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सामाजिक व्यवस्था के बहाने

मानव जैसे खतरनाक किस्म के जानवर को एक साथ रखना, या यूं कहें कि एक साथ रहने के लिए मजबूर करना, टेढ़ी खीर है। कहावत है कि अति किसी भी चीज की खराब है और यहां तो इंसान का दिमाग बहुत चलता है। बहरहाल, उसने अपनी सुरक्षा के लिए, अपनी सहूलियत के लिए, सबकी इच्छाओं-चाहतों की एक समान पूर्ति के लिए धीरे-धीरे एक व्यवस्था का निर्माण किया और उसका नाम समाज रखा। चूंकि उसके सोचने की कल्पनाशक्ति व जरूरतों की प्रतिदिन बनती सूची का कोई अंत नहीं, इसलिए इस समाज के बनने का विकासक्रम आदिकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा। यह एक सतत प्रक्रिया है जिसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है, आवश्यकता के अनुसार। प्रारंभिक दौर में इस व्यवस्था को बनाने वाले लोग शायद अधिक बुद्धिमान और समझदार थे। वो आदमी की तमाम खूबियों और कमजोरियों को बहुत अच्छी तरह से जानते और पहचानते थे। संस्कृति के नाम पर बनाए गए तमाम सामाजिक नियम व धार्मिक रीति-रिवाज इन सभी को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। मनुष्य की चालाक बुद्धि को सीधे-सीधे कुछ भी बताना खतरे से खाली नहीं। हो सकता है उसे समझ में भी न आता, शायद वो स्वीकार भी न करता। इसलिए धार्मिक-पौराणिक कहानियां गढ़ी गईं। नरक के द्वारा डराया गया और स्वर्ग के द्वारा लुभाया गया। ईश्वर का वास्ता दिया। नायकों व आदर्शों की स्थापना की गई और उनके द्वारा संदेश दिया गया। इसने मनुष्य के भीतर बैठी चेतना को जाग्रत किया। मूल्यों का पाठ पढ़ाकर दिमागी घोड़ों पर नियंत्रण बनाया। जीवन को नियमित व अनुशासित किया। एक तरफ समयानुसार जरूरतें बदली तो लोगों ने पुराने बंधन को तोड़ा जरूर मगर उसे फिर नये सिरे से बांधने के लिए समय-समय पर इसमें उलटफेर भी किए गए।

प्रारंभ से ही समाज को नियंत्रित व नियमित करने के लिए कई संस्थाएं थीं। परिवार और गुरुकुल इसमें प्रमुख भूमिका अदा करते। उस दौर में सामाजिक गुरु चिंतक हुआ करते थे। धर्मगुरु का प्रभाव होता था। सामान्यतः ये महापुरुष व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक होते हुए भी सांसारिक मायाजाल से मुक्त स्वार्थ से ऊपर उठे इंसान होते थे। वास्तविक रूप में ये संत थे। वैयक्तिक और सामाजिक दोनों जीवन में, कर्म से भी धर्म से भी। एक ऋषि के रूप में जंगलों में रहते। तपस्या करते। इन्हें स्वयं के लिए किसी प्रकार की विशेष जरूरत नहीं होती थी। अपवादों को छोड़ दें तो इनका परिवार भी इन्हीं की तरह का होता। ज्ञान का मूल्य था फलस्वरूप इन ऋषि-मुनियों का स्थान समाज में सर्वोच्च था। वह राजन को भी अपने अधीन मानते। उसे आदेश देने का अधिकार तक रखते। यूं तो उचित परामर्श देते पर इन्हें गुस्सा भी बहुत आता था। यह श्राप भी दे सकते थे। इनसे लोग डरते थे। इसमें कोई अपराध-बोध नहीं था। चूंकि इनका कोई स्वार्थ नहीं होता, इसलिए ये किसी से न तो भयभीत होते और न ही झुकते। यह हर व्यवस्था के केन्द्र में होते थे। जरूरत पड़ने पर यह दिशा ज्ञान भी देते थे। सही अर्थों में व्यवस्था के मास्टरजी थे। कई बार अज्ञानी शक्तिशाली होकर उत्पात मचाता तो आवश्यकता पड़ने पर ये युद्ध भी कर सकते थे। राक्षसों अर्थात असामाजिक तत्व का वध करते। गलत काम होने से रोकते। राजा अगर पथभ्रष्ट हो रहा है तो उसे रास्ते पर लाने का काम भी करते। बाज न आने पर चेतावनी देते हुए उससे युद्ध करने के लिए भी तैयार हो जाते। इनका स्थान देवताओं से भी ऊपर रखा गया था। ये तो देवताओं से भी अप्रसन्न हो जाया करते थे। इनकी उपस्थिति मात्र से समाज संयमित रहते हुए सम गति में चलता रहता।

