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कलम और तलवार
कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है!! इस मुद्दे पर चर्चा होती रहती है। अपने-अपने पक्ष में तगड़े तर्क दिये जाते हैं। कुछ समय पूर्व तक इस बात पर शंका हो सकती थी मगर वर्तमान में यह एक आधुनिक सच है। यकीनन शब्द की मार खंजर से अधिक गहरी होती है। यूं तो कलम और तलवार का संघर्ष युगों से चला आ रहा है। यह बौद्धिक और शारीरिक शक्ति के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा है। इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि आदि मानव ने शारीरिक शक्ति के जोर पर ही दूसरे साथी मानव को काबू किया होगा। कबीलों के सरदार की ताकत से प्राप्त सुरक्षा ने ही समूह में रहने के लिए जंगली मानव को प्रेरित किया होगा। शासन व शासक का सूत्रपात यहीं से प्रारंभ हुआ होगा। ताकतवर इंसान में बुद्धि भी हो, यह जरूरी नहीं। लेकिन फिर भी जो शासक चतुर-चालाक और बुद्धिमान भी थे उन्होंने शारीरिक व मानसिक दोनों शक्तियों के समन्वय से लंबे समय तक लोकप्रिय शासन किया। धीरे-धीरे राजा-महाराजा परिवारवाद के शिकार हुए। अर्थात वंश परम्परा की स्थापना हुई। मगर इसमें भी शारीरिक शक्ति का वर्चस्व बना रहा। एक बेटे द्वारा अपने ही बाप व अन्य भाइयों की हत्या, बूढ़े होते ही बीमार राजा को हटाने का षड्यंत्र, कई रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। राजतंत्र में भी कलम के लिए मंत्री और तलवार के लिए सेनापति हुआ करते थे। लेकिन वर्चस्व शारीरिक शक्ति का ही था। सेनापति के राजा बनने के अनगिनत उदाहरण हैं। शासक को अपनी सैन्य शक्ति के द्वारा ही पहचान मिलती थी। इस तरह युगों-युगों तक शरीर का बुद्धि पर दबदबा रहा। यह दिमाग को कभी पसंद नहीं था। दिमागी दरबारियों ने अपने-अपने ढंग से खेल खेले, चाटुकारिता में चालाकी, वो तो बुद्धि वाले के पास थी ही, के साथ उन्होंने राजा और शासन व्यवस्था पर नियंत्रण बढ़ाया। और धीरे-धीरे शारीरिक शक्ति वाले को अपने कब्जे में लेना प्रारंभ किया। पिछली सदी में, राजतंत्र के खत्म होने की प्रक्रिया के दौरान, शारीरिक शक्ति के कमजोर होने से अधिक बौद्धिक लोगों की अति सक्रियता काम कर गयी। अब तक राजा, एक योद्धा के रूप में ही पहचाना जाता था। मगर नये तंत्र में ऐसा नहीं था। सेनापति और सेना तो थी मगर नये बौद्धिक शासक के नियंत्रण में सारी व्यवस्था थी। सेनापति को तलवार चलाने के लिए भी इनके इशारों की आवश्यकता पड़ने लगी। यह क्रांतिकारी परिवर्तन था। हां, शासन में भागीदारी के नाम पर सबको बोलने की स्वतंत्रता दी जाने लगी। और इस तरह शब्द शक्तिशाली बन गए और शब्दवाले शासक।
आज इस बात पर जोर दिया जाता है कि सभी को बोलने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसे जनतांत्रिक व्यवस्था के साथ ही आधुनिकता व विकास से जोड़कर देखा जाने लगा। एक तरह से शासन में प्रजा की भागीदारी। मगर क्या यह व्यवहारिक है? शायद नहीं। कल्पना में तो आदर्श लगता है मगर हकीकत में नहीं। सच तो यह है कि बोलने की प्राकृतिक क्षमता भी सभी के पास बराबर से नहीं होती। कमजोर और मंदबुद्धि तो बोल ही नहीं पाते। वही बोलते हैं जिन्हें बोलने की शक्ति प्राप्त है। इन्हीं के बोलने का प्रभाव भी पड़ता है। सवाल उठता है कि क्या सिर्फ बोलने मात्र से अवाम को स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है? यह शब्दों का एक मायाजाल है। एक भ्रम कि हम स्वतंत्र हैं। इस माध्यम से भी तो अधिक चतुराई से बात करने वाला इंसान आमजन को अपने प्रभाव में लेकर मानसिक रूप से गुलाम बना सकता है। बातचीत के द्वारा उसे प्रभावित कर सकता है, प्रेरित कर सकता है। सच कहें तो तमामउम्र विचारधारा के सम्मोहन में फंसाकर भावनात्मक रूप से बंधक बना सकता है। तो सिर्फ बोलने की स्वतंत्रता को ही जोर-शोर से क्यूं उठाया जाता है? हमें किसी से भी प्रेम की स्वतंत्रता क्यों नहीं? हम कहीं भी बेरोकटोक क्यों नहीं आ जा सकते? राष्ट्र, धर्म व संस्कृति की सीमाएं बाधक क्यूं बन जाती हैं? हम वो सब क्यों नहीं कर सकते जिसे करने पर हमें प्राकृतिक रूप से स्वतंत्रता महसूस हो? जितना शब्दों की स्वतंत्रता की बात की जाती है उतनी ही शारीरिक शक्ति की बात क्यों नहीं की जाती? आज जब एक बुद्धिमान चतुर-चालाक अपने वाक्चातुर्य से लोगों पर शासन कर सकता है तो शक्ति द्वारा शासित समाज सभ्य क्यूं नहीं माना जाता? एक रूपवान औरत द्वारा अपने सौंदर्य और खूबसूरत शरीर का उपयोग करने पर विरोध क्यूं होता है? यह क्या बात हुई कि शब्दों से वार करने वाला प्रजातंत्र का हीरो मगर शक्ति का प्रदर्शन करने वाला गुंडा-मवाली। कहीं यह बुद्धिमानों के द्वारा विश्व पर शासन करने की साजिश तो नहीं?
