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बुद्धिजीवियों की पहचान

बुद्धिजीवी शब्द के जेहन में आते ही किसी व्यक्ति विशेष का चेहरा आंखों में अनायास ही उभरता है। और फिर उसका व्यक्तित्व और संदर्भ विस्तार से जुड़ने लगता है। ये संख्या में एक से अधिक हो सकते हैं। कुछ जाने-पहचाने, कुछ देखे हुए तो कुछ पढ़े हुए। यह व्यक्ति कौन और कैसा होगा? परिभाषित करने के लिए क्या मात्र बुद्धिजीवी शब्द यहां काफी होगा? शायद नहीं। यूं तो बुद्धि, कम या ज्यादा (वैसे इसे तोलने की क्षमता किसी भी बुद्धिमान में नहीं) सभी में होती है। फिर चाहे वो मजदूर हो, रिक्शेवाला, सब्जी वाले से लेकर भीख मांगने वाला ही सही। सभी थोड़ा या अधिक, उपलब्धता एवं जरूरत के हिसाब से, बुद्धि का उपयोग दैनिक जीवन में करते हैं। मगर इस पर हम बुद्धिजीवी भाइयों को आपत्ति हो सकती है। दूसरी भाषाओं व समाज के बारे में बिना जाने कुछ भी कहना हवा में तीर चलाने की तरह होगा। हां, अपने देखे-भाले हिन्दी क्षेत्र में इस बात पर कइयों को तकलीफ होगी। ऐसे में बुद्धिजीवी अर्थात बुद्धि से जीविका चलाने वाला सीधा-सीधा शब्दार्थ शायद कुछ हद तक स्वीकार्य हो जाए। यहां एक स्पष्टीकरण की आवश्यकता महसूस होती है। क्या सिर्फ बुद्धि पर जीने वाला? जो खाने-पीने के अतिरिक्त शारीरिक श्रम बिल्कुल भी नहीं करता हो? मगर फिर इसमें भी थोड़ी मुश्किल आती है। सरकारी दफ्तर में क्लर्क से लेकर सेक्रेटरी तक तमाम बाबू भी तो सिर्फ दिमाग का काम करते हैं, अर्थात हाथ-पैर भी नहीं हिलाते। तो उन्हें भी क्या बुद्धिजीवी कहा जाना चाहिए? सट्टेबाज, स्मगलर और आधुनिक डॉन भी सारा भय दिमाग से रचते हैं और राजनीतिज्ञ तो दिमाग की ही खाते हैं और सरकारें दिमागी जोड़-तोड़ से चलाते हैं, तो क्या इन्हें भी बुद्धिजीवी कहा जाना चाहिए? इन उदाहरणों को देखकर तो बुद्धिजीवियों द्वारा बवाल मचाया जा सकता है। किसी भी कीमत पर उनको यह स्वीकार्य नहीं होगा। आखिरकार उनकी भी कोई इज्जत है। फिर चाहे शब्दार्थ के साथ-साथ सकारात्मक उद्देश्य और बृहद सामाजिक संदर्भ जैसे भारी-भरकम शब्द भी जोड़ दिए जाएं। बेशक, कहने को ही सही, बुद्धिजीवियों में गरीब-अमीर, बेरोजगार, छोटा-बड़ा, हर धर्म, जाति, क्षेत्र के लोग आ सकते हैं। तो क्या हुआ यहां पहुंचते ही अपने को विशिष्ट और अलग माना जाने लगता है। आम समाज से दूर। अब क्या किया जाए। अवाम इनकी निगाहों में नासमझ ही नहीं कई बार तो मूर्ख भी होता है। अब कोई पूछे कि बुद्धिजीवी में विशिष्ट और अलग क्या है? तो इसकी व्याख्या मुश्किल तो नहीं मगर उलझी और लंबी जरूर कर दी जाएगी। जिन्हें समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। हां, लेकिन इनकी पहचान बड़ी आसान है। वे स्वयं को दुनियादारी की इस रोजी-रोटी से भी ऊपर रखकर अति संवेदनशील विचारक मानते हैं। अब यह दीगर बात है कि रोजी के फिराक में रहते हैं और अपनी रोटी सेंकते रहते हैं।

