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छिपकर करने का मजा
बचपन में घर के भीतर रसोईघर में से, बिना किसी को बताए हुए, मनपसंद व्यंजन को चुराकर खाने में जो मजा आता था, वो मां के हाथ से परोस कर दिए गये पकवान में भी नहीं होता था। जबकि मां हमारे पचाने की शक्ति से कुछ अधिक ही देती। ये मनपसंद चीज मां की हाथ के बने लड्डू, गुजिया, रसगुल्ला कुछ भी हो सकता था। इसी संदर्भ में कृष्ण-कन्हैया की माखन चोरी की बाल लीलाएं जग-प्रसिद्ध हैं। यही नहीं, घर के आसपास स्थित किसी बगीचे का चौकीदार जितनी बार रोकता-टोकता उतनी ही बार चोरी-छिपे आम-अमरूद-जामुन तोड़कर हम दोस्त लोग खाते। हम में से कोई एक कभी-कभी पेड़ पर भी चढ़ जाता। स्कूल-कॉलेज के रास्ते पर स्थित बड़े-बड़े बंगलों में अगर कोई फल-फूल का पेड़ होता तो गृहस्वामी के डराने-धमकाने के बावजूद बच्चे पेड़ पर पत्थर मारना नहीं छोड़ते। कुछ न कुछ हाथ लग ही जाता। कई बार पकड़े जाते, चौकीदार के डंडे के साथ-साथ उसकी गालियां भी खाते, घर या स्कूल में की गई शिकायत को भी झेल जाते, मगर इस तरह से ऊधम करते हुए खाये गए उस कच्चे आम व इमली का स्वाद घर में मिलने वाले दशहरी से भी अधिक विशिष्ट होता। इसे खाने पर आत्मसंतोष निराला होता। थोड़ा और बड़े हुए तो जवानी के आगमन के साथ-साथ बदमाशी भी बढ़ गयी थी और कुछ नयी भी जुड़ गई थीं। उन दिनों घरों में गुलशन नंदा के उपन्यास को पढ़ने से बच्चों को रोका जाता था। मगर हाई स्कूल में छिपकर उनकी लिखी मैली चांदनी को पढ़ने में जो कौतूहलता जागी व ऊर्जा मिली, उसका बखान करना अब मुश्किल है। स्कूल से भागकर देखी गयी फिल्म का रोमांच ताउम्र याद रहेगा। पैसे अधिक न होने के कारण थर्ड क्लास (सबसे आगे) में बैठकर पिक्चर देखते। स्कूल की ड्रेस में दोस्तों के साथ छिपते-छिपाते जाते और फिर फिल्म देखते-देखते अंधेरे में ही टिफिन भी खा लेते। घर लेट पहुंचने पर खेलने या कुछ और बहाना बना दिया जाता। स्कूल से गायब होने की बात घर पर कम ही पता चल पाती। हां, दोस्त कभी-कभी चुगलखोरी कर देते। पिता की मार पड़ने पर मां बचा ही लेती। युवावस्था में कालेज में छिप-छिप कर पे्रमिका से मिलने का अपना ही मजा है। दुनिया से बचकर बगीचे में जाने या साथ फिल्में देखने को मिल जाएं तो मानो सब कुछ मिल गया। स्त्री-पुरुष मित्र, एकपल के साथ के लिए पूरा दिन सजते-संवरते हैं, जबकि वही शादी के बाद सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता है। बड़ी उम्र में भी पड़ोस की औरत अधिक सुंदर लगती और अमूमन चुपचाप देख ली जाती है। बुढ़ापे में बीमारी लगने पर खाने-पीने के परहेज में छिपकर खाते हुए बड़ों को घरों में पकड़ा जा सकता है। बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन है। कोई कितना भी शरीफ बने और कहे, यह सत्य है कि हर उम्र में मन अंदर से कुछ नया करने के लिए लालायित रहता है। चंचलता करने के बहाने ढूंढ़ता व किसी न किसी मौके की तलाश में रहता है। ये मन हमेशा कुछ हटकर करने के लिए बाहर की ओर भागता है।
आज भी बहुत कुछ नहीं बदला। सिर्फ सामान बदल गया। तरीके बदल गए। मन वही है। आज की पीढ़ी में आधुनिक घरों में बच्चों द्वारा पेस्ट्री, केक, चॉकलेट चुपचाप या आते-जाते खूब खायी जाती है। इंटरनेट पर जितना मर्जी रोक लगा दो युवा वर्ग कुछ विशिष्ट साइट्स जरूर देखता है। एडल्ट फिल्म बड़ों से पहले बच्चे आजकल देख लेते हैं। कितना भी रोक-टोक लो, दोस्तों को दिन-रात एसएमएस और ई-मेल किए जाते हैं। कितनी भी सावधानी बरती जाए, नयी पीढ़ी अपनी इच्छा अपने ढंग से पूरी करने के फिराक में रहती है। वो भी छिपकर।
