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मैं एक औरत हूं

ऐसा पता चलते ही कि यह एक औरत की कहानी है, बूढ़ों की आंखें भी पढ़ते-पढ़ते वहीं अचानक ठहर जाती हैं। जवान तो फिर मचलने ही लगते हैं। मेरे बारे में अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा, पढ़ने की इच्छा, कुछ नया देखने की बेकरारी, सदियों से है और आज भी बरकरार है। मगर यह सब मेरे लिए नहीं, मेरे देह के इर्दगिर्द भटकती रहती हैं। इतना ही नहीं, देखने वाली हर निगाहों में प्यास सरेआम झलकती है। मेरे व्यक्तिगत अंतरंग-क्षण पुरुषों के लिए एक ऐसी क्रियात्मक घटना है जो उनमें उन्माद और उत्तेजना पैदा करती है। मुझको लेकर बहस तो बुद्धिमान भी बहुत करते हैं मगर शरारत उनकी भी छिपती नहीं। मात्र मेरी उपस्थिति हलचल पैदा कर देती है।

हलचल तो तभी हो गई थी जब मैंने मां के पेट में अपना सफर शुरू किया था। मैं अंदर से देख-सुन सकती थी। पहला दुःख, आश्चर्य भी, मुझे तब हुआ था जब मेरी अपनी मां ने मेरे आने का पता चलने पर दुःख मनाया था। वो तो मैं इतनी प्यारी-सी गुड़िया थी कि किसी निर्जीव गुड्डे को भी प्यार हो जाये। मैं मां की आंखों में अमूमन आंसू देखती और विचलित हो जाती, समझ न पाती और फिर खुद भी रो पड़ती। मगर मेरे रोते ही वह तुरंत मुझे दूध पिलाने के लिए छाती से चिपकाती तो मैं उसके आंचल के नीचे खुद को सुरक्षित महसूस करती। तब तक मुझे यह अहसास नहीं था कि जिस तरह से मां की कोख से मेरा जन्म हुआ है उसी जनन-प्रक्रिया का मैं खुद भविष्य में एक प्रमुख स्रोत बनने जा रही हूं। मैं स्वयं सृष्टि हूं और सृष्टिकर्ता भी। मगर यह शाश्वत सत्य कभी मेरा अभिमान नहीं बन पाया। उलटे, मुझे होश संभालते ही अपने इस कोमल अहसास को एक रहस्य की तरह समझाया गया। यह इतना भयावह और डर पैदा करने वाला था कि मैं अपने अस्तित्व से भी भयभीत रहने लगी। मैंने स्वयं को स्वयं से ढकना शुरू कर दिया था। इतना कि फिर मैं कभी भी स्वयं से नहीं मिल पायी। स्वयं को पहचानने का वक्त कहां था। परिवार व समाज में अपने स्थान को सुनिश्चित करने की शुरुआत मैंने अपनी मां की बातों से अधिक उनके हाव-भाव व दिनचर्या से सीखी थी। मुझे उनसे प्यार है और क्यूं न हो, मैं उनके शरीर का एक हिस्सा थी, जल्दी ही उनक साथ काम करने का भी हिस्सा बनती चली गई। मुझे उनसे संवेदना भी होती। मगर जब वहीं मां अपने शरीर के दूसरे टुकड़े, अपने बेटे को लेकर अति उत्साही रहती, तो मुझे थोड़ी हैरानी होती। छोटे भाई के आने पर तकलीफ ज्यादा होती। मगर फिर मैं उससे प्यार भी करने लगती। हां, बड़े भाई से मुझे हमेशा झिड़कियां और डांट मिलती। डरकर और थककर अंत में उसके रौब को स्वीकार करती। मेरे पिता ने ऐसा नहीं कि प्यार नहीं किया। घर के बड़े-बुजुर्गों के लिए मैं सदा लक्ष्मी का स्वरूप रही। लेकिन खुद बड़े होने पर जब दुर्गा और सरस्वती का नाम सुना और जाना तो प्रश्न उठा कि मेरे आगमन पर मुझे घर की लक्ष्मी ही क्यूं कहा जाता था? दुर्गा क्यूं नहीं? इस सवाल ने मुझे हमेशा तंग किया। अचरज तब और बढ़ जाता जब हर एक को दुर्गा की पूजा करते पाती और हर छात्र को सरस्वती से ज्ञान का वरदान मांगते देखती। मगर मेरे लिए सिर्फ लक्ष्मी का रूप? शायद वो मुझसे शक्ति की उम्मीद ही नहीं करते थे और मैं उन्हें सुरक्षा प्रदान कर सकूं, उनके मतानुसार संभव नहीं। और ज्ञान? उसकी तो कोई मुझसे अपेक्षा ही नहीं करता था। मगर फिर इतनी सारी देवियों की उपासना? ऐसी दोहरी नीति मुझे अटपटी लगती। मानसिक विकास मेरा होने लगा था, लेकिन मुझे तो घर पर भी बोलने की पूरी छूट कहां थी। सबसे पहले तो मां ही रोक देती। पिता-भाई का तो नंबर ही नहीं आता। जैसे-जैसे होश संभाला मेरे ही लिंग के लोगों ने सबसे अधिक टोका-टाकी की, फिर चाहे वो दादी-नानी, बुआ, चाची या फिर घर की पड़ोसन हो।