ऐसा नहीं कि तब परेशानियां नहीं थीं। यह तो स्वाभाविक है परंतु उसे नियंत्रण में रखने की कोई न कोई व्यवस्था थी। जो कि बचपन से प्रारंभ हो जाती थी। संयुक्त परिवार होते थे। चूल्हा एक हुआ करता था। चाचा-ताऊ का घर-परिवार इकट्ठा रहता। दादा-परदादा का रोब होता। अर्थव्यवस्था का नियंत्रण एक के हाथ में होता तो बाकी चीजें अपने आप कब्जे में रहतीं। अच्छा है या बुरा यह दीगर बात है मगर घर की बात घर में ही संभाली जाती थी। अनुभवी बुजुर्ग, साम-दाम-दंड-भेद, फिर चाहे जो हो जाए नवयुवकों को समाज की मुख्यधारा से भटकने नहीं देते थे। जीवन में कमी हो सकती है मगर खुशिया पूरी थीं। यहां एक तरह का भावनात्मक नियंत्रण भी था। उस दौर का साहित्य यथार्थ और चिंतन आधारित था। कला बाजार की वस्तु न होकर आंतरिक सौंदर्य और मनुष्य बनाए रखने में सहायक होती थी। साहित्य लोकप्रिय और साथ ही जनोपयोगी होता। रामायण का आदर्श तो महाभारत का यथार्थ। कबीर व रहीम के दोहे सीधे व सटीक होते। बिहारी के दोहों में गहराई थी तो मीरा के भजन भक्ति-रस से भर देते। ऐसा नहीं कि नर-नारी के बीच प्रेम-प्रदर्शन नहीं था, श्रृंगार के सौंदर्य रूप के लिए हिन्दी साहित्य में तो एक पूरा रीतिकाल हुआ है। आज की तरह उच्छृंखलता तो नहीं मगर कहीं ज्यादा स्वतंत्र। इतने सब जतन के बाद ही मानव इतिहास यहां तक पहुंचा। अन्यथा इतने खतरनाक जानवर को व्यवस्थित करके विकासक्रम को यहां तक पहुंचाना संभव ही नहीं होता।

आज समाज अपने निकृष्ट रूप में उपस्थित लगता है। विनाश के ठीक पूर्व का काल महसूस होता है। उसके तमाम गुण-अवगुण तो उसी तरह उपस्थित हैं मगर उन्हें किसी व्यवस्था के तहत नियंत्रित करने की संस्थाओं की उपलब्धता व प्रतिबद्धता नहीं रह गयी। बुजुर्गों का परिवार में अस्तित्व नहीं रहा। साधु-संत अपना मूल्य खो चुके। ऋषि-मुनि ढूंढ़े नहीं मिलते। गुरु व्यवसायी बन चुका है। पूंजीवाद का प्रभाव सभी पर है। उपभोक्ता की स्वाभाविक कमजोरियों को पहचान कर, प्रेरित कर, उकसा-उकसा कर बढ़ाया जा रहा है। बाजार की खतरनाक सोच तीव्र गति से, अपने तीखे व अंधे मोड़ पर पहुंच चुकी है। दुर्घटना तो होनी ही है। प्राकृतिक रूप से तो मनुष्य वैसे ही स्वतंत्र था लेकिन उसे नियमित करने के लिए समाज ने कई तरह की व्यवस्था कर रखी थी। मगर अब कृत्रिम स्वतंत्रता के नाम पर मायाजाल का निर्माण किया जा रहा है। जहां मृगतृष्णा में इंसान प्यासा भटक रहा है।