उपरोक्त बातें जीवन का रंगीन सत्य है, जिस भी चीज को छिपाया या रोका-टोका जाता है उसे देखने पाने की इच्छा बढ़ती चली जाती है। पुस्तकों व फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने पर वो अधिक पढ़ी व देखी जाती है। यह मन में उत्सुकता जगाती है। जिज्ञासा लोकप्रियता बढ़ाती है। धर्म व समाज ने जितनी भी चीजों पर पाबंदी लगायी, जिन्हें भी अनैतिक या असामाजिक करार दिया गया है, डर के कारण उसे करना आम जन के लिए थोड़ा मुश्किल तो हो जाता है मगर फिर छिपकर करने की इच्छा और अधिक बलवती होती है। चरित्र से जोड़ देने के बाद भी मन नहीं मानता। और गलत काम घोषित किए जाने बावजूद उसे किए जाने पर अलग तरह का संतोष प्राप्त होता है। इसे हठधर्मिता से जोड़कर भी देखा जा सकता है। कहा भी जाता है कि जिस बात के लिए बचपन में सबसे अधिक रोका जाता है उसी चीज को देखने और करने में बच्चे सबसे अधिक इच्छुक होते हैं। यह एक प्रकार की जिद है। छिपकर बच्चों को धूम्रपान करते हुए देखा-सुना जा सकता है। पिता की डिब्बी से लड़के अकसर चुराकर पहली सिगरेट-बीड़ी पीते हैं। आज का बचपन भी इसी तरह की शरारतें करता है। बस लक्ष्य और नाम बदल गए हैं। युवा वर्ग के दिल और ख्वाब में कोई अंतर नहीं है। हां, माध्यम और काम बदल गए हैं। नये जमाने के नये-नये ढंग जरूर आ गए मगर इश्क और शारीरिक आकर्षण आज भी बरकरार है। कितना भी स्वतंत्र समाज हो जाए, छिपकर प्यार करने का मजा ही कुछ और है।
छिपकर वार करने की आदत कुछ लोगों की फितरत होती है। उम्र के साथ कइयों में यह विशिष्ट अवगुण बढ़ते देखा जा सकता है। चुगलखोरी इसका एक बेहतरीन उदाहरण हो सकता है। कुछ लोगों को इसमें आनंद-रस की प्राप्ति होती है। मौका मिलते ही ये निंदा-रस में जुट जाते हैं। बुराई करना, किसी के विरुद्ध षड्यंत्र करना, पीठ पीछे गालियां निकालना कुछ लोगों की आदत बन जाती है। यह कई बार बड़ी घातक भी होती है। नुकसान कर जाती है। मगर लोग इससे बाज नहीं आते। भला हो भारत की माननीय न्यायालयों का जो उसने कानफिडेंशियल रिपोर्ट का चलन पिछले साल से खत्म कर दिया। वरना वरिष्ठ अधिकारियों को अपने अधीनस्थ अधिकारी व कर्मचारियों के बारे में गलत टिप्पणियां लिखते हुए कई जगह सुना। जिसके कारण लोगों की पदोन्नतियां तक रुक जाती थीं। जिसमें कई ईमानदार और योग्य अफसर भी बेवजह परेशान हुआ करते थे। ये अपने वरिष्ठ अधिकारियों के ईर्ष्या व द्वेष के कारण फंस जाया करते थे। पीठ पीछे नुकसान पहुंचाना यह भी एक तरह की बीमारी है। जो सिर्फ इंसानों में मिलेगी। सृष्टि में कहीं और नजर नहीं आती।
