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रावण के सर्वनाश का कारण?
छोटी बेटी द्वारा घर में परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से यह पूछने पर कि रावण के सर्वनाश का प्रमुख कारण, एक शब्द में, किसे माना जाना चाहिए? कुछ देर की चुप्पी के बाद तकरीबन सभी का मत आया कि अहं के कारण रावण का पतन हुआ। सामान्य रूप में सही लगते हुए भी यह मुझे हैरान करने वाला था। बहुमत का जवाब होने पर भी न जाने क्यूं मुझे इसमें कहीं कुछ कमी महसूस हुई थी। और फिर इस पर कुछ और विचार करने की आवश्यकता नजर आयी। इसमें कोई शक नहीं कि रावण के अहंकार ने ही उसे प्रारंभ से अंत तक, सर्वशक्तिमान प्रभु राम से युद्ध करने से नहीं रोका। इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता कि न वो युद्ध करना मंजूर करता और न ही उसका सर्वनाश होता। चूंकि ऐसा ही कुछ, रावण पूर्व में महा-शक्तिशाली वानर राजा बाली के साथ कर चुका था। जब रावण को महाबली बाली की शक्ति का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ तो युद्ध से पूर्व ही वह समझौता कर मित्रता कर बैठा था। अर्थात अहंकारी के साथ-साथ वह चतुर-चालाक भी था। ऐसा ही कुछ अब भी होता तो क्या वह माता सीता को वापस राम को सौंपकर बच नहीं जाता? बिल्कुल बच जाता। शायद मगर रावण का बच जाना फिर यह और गलत होता। सृष्टि व समाज दोनों ही व्यवस्थाओं में, यहां तक कि धर्म व साहित्य की दृष्टि से भी। संदेश के रूप में भी और चरित्र-चित्रण के रूप में भी। संतुलन तो प्रकृति का नियम है। यदि ये संसार सनातन दृष्टि से एक लीला या सरल शब्दों में विश्व एक रंगमंच है तो रावण की भूमिका भी किसी विशिष्ट उद्देश्य से लिखी गयी होगी। और वो भी तब जब वह कई गुणों से संपन्न एक ऐतिहासिक पुरुष था। एक प्रमुख पात्र था। इस महान दैवीय नाटक का। सीधे शब्दों में, ऐसा हो जाने पर फिर दुष्ट रावण को सबक कहां मिलता? परायी स्त्री के अपहरण का अपराध तो वह कर ही चुका था। इस तर्क पर यह तो कह सकते हैं कि अंत में अहं ही उसके सर्वनाश का कारण बना। मगर इस बात का कोई जवाब नहीं मिलता कि यही अहं अभिमान बनकर उसे प्रारंभ में कई युद्ध में विजयी बना चुका था। वैसे भी शूरवीर योद्धा में अहं का होना एक आवश्यक अवयव माना जाता है। उसका अति आत्मविश्वास ही उसे लड़ने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। उसे अपने शारीरिक व आत्म-बल पर गरूर होना चाहिए और सामने वाले विरोधी को कमजोर समझना युद्ध-नीति में जीत की पहली शर्त कही जा सकती है। अन्यथा वह लड़ने से पहले ही हार सकता है। भावनात्मक व इच्छाशक्ति, दोनों ही रूप में।