शासन तंत्र कई रास्तों से गुजरते हुए प्रजातंत्र तक पहुंच चुका है। मगर इसका भयावह चेहरा विकृत रूप में अब दिन-रात डरा रहा है। किस बात का आधुनिक युग, जहां आज भी लाखों लोग भूखे मर रहे हैं। कैसा विकास, जब गरीबी में कोई कमी नहीं। हत्याएं हो रही हैं। सियासत का खेल राष्ट्र की महत्वाकांक्षा बनकर, एक-दूसरे पर आतंक फैलाने के काम आ रहा है। विचारधारा व श्रेष्ठता के नाम पर, आज भी शारीरिक व मानसिक रूप से गुलाम बनाए जाते हैं। धर्म के नाम पर अधर्म होता है। शासक शासित द्वारा चुने जरूर जाते हैं, सुनने में अच्छा भी लगता है, मगर स्वशासन व सुशासन जैसा यथार्थ में कुछ नहीं। जनता की कमजोरियों को समझकर कुछ लोग शासन की सीढ़ियां आसानी से चढ़ जाते हैं। जनता से दिल खोलकर खेला जाता है। अवाम को गूंगा-बहरा बना दिया गया है। वो सिर्फ देखता है और उपभोक्ता बन बैठा है। उसे उपभोग में इतना डुबो दिया गया है कि विरोध का स्वर अब निकलता ही नहीं। ताली बजाने वाले को भी खरीदा जाता है। नाचने-गाने वाले समाज के नायक बन बैठे हैं। ये सिर्फ मनोरंजन के नाम पर इतनी संपत्ति इकट्ठी कर लेते हैं कि उनका अपना अलग साम्राज्य बन गया है। उनके सौंदर्य के मायाजाल को बुना जाता है। कहानियां गढ़ी जाती हैं। जिसकी कल्पना में, किसी सपनों से प्रेरित होकर अपनी क्षुदा को शांत करने के लिए लोग अपने ही तरह के हाथ-पैर वाले को देख-देखकर पागल होते रहते हैं। जीवन एक खेल है, परिभाषित कर दिया गया है। एक खिलाड़ी को आम से ऊपर उठाकर, एक विशेष होने का आकर्षण पैदा किया जाता है। खेल से उत्साह नहीं उन्माद पैदा किया जाता है। जबकि खेल क्या है? शारीरिक शक्ति की वर्चस्वता को स्थापित करने वाली प्रतिस्पर्धा, जिसमें उसकी कलात्मकता को भी बहुत हद तक देखा जा सकता है। इससे होने वाला मस्ती-मनोरंजन जीवन से आगे नहीं। मगर अब ये ऐसा ही कुछ हो गया है। आज के युग के ये तमाम राजा हर तरह से सक्षम व सर्वशक्तिमान हैं। वो अपनी शासन व्यवस्था बचाये व बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। अत्याचार व आतंक सिर्फ शारीरिक नहीं मानसिक भी होता है। कई जगह कई तरह का इमोशनल अत्याचार भी होता है। वरना ऐसी क्या वजह है कि आज के युग में सब कुछ जानते हुए भी कर्ज में डूबकर किसान-आम आदमी सामूहिक आत्महत्या कर रहा है तो कुछ एक के पास इतनी अकूत संपत्ति है कि पूरे विश्व को एक समय की रोटी खिलाई जा सकती है। आर्थिक व्यवस्था को चलाने वाले व्यवसायी राष्ट्राध्यक्षों से अधिक ताकतवर हैं। ये समाज के नये नायक हैं। इनके बल पर ही सामाजिक व्यवस्था को आगे बढ़ाया जा रहा है। क्या स्वार्थ का पहाड़ा दिन-रात पढ़ने वाला आत्म-केंद्रित व्यवसायी समाज के समग्र विकास के लिए सोच सकता है? इस छोटी-सी बात को कोई नहीं जान रहा, जान भी रहा तो समझ नहीं रहा, समझ भी रहा तो मान नहीं रहा, मान भी रहा तो आंखें बंदकर उसी दिशा में गति से बढ़ रहा है। लेकिन यह कितना खतरनाक साबित हो सकता है इसका अंजाम किसी को नहीं पता। शायद यही हमारे विनाश का एक कारण बने।

महाभारत में परिवार में जीवन-मूल्यों के नष्ट होने से, कुलगुरु, राजगुरु व बुजुर्गों के चुप रहने से महायुद्ध हुआ। सभ्यता का सर्वनाश हुआ। हमने इससे सबक नहीं सीखा। आज की परिस्थितियां तो और खराब हो चुकी हैं। पूर्व में वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद में छिपी असमानता के बावजूद संस्कृति में समरसता थीं। समाज कार्य प्रधान था। आज वर्ण और जातियां अपने विकृत स्वरूप में तो हैं ही, पूंजीवाद ने समाज को दो वर्गों में बांट दिया है। शासक-शासित, गरीब-अमीर, विक्रेता-उपभोक्ता के बीच की खाई बहुत बढ़ चुकी है। हम वर्ग-संघर्ष की ओर बढ़ रहे हैं। निष्फिक्र बाजार समाज को चूस रहा है। देखें, हमारी रगों में कितना खून बाकी है।