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ठंड का मजा लो
पहाड़ों पर कड़ाके की ठंड में जाने का मजा ही कुछ और है। यूं तो इस मौसम को ऑफ सीजन घोषित कर दिया जाता है मगर गिरती हुई बर्फ देखने के चक्कर में कुछ विशेष नामी स्थानों पर पर्यटक पहुंच ही जाते हैं, विशेषकर छुट्टियों में, वरना आमतौर पर यहां इतनी भीड़भाड़ नहीं होती। चलो इसी बहाने पर्वत की चोटियां अपने मूल स्वरूप में दिखाई तो पड़ जाती हैं। वरना यह तो लोगों से भरी पड़ी रहती हैं। हां, वादियों में टहलते हनीमून के जोड़े अमूमन सर्दियों में भी दिख जाते हैं, क्योंकि हिन्दुस्तान में शादियों का मौसम भी इन्हीं दिनों होता है। और आधुनिक चलन की परंपरा अनुसार अधिकांश युवा दंपति अपने निजी लम्हों को यादगार बनाने, उन्हीं सुनी-सुनाई जगहों पर जाना पसंद करते हैं जो प्रचलित और प्रसिद्ध हैं। इस मुद्दे पर मुझे प्रारंभ से ही मतभेद रहा है। घर के अंदर ही सामान्य स्वतंत्रता के साथ-साथ भरपूर समय और निजता मिलती हो तो बाहर जाना मूर्खता है। इसके कई फायदे गिनाये जा सकते हैं। हां, शादीशुदा जोड़ों को अपना दूसरा व तीसरा हनीमून मनाने जरूर इन जगहों पर जाना चाहिए। बहरहाल, कुछ घूमने के शौकीन मिजाज लोग, हर उम्र में पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित इन रमणीक स्थानों पर पहुंचते रहते हैं।
विगत दिसंबर की ठंड में पठानकोट के रास्ते सपरिवार मैं डलहौजी पहुंचा था। हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में स्थित यह छोटा-सा पहाड़ी कस्बा बिल्कुल शांत और अपने आप में खामोश दिखाई दिया था। अभी तो सिर्फ देर शाम ही हुई थी, मगर पहुंचने पर लगा कि मानो सारी बस्ती सो चुकी हो। सड़कें वीरान थीं। यह मेरे लिए थोड़ा हैरान करने वाला था। जम्मू-जालंधर और अमृतसर-लुधियाना जैसे बड़े व जिंदा शहरों से बहुत अधिक दूर न होने पर भी बाजार में पर्यटक कम दिखाई दे रहे थे। यूं तो कम भीड़भाड़, मुझे पसंद है फिर भी चहल-पहल के बिल्कुल न होने से मन में जिज्ञासा का उठना स्वाभाविक था। स्थानीय ड्राइवर से पूछने पर कोई खास कारण पता न चल सका था। होटल पहुंचकर कर्मचारी से पूछने पर उसने एक हल्की-सी मुस्कान बिखेरी थी। उसके लिए तो उसके होटल के सभी कमरे आरक्षित होना ही उसके लिए एक उपलब्धि थी। और वह उतने मात्र से संतुष्ट था। वैसे यह मेरी जिज्ञासा को बढ़ाने में एक और बिंदु बन रहा था मगर इसके अतिरिक्त भी मेरी हैरानी बढ़ने के कई कारण थे। मसलन सेना की छावनी होने के बावजूद यहां कई ठीक-ठीक होटल उपलब्ध हैं। वैसे होटल के लिए मारामारी तो नहीं दिखी मगर सभी तकरीबन बुक लगे। तो फिर पर्यटक गए कहां? कहीं ठंड से बचने के लिए कमरों में दुबके हुए तो नहीं हैं? खैर, यहां सामान्य रेट पर सभी आवश्यक आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ ही ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, अंग्रेजों की विरासत और प्रकृति का अपना अनोखा प्रस्तुतीकरण, एक साथ अलग-अलग अंदाज में आज भी नैसर्गिक रूप में जिंदा है। हवाओं में शुद्धता है तो तरलता के साथ ठंडक भी। सर्पीले रास्ते में, एक के बाद एक अचानक आते, सुभाष चौक और गांधी चौक। विभिन्न दिशाओं से आते आठ रोडों का अनोखा रोड जंक्शन। जिसके चारों ओर बसा कस्बा। यह तमाम बातें मेरी उत्सुकता को बढ़ाने के लिए काफी थे। मैं सुनसान रास्ते पर पैदल ही पहाड़ का मजा लेने निकल पड़ा