मैं अपने शरीर के उस भाग से, जो समस्त मानव जाति का उद्गम-स्थल है, धीरे-धीरे परेशान रहने लगी थी। जबकि यह मुझे गुदगुदाता भी था। मैंने यह सोचकर कि भारत में शायद पारंपरिक संस्कृति का अधिक दबाव है, पश्चिम का रुख किया था। मगर वहां तो मुझे और तकलीफ हुई थी। मेरा शरीर तो वहां बचपन से ही आकर्षण का केंद्र था। वहां मैं कहने के लिए स्वतंत्र जरूर थी मगर उपयोग से आगे बढ़कर उपभोग बन गयी थी। मेरी जांघों, बाहों और नंगी पीठ पर ही मेरा नाम, काम और सामाजिक अस्तित्व टिका होता। खुला बाजार था और सबकी जीभ में लार टपकता होता। मैं इस बाजारू संस्कृति में रोज बिकती। उसमें भी मैं कहां थी? मेरा मांसल शरीर एक वस्तु की तरह उपस्थित था। यह दीगर बात है कि मेरी सहेलियों ने यहां इसी बात का दाम और नाम कमाया। मगर मैं तो हैरान-परेशान अपने अस्तित्व को खोजती रही। इस खुलेपन में हल्केपन से घबराकर दुनिया की दूसरी विशाल सभ्यता में पहुंची तो वहां मेरे इसी शरीर को इस तरह से ढका गया कि सूरज की रोशनी और हवा भी न छू पाये। मेरे लिए मेरा ये शरीर यहां एक बड़ी मुसीबत था। जिसे मैं अपने मन मुताबिक अपने लिये उपयोग नहीं कर सकती थी। मेरे आचरण पर पाबंदी थी और सख्ती इतनी कि दम घुटता। मेरे शरीर से दूसरे चाहे जैसे सुख लूटें मगर मेरी इच्छा के इजहार होते ही उस पर कोड़े बरसाये जाते। एक तरफ खुली नग्नता तो दूसरी ओर पूरी तरह ढका हुआ शरीर। बेचैन होकर मैं पुनः भारत लौटी तो मुझे लगा कि शायद मैं यहां कोई नयी इबारत लिखूंगी। इन दो अंतिम छोरों वाली संस्कृति से अलग हटकर मेरा अस्तित्व यहां अधिक मुखर होगा। और फिर यहां राष्ट्राध्यक्ष से लेकर हर क्षेत्र की अग्रिम पंक्ति में मैं ही तो अलग-अलग रूप में विराजमान हूं। और फिर यहां मेरी बातों को सुना जा रहा है। मैं आगे बढ़ रही हूं। और पढ़ने लगी हूं।

मगर यहां भी मुश्किलें कम न थीं। समाज में आधी आबादी होने के बावजूद कई तरह की राजनीति की जा रही है। फिर भी मैं विचलित नहीं हूं। मुझे मेरे कुछ अच्छे बुद्धिजीवी सहयोगियों का समर्थन हासिल है और मैं आवश्यकतानुसार शासकीय और प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त कर रही हूं। मैं किसी विशिष्ट सहयोग के भी स्वतंत्र रूप में आगे बढ़ सकती थी। मगर सदियों से काबिज पुरुष वर्ग में असामाजिक संकीर्ण लोगों की यहां कमी नहीं है।