शास्त्रानुसार बुद्धिजीवी वो हैं जो विवेक रखता हो और चिंतन करता हो। व्यवहारिक के साथ पारंपरिक मूल्यों और विचारधारा पर मनन करता हो। समाज के लिए व मनुष्य की भलाई में सोचता हो। सभ्यता व सांस्कृतिक भविष्य की दिशा खोजता हो। अब शास्त्रों को कौन पढ़े। इसे समझना वैसे भी मुश्किल काम है। ऐसे में यह थोड़ी मुश्किल पहचान होगी। तो फिर सिर्फ अच्छा पढ़ा-लिखा होना आधुनिक युग में बुद्धिजीवी के लिए काफी होगा। अब परीक्षा में पास होने के लिए तो किताब रट ही रहे हैं, साथ ही बुद्धिजीवी का खिताब भी मिल जाए तो क्या बुरा है। तो क्या कक्षा में अव्वल आने वाले को अधिक बुद्धिजीवी कहा जाना चाहिए? बुद्धिमान्‌ तो कहा ही जाता है बाकी कौन जाने? गलत है या सही, समझना मुश्किल है। लेकिन हमारे ये बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल जीविका चलाने में तो खूब करते हैं मगर बुद्धिजीवी कहलाने से कोई मतलब नहीं रखते। उलटे हमारे देश के ये होनहार छात्र पहले घोंटघाट के किसी तरह इंजीनियर और अन्य उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं फिर अंग्रेजी में मैनेजमेंट फंडा रट-रटकर सामान बेचते हैं। लाखों-करोड़ों कमाकर उन्हें मैनेजर, एक्जीक्यूटिव, सीईओ कहलाने की अधिक चाह होती है। अब बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में कौन पड़े? वकालत और डॉक्टरी तो फिर कमाऊ पेशा है ही। मगर ये अपने धंधे में इतने व्यस्त होते हैं कि इन्हें बुद्धिजीवी बनने का समय ही नहीं होता। और फिर इस तरह से प्रमुख रूप से बुद्धि पर जीविका अर्जित करने वाले समाज के तमाम भद्र नागरिक बुद्धिजीवी न बनकर बाकी के लिए कुर्सी छोड़ देते हैं। चलिए, दूसरों के लिए रास्ता तो खुला। यूं तो हर छात्र किसी भी तरह से शिक्षा ग्रहण करके दाल-रोटी के जुगाड़ में लग जाता हैं। कुछ नौकरी तो कुछ व्यवसाय। मगर फिर वो दो और दो चार के चक्कर में रहें या बुद्धिजीवी के नाम में? किसके पास इतनी फुर्सत है। ऐसे में बुद्धिजीवी का पद खाली पड़ा रह जाता है। कुछ एक छात्र अध्यापन के क्षेत्र में चले जाते हैं। चूंकि इसमें खाली वक्त के साथ-साथ जैसे-तैसे ही सही पढ़ने-पढ़ाने से तो नजदीकी बनी ही रहती है। और फिर यह दूर से देखने पर शुद्ध बुद्धिजीवी का काम लगता भी है। इस तरह अकादमिक होना बुद्धिजीवी की पहली निशानी बन जाती है। फिर चाहे सृजन के नाम पर एक वाक्य भी उद्देश्यपूर्ण न पैदा किया हो, पहला हक तो इनको ही जाता है। हां, अन्य क्षेत्र के लोग भी कई कारणों से किस्से-कहानी और कविताएं लिखने लग पड़ते हैं, कुछ एक कोई और काम नहीं होने पर या सेवानिवृत्ति के बाद अपने अनुभवों को बिना मांगे बांटने लगते हैं, और फिर कुछ लिखते ही लेखक तो बन ही जाते हैं। अब लेखक तो जन्मजात बुद्धिजीवी होता है। और इस तरह से समाज में बुद्धिजीवी वर्ग का विस्तार हो जाता है।

बुद्धिजीवियों की जनसंख्या यहीं पर खत्म नहीं हो जाती। इनमें तो इतने प्रकार हैं कि इतनी बोलियां व जाति पूरे हिन्दुस्तान में नहीं होंगी। एक विशिष्ष्ट वर्ग और है। थोड़ा इतिहास में पूर्व में जायें तो पाएंगे कि राजा के दरबार में कई बुद्धिजीवी विराजमान होते थे। अब इनकी चापलूसी के किस्से तो आज भी मशहूर हैं। ये प्रजाति आज भी है। हां, यह थोड़ी प्रजातांत्रिक जरूर दिखती है। मगर उसके दरबारी वाले स्वाभाविक गुण विरासत में जिंदा हैं। ये अपने आकाओं के समर्थन में तर्क-वितर्क बोलते-लिखते रहते हैं। बड़ी चतुराई और सौम्यता से। भोली-भाली आम जनता कई बार समझ नहीं पाती। नुक्कड़, मोहल्ले और गांवों से लेकर आधुनिक क्लबों में भी कुछ एक को बुद्धिजीवी मान लिया जाता है। बड़ी दाढ़ी, कुर्ता-पायजामा, चप्पल वाले युग से ये थोड़ा आगे निकल आये हैं। कुछ एक अपनी-अपनी दोस्त मंडली में बुद्धिजीवी होते हैं। यही नहीं आजकल इंटरनेट पर ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग साइट ने बुद्धिजीवी बनने का काम और आसान कर दिया है। थोड़ी-सी बहस और कुछ खास टिप्पणी, और आप बुद्धिजीवी के वर्ग में आ जाते हैं। अब जिनके पास वक्त ही वक्त है उनके लिए इससे बेहतर साथी और साधन नहीं हो सकता। और बैठे-बैठाये बुद्धिजीवी बनने का सपना साकार होता है। मगर यहां के नियम निराले हैं। अधिक टिप्पणी मिलना और ज्यादा दोस्त होना आपके प्रखर बुद्धिजीवी होने की निशानी है। यह दीगर बात है कि फिर टिप्पणी देने वालों की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि आप क्या हैं? फिल्म और क्रिकेट से जुड़े हैं तो आपका हर शब्द ब्रह्मवाक्य होगा। यह ध्यान से सुना और पसंद किया जाएगा। आपके प्रशंसक हजारों में होंगे। अगर आप किसी राजनीतिज्ञ पार्टी में किसी प्रमुख पद पर हैं तो आपको पसंद करने वालों की अच्छी-खासी संख्या होगी। हां, मीडिया से संबंधित लोगों को भी चाहने वाले कई मिल जाएंगे। छपने और दिखने का जुगाड़ जो हो सकता है। सरकारी अफसर हुए तो चमचे तो यहां भी पहुंच जाएंगे और आपको सम्मानीय बुद्धिजीवी का खिताब मिल जाएगा। किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हुए तो छात्र को आपकी हर बात माननी ही है। और कुछ नहीं तो आकर्षक नाम वाले एनजीओ के कार्यकर्ता व वक्ता भी बुद्धिजीवी हो जाते हैं। अंत में बेचारे साहित्यकार बचते हैं। ये तो स्वयं को मूल बुद्धिजीवी मानते हैं। तो इन्हें कौन प्रमाणित करेगा? अगर ये टोली में नहीं हैं और एक-दूसरे को नहीं संभाल रहे तो समझ लीजिए की एक भी वाहवाह नहीं मिलेगी। और आप बुद्धिजीवी की गिनती में नहीं आ पाओगे।