था। यहां एक बात फिर से सच साबित हुई थी कि पहाड़ों पर रास्तों और मौसम का पूर्व अनुमान लगाना मुश्किल है। कहां से कौन कब अचानक आ टपके? मोड़ पर मुड़ते ही अचानक कोई छोटा-सा सुंदर होटल दिखाई पड़ जाता। मध्यमवर्गीय होटलों की संख्या यहां अच्छी-खासी है। इसके बावजूद यहां शिमला-मनाली की तरह माल रोड पर लोगों की भीड़ नहीं होती। धक्का-मुक्की का तो सवाल ही नहीं। कह सकते हैं, एक पहाड़ जो अपनी ऊंचाई की तरह ही सौम्य और गंभीर भी है। यहां कोई कोलाहल नहीं है। बाजार अति आधुनिक नहीं, लेकिन रोजमर्रा की हर वस्तु आसानी से मिल जाती है। इस संदर्भ में सवाल यहां यह भी उठता है कि पहाड़ों पर इन आधुनिक तामझाम और प्रदर्शन की आवश्यकता भी क्या है? सोचने वाली बात है कि पहाड़ों का सौंदर्य प्रकृति के कारण है और अगर वही न हो तो ये भी दूसरे किसी आम स्थल की भांति हो जाएंगे। मगर अमूमन पहाड़ों पर आकर भी हम उन्हीं चीजों को ढूंढ़ते हैं जो हमें नीचे जमीन पर आकर्षित करती हैं। और फिर इसी को ध्यान में रखकर व्यवसायी मुनाफे के चक्कर में बाजार को भर देता है। यही चाहत और बाजार की प्रतिस्पर्धा पहाड़ के कौमार्य को नष्ट कर रही है। लेकिन डलहौजी इस कुचक्र से बहुत हद तक बचा हुआ प्रतीत होता है। बाजार का अंधानुकरण न होने से जहां बेवजह दुकाने नहीं सजती, फैशन परेड नहीं लगती, स्लीवलेस-बैकलेस के द्वारा शरीर का प्रदर्शन नहीं हो पाता और युवक अपनी बलिष्ठ भुजाओं और मांस-पेशियों को नहीं दिखा पाते। ठंडी हवा के बहने से आमतौर पर लोग ऊपर से लेकर नीचे तक गर्म कपड़ों से ढके होते हैं।
सभी चौराहों पर देसी अंदाज में गर्मागरम उबले अंडे और आमलेट खाने वाले लोग दिख जाएंगे तो गर्म-गर्म जलेबी के शौकीनों की भी कमी नहीं। चाइनीज भी ठेलों पर खूब बिकता है। अपने अलग अनोखे देसी स्वाद में कहीं कोई कमी नहीं। एक तथ्य जिसने मुझे अचरज में डाल दिया था कि यहां किसी रेस्टोरेंट में शराब नहीं मिलती। क्यूं? पूछताछ करने पर भी किसी सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाया। एक सरल जवाब जरूर मिलता कि लाइसेंस नहीं है। मगर क्यूं? क्या इसका कारण, महज कम पर्यटकों के कारण किसी रोस्टोरेंट के द्वारा लाइसेंस नहीं ले पाना, हो सकता है? बात कुछ जंचती नहीं और ठीक नहीं लगती। चूंकि आजकल छोटे-छोटे स्थानों पर यह आम है। तो कहीं कोई और कारण तो नहीं? बहरहाल, मुझे नहीं पता चल पाया। ढूंढ़ने पर, आसानी से खाने के स्थान तो बहुत अच्छे एक-दो मिल भी गए, मगर पीने की कोई जगह नहीं। यह मेरा पहाड़ों का पहला प्रवास था जहां मैंने पूरे चार दिन तक शराब को हाथ नहीं लगाई। वरना छुट्टियों में शौक पूरा कर लेने में कोई बुराई नहीं। लेकिन यह कोई आवश्यक भी नहीं। मैं नशे का आदी नहीं, और शौक को अपने पर हावी नहीं होने देता। न ही मैं इतना बड़ा पियक्कड ठहरा कि शराब को (ठेके) दुकान से खरीद कर होटल के बंद कमरे में पेग लगाने बैठ जाऊं। यह एक तरह से नशे को आमंत्रित करने जैसा हुआ। तो कहीं यह भी एक कारण तो नहीं जो पियक्कड़ पर्यटक यहां कम आते हों? चलो जिस कारण से ही सही, मगर जाने-अनजाने ही यह स्थान सुरक्षित व यौवन से भरपूर एकांत प्रदेश बन जाता है। जहां पर्यटक उन्मुक्त रूप से मदमस्त हवा में विचरण कर सकते हैं।