मैं पढ़-लिखकर उच्च अधिकारी बन गयी। अब सबसे पहली मुश्किल इस बात की पैदा हुई कि मेरे लिए मेरा वर मिलना कठिन हुआ। मेरे से अधिक पढ़ा-लिखा और बेहतर पद का आदमी उपलब्ध नहीं था और छोटे के साथ शादी का समाज में प्रचलन नहीं था। यह मेरे से अधिक मेरे परिवार वालों की मुसीबत का कारण बना। मेरे लिये तो यह समस्या उतनी गंभीर नहीं थी जितनी लोगों की मानसिक गुत्थियां थीं। जो बड़ा पद वाला आता भी वो मुझे छोटा समझता और जो छोटे स्तर का आता, वह मुझे बड़ा मानने को तैयार नहीं। मैं तो पुरुष में अपना हमसफर-हमदर्द ढूंढ़ रही थी जबकि वो मुझमें जीवनसाथी के अतिरिक्त भी बहुत कुछ ढूंढ़ रहा था। मैं उसके मानसिक विकार का शिकार हुई। मेरा शरीर और दिमाग जो पढ़-लिखकर थक रहा था, परिवार में सुख-चैन और आनंद-शांति चाहता था, रात को बिस्तर पर नोचा जाने लगा। और मैं रोज लुटती और तोड़ी जाती। और फिर मुझे दिनभर लोगों का सामना भी तो करना था। बाहरवालों की बात ही क्या करनी यहां तो अपने भी भरपूर मजाक उड़ा ले जाते।

उधर, कार्यालय में मेरे सहयोगियों और अधिकारियों ने तंग करना शुरू किया। यूं तो मुझे सरकार से कहने के लिए कई तरह की सुरक्षा मिली है, मगर इसका उपयोग करते ही मुझे गलत चरित्र के रूप में लिया जाने लगता। घर पहुंचने पर शक की नजर दिल को व्यथित करती तो उधर ऑफिस में लोगों की शरीर के अंदर झांकती निगाहें दिमाग खराब कर देती। एक सामान्य लड़की के लिए अपने हक की लड़ाई लड़ना यहां भी आसान न था। पुरुष का अहं यहां अधिक क्लिष्ट और अदृश्य था। मुश्किल तो यहां तक थी कि मैं वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बनी तो चोर-डकैतों की नजर भी मेरे शरीर पर ही जाती, न की मेरी वर्दी पर। वे मुझसे नहीं डरते तो मेरा खून खौल उठता। नौकरशाह बनी तो गली-मोहल्ले के गुंडे से नेता बने मंत्रियों की नजर जब फिसलती देखी तो लगा उसकी आंख फोड़ दूं। अन्य कामकाजी महिलाओं की, जिनके पास किसी तरह की संवैधानिक शक्तियां नहीं है, हालत और बुरी थी। सहकर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते कि उनके गंदे निष्क्रिय माहौल में कोई अच्छा और उनसे बेहतर काम करें। दिनभर मुझे नीचा दिखाने की राजनीति होती। उसमें मेरे उच्च व अधीनस्थ भी मिल जाते। सवाल उठता है कि मुुझे आज भी हर जगह स्वयं को साबित करना क्यूं पड़ रहा है? मुझे ही अग्निपरीक्षा क्यूं देनी पड़ती है? मेरा संघर्ष घर से निकलने पर दुगुना हुआ है। मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी। न मैं हारूंगी। मैं इन नामर्दों, जो मेरी पीठ पीछे वार करते हैं- मैं उसे मर्द कैसे कह सकती हूं, के उपहास का केंद्र नहीं बनूंगी। मगर सवाल उठता है कि मेरे साथ ही ऐसा व्यवहार क्यूं? कभी-कभी मन करता है कि कहूं, हे ईश्वर! मेरा लिंग परिवर्तन कर दे, फिर मैं इस दुनिया को दिखाती हूं कि मैं क्या कर सकती हूं। मगर फिर लगता है कि यह तो कायरता होगी। पलायन होगा। आज मुझे अपनी मां की आंखों में आने वाले आंसुओं के कारणों का ज्ञान हुआ है और मैं इस अंधेरी सुरंग से निकलने के लिए प्रतिबद्ध हूं। मुझे अपने कौमार्य व सौंदर्य की पुरुषों द्वारा गढ़ी परिभाषा से निकलकर एक स्वतंत्र सोच विकसित करनी होगी। जहां मेरा अपना एक अस्तित्व होगा। तब हर मां एक बेटी को जन्म देना चाहेगी और पिता कहेंगे घर में दुर्गा आ रही है।