My Blog

Articles, Personal Diaries and More

खाने की पत्तल पर चीन

अधिक पुरानी बात नहीं है। दो-ढाई दशक हुए होंगे। उत्तर प्रदेश के रायबरेली शहर, शहर नहीं कस्बा कहा जाना चाहिए, के एकमात्र उपलब्ध ठीक-ठीक होटल में चाइनीज व्यंजन के नाम पर नूडल का परोसा जाना एक बड़ी खबर थी। उन दिनों यह सुनकर आश्चर्य हुआ था। एक शाम शौकिया हम भी खाने पहुंचे तो साथ में पेपर-नेपकीन का मिलना तो अविश्वसनीय था। रायबरेली अपने विभिन्न विशिष्ट कारणों से अपने आकार के दूसरे शहरों की तुलना में एक बेहतर शहर रहा है जहां तथाकथित विकास प्रक्रिया के छींटे इधर-उधर गिरते हुए दिख जाएंगे। आसपास के क्षेत्र में कारखानों और संस्थानों के स्थापित होने पर बाहर से उच्च मध्यम वर्ग का आना-जाना लगा रहता है। अर्थात आधुनिकता का आगमन तो फिर होना ही है। बाजार द्वारा इनकी सुख-सुविधाओं को उपलब्ध कराना फिर एक स्वाभाविक प्रतिक्रियात्मक चक्र का हिस्सा है। और यह इस शहर में आसानी से देखा जा सकता है। वर्ना उस दौरान अच्छे-अच्छे शहरों के स्थानीय होटलों में चाइनीज के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता था। अमूमन तो लोग इसका नाम भी नहीं जानते थे और अगर सुना हो भी तो देखा और खाया कभी न होगा। स्वाद और सुरुचि का तो फिर कोई सवाल ही नहीं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में भी यह आम नहीं था। उपलब्धता तो थी मगर कुछ एक विशिष्ट होटलों में ही मिलता था। जहां आम लोग नहीं जाया करते थे।

उन दिनों समोसे-कचोड़ी व आलू की टिकियां, इमली की चटनी या सौंठ के ऊपर प्याज व हरी मिर्च के टुकड़े या नमकीन सेव डालकर तो कहीं दही-चटनी के साथ खूब चला करती थी। आगरा वाले, मथुरा वाले, मेरठ-हरिद्वार इन नामों से चाटों की दुकान उत्तर भारत के हर शहर में मिल जाती थी। दिल्ली के चांदनी-चौक में मूंग-गाजर के हलवे और शुद्ध घी में बने तरह-तरह के खस्ता परांठा की खुशबू गलियों में तैयारी रहती। कढ़ाई में खौलते हुए दूध को कुल्हड़ में मलाई मारकर पीने से शामे जवान हुआ करती थीं। मिठाई पर विशेष जोर होता था। जलेबी, इमरती से लेकर पेड़ा-लड्डू-बर्फी आम होते हुए भी कई जगह की खास होती थी। मिल्क-केक, मोतीचूर और बेसन की अन्य मिठाइयों के विशेषज्ञ हलवाई हर शहर में होते थे। इनकी दुकानों में भीड़ लगी होती। बंगाल के छेने की मिठाइयों व मलाई-चॉप से रईसी टपकती थी। स्पंजी सफेद रसगुल्ला तो मुंह में रखते ही घुल जाता और गिनकर चार-पांच तो आराम से खाया ही जाता था। तब जाकर कुछ खाने का अहसास होता। एक काला गुलाब जामुन खा लेने पर तो मन मस्त हो जाता था। परवल की मिठाई खास लोगों के घर ही मिलती। दादी-नानी के हाथ के लड्डू, कभी धनिया-सौंठ मिलाकर आटे में, कभी सूजी या बेसन का, न जाने कितने तरह के मेवे व शुद्ध घी के साथ इस तरह बनाये जाते कि स्वाद और शक्ति का मिश्रण होता। गोंद के लड्डू से जच्चा-बच्चा तंदुरुस्त होते। इन्हें हफ्तों रखकर खाया जा सकता था। न तो फ्रिज की आवश्यकता पड़ती न ही इसकी कोई एक्सपायरी डेट होती। लोग घर से बाहर निकलते तो साथ में आठ-दस लड्डू और नमकीन-मीठी मठरियां रख दी जाती। आदमी किसी भी कीमत पर भूखा नहीं रह सकता था। जन्मदिन की खीर विशेष होती। शरद पूर्णिमा की रात में रखी गयी रबड़ी-खीर सुबह खाने में कमाल का स्वाद देती। घरों में सुबह-सुबह गर्म-गर्म परांठों के साथ सब्जियां या फिर आलू-पूरी खायी जाती, मेहमान के आने पर खस्ता कचोरियां खासियत हुआ करती थी। इतवार के दिन घर-घर में पकवान बनता। और आम दिनों में शहर व राज्य के हिसाब से अलग-अलग मैन्यू चला करता। पंजाब का राजमा-चावल तो यूपी में आलू-दम, बिहार का सत्तू तो महाराष्ट्र में बैंगन का तीखा भर्ता, राजस्थान की दाल-बाटी तो गुजरात की हर सब्जियों में मिठास मिलती। दक्षिण भारत तो अपने विशिष्ट व्यंजनों के लिए पहले से ही लोकप्रिय है। यूं तो छोला-भटूरा, पॉव-भाजी, इडली-डोसा अपने-अपने क्षेत्र में खूब चलते मगर उनका राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार नहीं हुआ था। किसी भी घर चले जाइए खाने की थाली कटोरियों से भरी होती। क्या खाये क्या न खाये, सोचना और समझना मुश्किल होता था। पेट खराब होना आम बात नहीं थी। और लोग छक कर खाते। हां, शादी-ब्याह में स्वाद के चक्कर में अधिक खाने से कुछ मुसीबत जरूर हो जाती थी। लेकिन फिर इसके लिए किसी को दोष देना ठीक नहीं। पांच तरह की मिठाइयां तो गरीब से गरीब घर में बना करती और इतने प्यार से खिलाई जाती कि मेहमान मना नहीं कर पाता। शादी के घर में, टोकरियों में बूंदी के लड्डू और बालू-शाहियां, बाल्टियों में रसगुल्ले हफ्तों तक रखे मिलते। खस्ता कचोरियां भी चटनी के साथ सुबह-सुबह महीनेभर खाई जाती। शादी की महक कई दिनों तक रहती। लोग अपनी छोड़ दूसरे की शादियों की बातें बरसों याद करते। मशहूर हलवाई बाहर से बुलवाये जाते। छप्पन भोग का तो स्वाद निराला होता। और शहनाई की मधुरता में कान के साथ-साथ दिल भी आनंदित होता। जीवन मंगलमय था।