यहां के शांत वातावरण में कमाल की अनुगूंज है। ब्रिटिश राज की ध्वनि सुननी हो तो धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं के बीच यहां चले आएं। गवर्नर लार्ड डलहौजी के शासन काल के दौरान 1854 में सेना की रिट्रीट परेड के लिए स्थापित यह स्थान, ब्रिटिश प्रशासकों की आरामगाह भी रही है। यहां उन सैनिकों की कदमताल की प्रतिध्वनि आज भी महसूस की जा सकती है। कठलौंग, पोट्रेन, तेहरा, बकरोटा और बलून, इन पांच पहाड़ों पर स्थित इस भूखंड के चारों ओर देवदार का घना जंगल, बीच में, कॉलोनियल भवन निर्माण की कला के जीवित उदाहरण बड़ी शान से आज भी खड़े हैं। सिर्फ अंग्रेज क्यूं, टैगोर, गांधी, नेहरू भी तो पसंद करते थे इस जगह को। फिर 1937 में नेता सुभाष चंद्र बोस ने यहीं की हवा खाकर अपनी तबीयत ठीक की थी। और वे एक बार फिर तंदुरुस्त हुए थे। शहीद भगत सिंह के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चाचा सरदार अजीत सिंह भी अंतिम समय तक यहीं रहे। अजीब संयोग देखिये, उनका देहांत स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन ही हुआ। आजादी के दिन। उनकी समाधि पास स्थित पंचफुल्ला में है। और पास है मनमोहक सप्तधारा। जिसके पानी में कई प्राकृतिक लवण और गुण कहे जाते हैं। पास ही प्रसिद्ध खजियार है। एक छोटी-सी घाटी जिसके चारों तरफ छोटे-छोटे पहाड़ और उस पर देवदार का घना जंगल। बीच में झील हुआ करती है जो आमतौर पर सूखी रहती है और मैदान बन जाती है। यहां दिन के समय पर्यटकों की भीड़ देखी जा सकती है। चारों ओर से लोगों का हजूम यहां पहुंचता है और एक मेले का दृश्य उभर आता है। लेकिन मेरे व्यक्तिगत राय में इससे कहीं अधिक आकर्षण कालाटोप पर्वत की चोटी पर है। यहां वन्य जीव अभ्यारण्य है। घना जंगल, जहां से चारों ओर विहंगम दृश्य दिखाई देता है। और पास की चोटी दयान कुंड से तो अद्भुत दृश्य नजर आता है। हर ओर बर्फ से ढकी पर्वत की चोटियां। पास की एक चोटी पर देवदार के पेड़ों का घना जंगल तो दूसरी चोटी पर मां भूलवाणी विराजमान हैं। यहां पहुंचने के लिए पहाड़ की एक चोटी से दूसरी चोटी तक तकरीबन तीन से चार किलोमीटर चलना पड़ता है। यह आपके शरीर को पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त कर देगा। यह आम ट्रैकिंग के लिए बहुत ही बेहतरीन स्थान हो सकता है। यह पहला मंदिर था जिस पर मैंने कोई छत नहीं देखी। शायद यह स्थान दो से तीन महीने बर्फ में ढका भी रहता है। यहां बगल में एक स्थान ऐसा भी है जहां बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिखा है कि सिर्फ पुरुष ही आगे जा सकते हैं। यह भैरो का स्थल है। हो सकता है इस तरह के स्थान दुनिया में, विशेष रूप से हिन्दुस्तान में, दूसरी जगह भी हों। मगर यह मुझे थोड़ा अटपटा लगा था। उस स्थान पर जाने पर मुझे ऐसी कोई वजह नहीं दिखाई दी कि वहां महिलाएं और लड़कियां न जा सकें। बहरहाल, यह आस्था का सवाल है और इस पर तर्क नहीं चलता। खैर, शाम के ढलने पर भी इस रोमांचक पर्वतीय पैदल यात्रा से वापस आने का मन नहीं कर रहा था। मगर अंधेरा होते-होते कुल्फी जमने का अहसास होने लगा था।
यह सचमुच दिल को छू लेने वाला हिमाचल का एक स्वप्निल स्थल है, जहां देवलोक की कल्पनाएं साक्षात् उभरती प्रतीत होती हैं, जो आज भी अपने अंदर अपनी विरासत के साथ-साथ नैसर्गिक सौंदर्य को बचाये रखने में सफल है। अगर आप अपने जीवन के रूखेपन, शहर की भीड़ और आधुनिक चकाचौंध से तंग हैं तो बड़ी आसानी से और सस्ते में जीवन को प्राकृतिक रंगों से भर सकते हैं। चलो, एक बार फिर चलते हैं डलहौजी।