तो फिर, क्या रावण का सीता का अपहरण करना उसके पतन का एकमात्र प्रमुख कारण माना जाना चाहिए? अगर वह यह गलत कार्य नहीं करता तो वही रावण इसी अहं के साथ लंका पर राज कर रहा था और उसका विजयी अभियान जारी था। छल-कपट और षड्यंत्र तो वह प्रारंभ से करता आ रहा था। क्रूर व क्रोधी तो वह जन्म से था। सामान्य रूप में दिखने वाले ये अवगुण उसके लिए अस्त्र और शस्त्र बनते जा रहे थे। जो उसे प्रोत्साहित कर ऊर्जा से भर देते और विरोधी को हतोत्साहित करते। इस बिंदु पर गौर किया जाना चाहिए कि देवता तो इसके पूर्व में भी थे मगर वे इसके पहले एकजुट होकर भी क्यूं नहीं रावण को परास्त या नष्ट कर पाये? या फिर इसे इस तरह भी लिया जा सकता है कि सीताहरण के बाद, वरदान में मिली कोई भी शक्ति रावण को नहीं बचा पायी, जो उसने घोर तपस्या के द्वारा भगवान शिव व ब्रह्मा से प्राप्त की थी। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि परायी स्त्री का जबरन अपहरण और जोर-जबरदस्ती का असफल प्रयास, उसके सर्वनाश का कारण बना। इसे सीधे-सीधे रावण के चरित्र से जोड़कर देखा जा सकता है। तो क्या इसका यह निष्कर्ष निकाला जाये कि उसकी उच्छृंखलता अर्थात चरित्रहीनता उसके पतन का कारण बनी? शायद यह अधिक सटीक हो। चरित्र में संपूर्ण व्यक्तित्व परिभाषित हो जाता है। इसमें फिर अहं भी तो आ ही जाता है। फिर चाहे वो सीमित मात्र में सही समय व स्थान में आने पर उपयोगी हो या अति होने पर बर्बादी का कारण बने। रावण का लालची व महत्वाकांक्षी होना भी तो उसके चरित्र प्रमाणपत्र में उल्लेखनीय रूप से उपस्थित होगा। और फिर उसका अति बलशाली होना भी इन सबका प्रेरक तत्व बना। आदमी की शक्ति, फिर चाहे वो मानसिक हो या शारीरिक, उसे आत्मविश्वास देती है और फिर निरंतर विजयी होने पर वो और अधिक पाने के लिए प्रेरित होता है। ऐसे में व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा सक्रिय हो जाती है। चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती चली जाती है। मगर फिर इन सबकी अति ही पतन का कारण भी बनती चली जाती है। आदमी रुकता कहां है। चलने की जगह दौड़ता चला जाता है। जितनी तेज रफ्तार उतनी जल्दी ठोकर और फिर उतनी ही गहरी चोट। और शायद इसीलिए शारीरिक बल के साथ मानसिक संतुलन और समझ का होना भी उतना ही आवश्यक है। एक अच्छे सैनिक और सेनापति में यही फर्क होता है। युद्ध में, फिर चाहे वो किसी भी क्षेत्र में लड़ा जा रहा हो, ज्ञानी होना काम देता है।
मगर रावण तो ज्ञानी भी था। प्रमाण के रूप में दशानन अर्थात दस मुख वाला, दस गुणा अधिक मानसिक शक्ति वाला कहलाता था। शास्त्रों के मतानुसार भी उसके अवगुणों से कहीं अधिक गुण थे। क्रूर स्वभाव वाला भयंकर अत्याचारी राक्षस तो था; मगर राक्षसी माता और ऋषि पिता की संतान होने के कारण रावण के अंतर्मन में दो विरोधी विचारधारा का कशमकश निरंतर जारी रहता। जो उसके मन-मस्तिष्क को दिन-रात मथते रहते। परिवार में भी सकारात्मक पक्ष अधिक थे। मंदोदरी जैसी रूपवान व समझदार पत्नी, इंद्र को परास्त करने वाला होनहार पुुत्र इन्द्रजीत और विभीषण जैसा विचारशील धर्मात्मा छोटा भाई। व्यक्तित्व में तमाम अवगुणों के बावजूद वाल्मीकि रामायण में भी रावण के गुणों का खुलकर बखान हुआ है। अति बुद्धिमान, महा-तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी आदि-आदि। तो फिर? यहां