माना कि तलवार से हत्या हो सकती है मगर जख्म भर भी सकते हैं। यह तो सिर्फ शरीर पर वार करती है। मगर कलम की मार तो सीधे मस्तिष्क से होते हुए दिल पर चोट करती है। शरीर की मार के दर्द का इलाज है मगर भावनाओं में डूबे दर्द के अहसास का कोई इलाज नहीं। बात दिलदिमाग को हिला देती हैं। शब्द न तो मरने देते हैं और न ही जीने देते हैं। शब्दार्थ दिमाग को जीवनपर्यंत के लिए प्रदूषित कर सकते हैं। और मानसिक रूप से बीमार आदमी समाज के लिए अधिक नुकसानदायक होता है। शब्द दो राष्ट्र में युद्ध करा सकते हैं। शब्द दो भाइयों में लड़ाई कराके परिवार को बांट सकते हैं। वर्षों के संबंध एक पल में खत्म हो सकते हैं। विचारधाराओं ने क्रांति लायी है। यह विचारों द्वारा शारीरिक शक्ति को उकसा कर विद्रोह करने का एक उदाहरण है। यह तो शब्दों की दोगुनी मार हुई। तलवार शब्दों पर हुकूमत नहीं कर पाती मगर कलम तलवारों को अपने नियंत्रण में रखना जानती है। एक तलवार से कुछ सीमित लोगों को डराया जा सकता है मगर शब्दों से असंख्य को काबू किया जा सकता है। कई पीढ़ियों को प्रभावित किया जा सकता है। यहां यह मान लेना कि शब्दों से खेलने वाले सदाचारी ही होंगे, बेवकूफी होगी। एक उदाहरण के रूप में, तलवार वाले राजाओं के दौर में राज की नीति होती थी मगर शब्दों के शासन काल में सिर्फ राजनीति है।
फिर भी सभी कलम की स्वतंत्रता की बात करते हैं। इसके समर्थन में कहा जाता है कि चूंकि शारीरिक झगड़ा हिंसात्मक होता है और इससे शारीरिक चोट पहुंचती है, यह असभ्यता है आदि-आदि। मगर इस तर्क को उचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि फिर शब्दों के प्रभाव से हिंसा को जंगल में आग की तरह फैलते देखा है। माना कि मौखिक बहस को एक स्वस्थ शासन व्यवस्था व मानवीय विकासक्रम की पहचान करार दिया जाता है। मगर क्या बहस का नतीजा कभी देखा है? कभी नहीं। झगड़े के कम से कम परिणाम तो हम जान पाते हैं। बहस का तो कोई अंत नहीं। इसमें जो बौद्धिक रूप से अधिक तर्कवान है, फिर चाहे वो सही हो या नहीं, वही प्रभावशाली लगता और जीतता है। एक बार फिर वही बात कि बुद्धिजीवी समाज का हितेषी भी हो, क्या जरूरी है?
