिए लिए कहीं से भी जिम्मेवार नहीं? रुक कर सोचिये, कि आप कैसा जघन्य अपराध करने जा रहे हैं? एक पाप जिसे कभी माफ नहीं किया जा सकता। निहत्थे और निर्दोष पर हाथ उठाना वैसे भी शास्त्रों के हिसाब से स्वीकार्य नहीं। मगर ये सब भीड़ नहीं सोचती। उसकी कोई मानसिकता नहीं होती। उसके पास समझने की न तो शक्ति है न ही वक्त। वो तो बस भेड़-चाल की तरह आगे बढ़ती जाती है। इसे रोकना इतना आसान नहीं। यह बर्बादी का प्रतीक है और समाज में अराजकता और अव्यवस्था फैलाने का प्रमुख कारण। इसलिए सदा ध्यान रहे, कहीं आप भी किसी भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रहे?