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उल्टा जीवनचक्र
प्रकृति ने अपने अंदर आश्चर्य से भरे हुए जीवनचक्रों को समेट रखा है जिसमें से कई एक तो बड़े खूबसूरत और अचरज से भरे हैं तो कई बार ये हमारी कल्पना से भी परे होते हैं। बीज का अंकुरित होना, जमीन को फाड़कर पौधे का रूप ग्रहण करना और क्रमशः बड़े होते हुए पेड़ तथा विराट वृक्ष का रूप धारण कर लेना। और फिर कुछ वर्षों में सूखकर खत्म हो जाना। अधिकांश पेड़ों में हर वसंत में, पुराने पत्तों का गिरना व नये का आना एक निरंतर प्राकृतिक प्रक्रिया है। मेरे पालतू कुत्ते के बाल भी झड़कर इसी मौसम में नये आते हैं। और वो अगले आने वाले वर्ष के लिए नया वस्त्र धारण किया हुआ प्रतीत होता है। आज वो मात्र चार वर्षों में कार के पीछे की पूरी सीट घेर लेता है जबकि जब मात्र पंद्रह-बीस दिन का था तो घर पर स्कूटर की पीछे की सीट वाले आदमी के हाथ में बैठकर आया था। अर्थात यहां भी छोटे से बड़ा आकार, वो भी प्रारंभ के कुछ ही महीनों में। अमूमन मनुष्य के जीवन के प्रति कोई जिज्ञासा नहीं उठती, चूंकि हम अपने होश संभालते ही इसे देखने लगते हैं। मगर यहां भी कमाल कम नहीं। शिशु मां के गर्भ में पिता के सहयोग से अचानक सूक्ष्म अवस्था में अस्तित्व में आता है। फिर पेट के अंदर ही नौ महीने में अपना पूरा अंग व आकार ले लेता है। और फिर एक दिन नैसर्गिक रूप से उसका जन्म होता है। वो बाल्यकाल में मां-बाप के साये में पलता है, और साथियों संग खेलता-कूदता बड़ा होता है। धीरे-धीरे दुनिया को देखता और समझने की कोशिश करता है। युवावस्था में यौन सुख एवं प्रकृति का आनंद उठाता है। परिणामस्वरूप जनन द्वारा वंश आगे बढ़ता है। अंत में उम्र के हिसाब से वृद्धा अवस्था में पहुंचकर शारीरिक रूप से कमजोर होते हुए एक दिन फिर अचानक मृत हो जाता है। कई फुट लंबा-चौड़ा होते हुए भी कुछ घंटों में ही सड़कर मिट्टी में मिलना शुरू हो जाता है। सोचे तो है न अचरज वाली बात। मगर यहां भी ध्यान से देखें तो वही हो रहा है, मानवीय शरीर भी सूक्ष्मता से प्रारंभ कर धीरे-धीरे अपना आकार बढ़ाता है फिर मृत्यु के द्वारा अस्तित्वहीन हो जाता है। तो सवाल उठता है कि क्या कोई जीवनचक्र ऐसा है जहां यह सिलसिला उल्टा हो? हो सकता है हो, लेकिन कम से कम मुझे नहीं पता। और अगर होगा भी तो निश्चित रूप से अनोखा होगा। अचानक किसी सुनिश्चित आकार में जन्म लेना फिर छोटे होते हुए आंखों से ओझल हो जाना। अटपटी-सी कल्पना है मगर प्रकृति में आश्चर्य की कोई कमी नहीं। हो सकता है ऐसा भी होता हो। और तभी मन में विचार आया कि इसी तरह से अगर मानव जीवन चक्र भी उल्टा हो जाये तो? अर्थात आदमी पहले वृद्धा अवस्था में सीधे आकर दुःखों को झेले फिर क्रमशः युवा अवस्था में पहुंचे, शारीरिक रूप से तंदुरुस्त बनें, जीवन का भरूपर आनंद उठाए और फिर बालक जैसे बालसुलभ होकर धीरे-धीरे सूक्ष्म बनकर दुनिया से गायब हो जाए। सुनकर थोड़ा अजीब-सा लग रहा है। मगर इसमें एक फायदा दिखाई देता है कि जाने से पूर्व वो अपने अंतिम दिनों में कम से कम खुशी-खुशी और स्वस्थ तो होगा। अन्यथा अधिकांश वृद्ध इस दुनिया से जाने से पूर्व शारीरिक कष्ट भोगते हैं। दुःख झेलते हैं। लेकिन फिर ऐसा न करने के पीछे ईश्वर की कोई न कोई मंशा जरूर रही होगी। हो सकता है यह मत रहा हो कि इंसान जाने से पूर्व लंबी वृद्धा अवस्था में शारीरिक कष्ट भोगते हुए यहीं अपना हिसाब-किताब कर जाये। अपने कर्मों का फल भोग जाए। मगर फिर अगर वृद्धावस्था उसकी जवानी के पाप-पुण्य का हिसाब ही है तो उल्टे होना तो यह चाहिए कि पहले उसे सब दुःखों का अहसास करा दिया जाए जिससे फिर वो बाद में कोई गलत काम करने से हिचकिचाए और खुद के साथ-साथ दूसरों को भी सुख दे सके। मगर ईश्वर ने ऐसा किया नहीं। जरूर कोई वजह रही होगी।