यूं तो समाज सदैव लीक से हटकर चलने वाले का पहले तो विरोध करता है लेकिन उसके आगे बढ़ जाने पर फिर उसे ही अपने सिर-आंखों पर बिठाता है। आगे बढ़कर नेतृत्व करने वाले कभी परंपरा को नहीं मानते और उनके आगे बढ़ते ही जमाना पीछे चल पड़ता है। सिर्फ प्रेम के मामले में समाज ने अपनी ज्यादतियां दिखाई हैं और स्वतंत्र विचारों को आज भी आसानी से पुरानी पीढ़ी स्वीकार नहीं कर पाती। छिपकर प्यार इसीलिए पनपता है। इस तरह के प्रेम-प्रसंगों को जानने के लिए समकालीन पीढ़ी ही नहीं आने वाला समाज भी चाव से पढ़ता है। फिर चाहे वो लैला-मजनूं हो या फिर कोई और। ये समाज को कभी भी स्वीकार नहीं हो पाया, मगर कितनी भी मुसीबत हो जाए, हर पीढ़ी के युवा वर्ग द्वारा प्रेम के लिए विद्रोह करने का मन में विचार जागता है। चोरी-छिपे किया गया प्यार हमेशा समाज में चर्चा का विषय रहा है फिर चाहे वो अनैतिक ही क्यूं न हो। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि हमारे आज के कई फिल्मी सितारे लोकप्रियता बरकरार रखने के लिए अपने अनैतिक संबंधों को खुद हवा देते हैं। दर्शक बड़े चाव से इन खबरों को रस लेकर पढ़ता है। आंखें गढ़ाकर बड़ी आशाभरी निगाहों से टेलीविजन के पर्दे को देखता है। इस तरह के संबंधों पर आधारित कथा साहित्य भी शीघ्र चर्चा में आ जाता है। इस तरह की फिल्में खूब चलती हैं। वही दृश्य अधिक पसंद किया जाता है जिसमें खुलकर नहीं बल्कि छिपा-छिपाकर नग्नता दिखाई जाये। पूर्व में भी कई चर्चित व्यक्ति सिर्फ अपने अनैतिक संबंधों के कारण अधिक लोकप्रिय हुए। वे अपने कार्य व सृजन से अधिक अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और खुले व्यवहार और प्रेम-प्रसंगों के कारण चर्चा में बने रहे। और इसी कारण उनके बारे में जानने की उत्सुकता आम जनता को सदैव रही। यह जीवन व समाज के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। पूर्व में ही नहीं पश्चिम में भी यही हाल है। सनसनी बनने पर मीडिया भी अधिक देखा जाता है। प्रतिबंधित किताबें अधिक पढ़ी जाती हैं जबकि यह बुद्धि का क्षेत्र है।
असल में देखें तो हर इंसान स्वतंत्रता से आगे बढ़कर उच्छृंखलता की हद तक मुक्त हो जाना चाहता है। युवा वर्ग में जोश व उर्जा होती है इसलिए वो अधिक विद्रोह करते हैं। मगर उम्र में बड़े होने पर, कुछ एक शारीरिक तो कुछ मानसिक रूप से कमजोर होते चले जाते हैं। कभी-कभी सामाजिक तो कभी पारिवारिक और फिर कभी संवेदनशीलता आमतौर पर इंसान को पूर्ण स्वतंत्र होने से रोकती है। और यहीं से समाज के अस्तित्व की रूपरेखा भी तय होती है। ऐसे में, मन में दबी-छिपी इच्छाओं, चाहतों व कल्पनाओं व अधूरे सपनों को दूसरों के माध्यम से जब वह साकार होते देखता है, जो वो स्वयं नहीं कर पाया तो मन ही मन कहीं न कहीं संतुष्ट होता है। यूं तो किसी भी व्यक्ति में कुछ खास नहीं होता मगर शिखर पर बैठे चर्चित जन अपने लिये उत्सुकता बनाए रखते हैं। उनके बारे में जानने की इच्छा जिंदा रखी जाती है। उनका जीवन अपने आप में एक पहेली बनाया जाता है, जिसे सामाजिक व परंपरा के किसी अच्छे-बुरे पैमाने में नहीं तौला जाता। सवाल यहां जरूर उभरता है कि अगर सभी इनकी तरह अपने (अनगिनत) इश्क का इजहार सरेआम करने लगें, जैसा कि आजकल हो भी रहा है, तो समाज का क्या होगा? यह कहना एक गलत सोच होगी कि तब समाज अस्तव्यस्त हो जाएगा? नहीं। समाज तो एक नये रूप में खड़ा हो जाएगा। मगर असली फर्क यह होगा कि कोई चर्चित व्यक्ति अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण चर्चित नहीं होगा। चौकीदार के न होने पर खुले बगीचे में जाकर फिर शायद खाने का वो मजा न रहे। गुलशन नंदा की किताब टेबल पर ऊपर पढ़ी होती तो शायद मैं इसे नहीं भी पढ़ता। इंसान सदैव शंकालु और खोजी प्राणी है। इससे कुछ भी छुपाते ही यह ढूंढ़ने लगता है।