कहीं ये बुद्धिमानों की चाल तो नहीं? शक इसलिए पैदा होता है क्योंकि बोलने की क्षमता और सोचने की शक्ति तो सिर्फ बुद्धिमानों में होती है। वे कुछ भी बोल सकते हैं। फिर उससे चाहे सर्वनाश हो जाए। वे तलवार चलाने की स्वतंत्रता की बात बिल्कुल नहीं करते। बुद्धि जानती है कि इसके आते ही शारीरिक शक्ति वाले का वर्चस्व हो जाएगा। शक्ति का प्रयोग होने पर समाज में अराजकता की बात की जाने लगती है, मगर क्या शब्दों की स्वतंत्रता ने समाज में कम प्रदूषण फैलाया है? तो कहीं ये बुद्धि वालों की चतुरता-चालाकी से शारीरिक शक्ति वाले पर नियंत्रण करने की सुनियोजित तरकीब तो नहीं? कमाल की बात तो यह है कि शस्त्र का प्रयोग करने की इजाजत तब तुरंत दे दी जाती है जब बुद्धिवाले को लगता है कि उसे कहीं से जान का खतरा है। कहीं ये नये तरह का वर्चस्ववाद तो नहीं? जिसने संपूर्ण समाज को वर्ण-व्यवस्था की तरह बांट दिया।
बौद्धिक स्तर पर जिस आदर्श समाज की हम कल्पना करते है, वहां विचारों की टकराहट से वातावरण अशांत होता है। कहने को तो बोलने की भी सीमाएं सुनिश्चित की गई हैं लेकिन ऐसा होता नहीं। खूब बोला जाता है। असंदर्भित, असंयमित, अमानवीय, असामाजिक, अनैतिक। और इससे कम तूफान नहीं आता। भयंकर भूचाल आ जाता है। पूरा का पूरा समाज अस्तव्यस्त हो जाता है। आज बोलने की स्वतंत्रता की बात करने वालों ने जाने-अनजाने अलगाववाद व आतंकवाद को बढ़ावा दिया है। वे अपने सुनने वालों का मुखिया बनने के चक्कर में रहते हैं। कई बार मात्र सुर्खियां बटोरने के लिए। दुनिया में अगर सर्वाधिक मौत हुई है तो वो धार्मिक विचारों के उन्माद के कारण। यह भी तो शब्दों और बुद्धि का क्षेत्र है। आज दुनिया धर्म के अधर्म से अधिक परेशान है। शांति की बात करने वाले अपनी बातों से कइयों को घायल करते रहते हैं। यह सब सियासत का खेल है। छोटे से रूप में देखे तो जिस घर में सबको बोलने की संपूर्ण आजादी और साथ में मुखिया का नियंत्रण समाप्त हो जाता है, वो घर टूट जाता है, रहने लायक नहीं बचता। अधिक बोलने से शोर उत्पन्न होता है। और दो बोलने वाले कभी चुप नहीं होते। न्यायाधीश न हो तो वकीलों की बहस कभी खत्म न हो। सीधा शरीफ आदमी यहां भी मार खाता है। बदतमीज और बदजुबान को आम लोगों को डराते देखा जा सकता है। अगर शब्द की स्वतंत्रता में शालीनता मिल सकती है तो कई तलवार वालों ने भी उदाहरण पेश किए हैं। वैसे भी दो तलवार की लड़ाई में एक की हार और दूसरे की जीत सुनिश्चित है मगर बोलने की प्रतिस्पर्धा में तो न तो किसी की हार न ही जीत। सिर्फ अनिश्चितता है। उस पर से बोलने की स्वतंत्रता को नियमित व संतुलित करने के प्रयास मात्र पर सब चिल्लाने लगते हैं। मनुष्य के स्वतंत्रता के हनन की बात उठने लगती है। कमजोर की आवाज को दबाने की बात की जाने लगती है। जबकि आम आदमी की आवाज तो पहले से ही दबी होती है। उसे तो समझ ही नहीं आता। न ही उसे समझने दिया जाता है। बस इस तरह से अधिक बोलने वाले का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। मनुष्य सही रूप में स्वतंत्र तो तब था जब वह स्वतंत्रता की परिभाषा को नहीं जानता था। शब्दों ने उसे विचारों का गुलाम बनाया है। बहरहाल, शब्द स्वतंत्रता के पक्षधरों को यह मानना होगा कि समाज और राष्ट्र की अवधारणा की है तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भी सीमित करना होगा। वरना देख लीजिए। कितना कचरा और आग उगला जा रहा है। आप शत प्रतिशत गलत और झूठ बोल लीजिए, कुछ एक आपके समर्थन में जरूर खड़े हो जाएंगे। ये शब्दों के जादूगर, पुराने उन जमींदारों की तरह हैं जो छोटे-मोटे किसानों पर बलपूर्वक अपना प्रभाव जमा लिया करते थे। बुद्धिजीवियों से पूछा जाना चाहिए कि सिर्फ उनको ही स्वतंत्रता क्यूं चाहिए? आखिरकार क्यूं सबको बोलने का अधिकार मिलना चाहिए? देख लीजिये, बुद्धि वाले बोल तो रहे हैं। क्या नहीं बोला जा रहा है? और फिर, जो कहते हैं कि तलवार के भय से आदमी को दबा दिया जाता है तो उन्हें कहा जाना चाहिए कि शब्दों की मार से भी कहां बचता है आम आदमी?