पाठक व धर्म-प्रेमी के लिए अजीब भ्रम की मनःस्थिति उत्पन्न हो जाती है। लेकिन फिर इसका जवाब भी तो तुरंत मिल जाता है, जब दशरथ पुत्र राम स्वयं लंका नरेश रावण के व्यक्तित्व को देखकर एक बार प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते और लक्ष्मण से कहते हैं कि रावण में कांतिमय रूप-सौंदर्य सर्वगुण-संपन्न, लावण्यमय व लक्षणयुक्त होते हुए भी अधर्म बलवान नहीं होता तो वह देवलोक का स्वामी बन जाता। संक्षिप्त में कहें तो सौ गुण होने पर भी एक चारित्रिक दोष सब पर भारी हो सकता है। मुद्दे की बात तो यह भी उभरती है, आश्चर्य होता है कि रावण सब कुछ जानते हुए भी उस रास्ते पर अग्रसर हुआ जहां उसका सर्वनाश सुनिश्चित था। उसका यह कैसा ज्ञान था? बुद्धिमानों द्वारा रावण के मोक्ष की बात भगवान राम द्वारा होने का तर्क दिया जाता है, मगर स्वयं की मुक्ति के लिए इतने गलत कार्य व समाज पर अत्याचार की बात गले नहीं उतरती। बहरहाल, यह कैसी बुद्धिमत्ता थी जो उसे अच्छे और बुरे के बारे में अंतर करना नहीं सीखा पायी। अर्थात ऐसा ज्ञान किस काम का जो ज्ञानी को सुरक्षा प्रदान न कर सके, स्वयं के अस्तित्व को खतरे में डाल दे और गलत मार्ग पर जाने के लिए भ्रमित करे। अर्थात एक ज्ञानी भी चरित्र न रखने पर उसके दोष से बच नहीं सकता। अप्रत्यक्ष रूप में ही सही, मगर यह सत्य है कि एक अज्ञानी भी चारित्रिक बल के साथ धर्म के रास्ते पर चलते हुए शांत और सम्मान से जीवन व्यतीत कर सकता है। और फिर ऐसा ज्ञान किस काम का जो व्यवहारिक न हो। वरना शिव की घोर तपस्या के बाद वरदान में प्राप्त लिंगम् को रावण रास्ते में लंका पहुंचने से पूर्व आम बालक-रूप में उपस्थित गणेश जी के हाथों में नहीं सौंपते। यहां ईश्वर, सृष्टिकर्ता, रचयिता की लीला अपरम्पार है। उसे सीधे चुनौती देना आपके और आपके साथ जुड़े हर एक के सर्वनाश का कारण बनेगा। यह बात सरलता से रावण के जीवनचक्र से समझी जा सकती है। ये पौराणिक कथाएं जीवन की क्लिष्टता को बड़े सहज व सामान्य ढंग में ही सही, मगर विस्तारपूर्वक व स्पष्टीकरण के साथ बोल जाती हैं। बस पढ़ने वाले की निगाह शब्दार्थ की जगह भावार्थ पर होनी चाहिए।
इधर, कुछ समय से इन कथाओं से समाज की निगाह हटी है। पता नहीं महादुष्ट रावण के होते हुए भी सतयुग कैसे परिभाषित हुआ होगा। हां, सैकड़ों रावण के कारण कलियुग स्वयं को अक्षरशः प्रमाणित करता है। वर्तमान काल को तो उत्तर कलियुग कहा जाना चाहिए, जहां जीवन-मूल्यों को भी नये ढंग से गढ़े जाने की कोशिश की जाने लगी है। अवगुण गुण बन गए और सदाचार आदमी की कमजोरी कहलाए जाने लगे हैं। आधुनिक रावण महिमामंडित होने लगे हैं। तो क्या नये दौर में नये निष्कर्ष निकले जाने चाहिए? नहीं। समाज संक्रमण काल में है। राम और रावण का युद्ध चरम पर है। विजय तो धर्म की ही होगी। जीवन सदा उजाले में संरक्षित होकर पनपता है। अंधेरा सर्वनाश का प्रतीक है। हमें अंदर बैठे अपने रावण को खत्म करना होगा। वरना जीवन-रूपी द्वंद्व में हार सुनिश्चित है।