बुद्धिजीवी के गुण भी विशिष्ट हैं। ये आसानी से देखें और समझे जा सकते हैं। शब्दार्थ की तरह ये दिमाग से नहीं खाते बल्कि दिमाग खाते हैं। एक और विशेष पहचान, इन्हें लगता है कि जो ये सोच रहे हैं, देख रहे हैं, वही सही है। और इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। क्रांतिकारी और आतंकवादी भी बन सकते हैं। डरने की कोई बात नहीं, क्रांति तो ये कर नहीं सकते, हां, विचारों का आतंक जरूर फैला सकते हैं। एक-दूसरे को शब्दबाणों से लहूलुहान कर सकते हैं। ऐसे में इनका वाक्‌युद्ध किसी भी स्तर तक जा सकता है। अपनी बात को सत्य ठहराने के लिए होना भी यही चाहिए, बुद्धिजीवी जो ठहरे। धर्म से दूरी दिखाना, इनके बुद्धिजीवी होने का दूसरा बड़ा पैमाना है। इसमें भी अति प्रतिक्रियावादी और कट्टरपंथियों से पंगा नहीं लिया जाता। क्या करना है, बुद्धिजीवी ही तो बने रहना है, कोई सुकरात थोड़े ही कहलाना है। सेक्यूलर, समाजवाद, प्रजातांत्रिक मूल्य, भ्रष्टाचार आदि दो-चार शब्द विशेष को पकड़कर बैठ जाना, और फिर उस पर खुद अमल करे न करे मगर खुलकर बोलना-लिखना बड़े बुद्धिजीवी होने की अहम पहचान के रूप में लिया जा सकता है।

इधर, पिछले कुछ वर्षों में एक नये बुद्धिजीवी वर्ग की उत्पत्ति हुई है। ये दृश्य मीडिया के एंकर हैं। इनके हाथ में माइक और सामने कैमरा है। इनसे चाहे जिस विषय पर बुलवा लें। ये कुछ भी कह कर किसी भी समाज में उथल-पुथल मचाने का माद्दा रखते हैं। इनके साथ लोकप्रियता, पैसा और ग्लैमर सब है। अप्रत्यक्ष शक्तियां भी हैं। अब इतने गुणों के साथ इनके प्रशंसक भी होंगे। इन्हें चुप कराने की किसी में हिम्मत नहीं। ऐसा करने पर प्रेस की स्वतंत्रता का हनन माना जा सकता है। फिर चाहे बेशक प्रजातंत्र की हत्या हो जाए। ये सर्वगुण-संपन्न वास्तव में बुद्धि पर आधारित जीवन जीने वाला नया बुद्धिजीवी वर्ग है। ये लग्जरी गाड़ियों में चलते हैं, बड़े होटलों में खाते हैं और आलीशान घरों में रहते हैं। पश्चिम का बुद्धिजीवी वर्ग प्रारंभ से ही साधन-संपन्न था। अधिकांश उच्च-वर्ग से आया करते थे। और जो नहीं होते थे उन्हें भद्रलोक में शामिल कर लिया जाता था। ये तो हिन्दुस्तान की संस्कृति में, बुद्धिजीवी चाहे किसी भी वर्ग से आया हो, साधु रूप में जीवन जीता था। अब यह भी क्या बात हुई? जब हमने हर क्षेत्र में पश्चिमी की नकल की है तो इस क्षेत्र में कैसे पीछे रह सकते हैं। आज का हमारा बुद्धिजीवी वर्ग सिर्फ अपनी बुद्धि का ही नहीं दूसरे की बुद्धि का भी खा रहा है। इसलिए खाया-पिया लगता है। ऐसे में प्रतिभा-संपन्न होने की क्या आवश्यकता?