हॉलीवुड में एक फिल्म आई थी जिसकी कहानी का सारांश कुछ इस तरह का था कि दो चरित्र फिल्म में किसी तरह अमृत्व को पा लेते हैं। और इस तरह से वो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर पाते हैं। परिणामस्वरूप वे कई वर्षों तक नहीं मरते। वे बीमार भी नहीं पड़ते। और अगर कहीं से दुर्घटनावश टूट-फूट भी जाये तो फिर से जुड़ जाते हैं। बड़ी से बड़ी चोट में भी पुनः खड़े हो जाते हैं। दूसरी तरफ उनके साथ के लोग एक-एक कर दुनिया से चले जाते हैं। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता है। वे लोगों को मरता देख बड़े खुश होते हैं। मगर फिर कुछ दिनों के बाद ही वे अपनी इस अवस्था से बोर होने लगते हैं। परेशान हो जाते हैं। जीवन में कुछ और कोई परिवर्तन चाहते हैं। और जब कुछ नहीं बदलता तो अंत में तो हार कर किसी भी तरह से इस दुनिया से जाना चाहते हैं। एक दिन उनकी तमाम इच्छाएं, चाहत, भावनाएं खुद स्वयं के बोझिल मन के नीचे दबकर खत्म हो जाती हैं।
उपरोक्त फिल्म के मूल उद्देश्य को आसानी से समझा जा सकता है। इसके द्वारा ईश्वर द्वारा हमारे साथ बुने गए मायाजाल को जाना जा सकता है। और फिर विशाल, विस्तृत, व्यवस्थित व विस्मयकारी ब्रह्मांड को देखकर कहा जा सकता है कि सृष्टिकर्ता की हमारे जीवनचक्र को बनाने के पीछे भी कोई न कोई महत्वपूर्ण बिंदु जरूर रहे होंगे। कुछ न कुछ उसने जरूर सोच रखा होगा। सर्वप्रथम ख्याल आता है कि मौत क्यूं बनाई? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे पता था कि आदमी का बस चले तो पहले तो वो यहां से कभी जाना ही न चाहे। और फिर बाद में बोर होकर जाने की जिद करने लगे। हां, अगर उसे परिवर्तन के द्वारा नयापन और सुख-सुविधा निरंतर मिलती रहे तो अनिश्चितकाल तक यहीं पड़े रहने की कोशिश करेगा। तो फिर कल्पना ही करें कि अगर मौत न होती तो क्या होता? नये का आगमन कैसे होता? पुराने का विस्थापन वैसे भी आवश्यक है, अन्यथा पुराना बना रहे और नया आता जाये तो कुछ वर्षों में ही पृथ्वी पर जगह नहीं बचती। ऊपर से लोग अगर न मरे तो वे डरना छोड़ देंगे। ऐसी अराजकता, लूटपाट और हिंसा होने लगती, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। जरा सोचिए! आज जब सबको मालूम है कि एक दिन यहां से जाना है तब भी यह आलम है तो अमर होने पर आदमी वो पशुता करता कि रूह कांप जाती। तो क्या फिर ईश्वर ने बहुत सोच-समझकर हर एक का अंत सुनिश्चित कर दिया? बिल्कुल। मगर एक बार फिर विचार आता है कि अगर आदमी को जीवन के अंतिम दिनों की जगह प्रारंभिक अवस्था में ही, कष्ट मिल जाता तो वो बाद में थोड़ा पाप करने से बचता। चूंकि अक्सर लोग ठोकर खाने के बाद अधिक शांत, गंभीर व परिपक्व हो जाते हैं। अमूमन शारीरिक दुर्बलता व बीमारी के बाद दूसरों पर ज्यादतियां करना कम कर देते हैं। तभी तो देखा जा सकता है कि वृद्धा अवस्था में शारीरिक कष्ट आदमी को विरक्ति प्रदान करता है और मनुष्य धीरे-धीरे संसार की मोहमाया से दूर होने लगता है। दुनिया खुद छोड़ना चाहता है। हम में से अधिकांश ने परिवार में बहुत अधिक बीमार हो रहे बूढ़ों को यह कहते सुना होगा कि भगवान अब मुझे उठा ले। अन्यथा शरीर तंदुरुस्त रहने पर आखिरी दिन तक लोगों की इच्छाओं में कहीं कमी नहीं होती। और वो खुशी-खुशी जाने के लिए कभी तैयार नहीं होते। इसी बात को ठीक से सोचने पर समझ आता है कि ठीक ही तो है। यही तो कारण है जो उल्टा जीवनचक्र नहीं बना, न ही प्रारंभ में दुःख दिए गए, अन्यथा बच्चा बनकर किसी के दुनिया से जाने में, उसके खुद के साथ-साथ ही दूसरे जुड़े हुए लोगों को भी और अधिक कष्ट होता। जबकि बुड्ढे के जाने से जवान भी खुश होते हैं। है न?