आज परिदृश्य बदल चुका है। मात्र दो दशकों में खानपान का अला-कार्ड (मीनू कार्ड) बदल चुका है। वैसे तो संस्कृतियां और सभ्यताएं तालाब की तरह कभी भी एक जगह खड़ी नहीं हो सकती। यह तो नदी के प्रवाह की तरह बहती रहती हैं। लेकिन इतना तीव्र गति से परिवर्तन होगा सोचा न था। ऐसा तो सिर्फ बाढ़ में होता है। लेकिन फिर यह तबाही लाता है। आज नूडल्स और चौवमीन हर गली के नुक्कड़ में मिल जाएगा। मैगी के पैकेट गांव-गांव में उपलब्ध हैं। बर्गर व हॉट डॉग के बिना हमारी युवाओं की पार्टियां नहीं होती। पिज्जा और पास्ता में पूरा भोजन कर लिया जाता है। इस पर कोई भी टिप्पणी करने पर हमारा युवा वर्ग बिना कुछ सोचे-समझे नाराज हो सकता है। बोलने वाले को मूर्ख और रूढ़िवादी घोषित किया जा सकता है। पुरानी पीढ़ी को अविकसित बताया जाता है। हंसी भी उड़ाई जा सकती है। ब्रेड खाने वाला हमारा युवा वर्ग परांठा खाने से अपच की शिकायत करने लगता है। जिम में वर्कआउट करने वाला कैलोरी नाप कर खाता है। इन सब के बीच चीनी व्यंजन का एक विशेष व लोकप्रिय चलन है।

आज हर बड़े होटल में चाइनीज रेस्टोरेंट अलग से अवश्य मिलेगा। चाइनीज सैफ और बेयरे की विशेषता वाली जगहों में भारी भीड़ होती है। युवाओं की भीड़ पारंपरिक होटलों की जगह यहां अधिक मिलेगी। यहां जाना आधुनिकता की निशानी बन चुका है। और देसी व्यंजन पिछड़े होने का सबूत बना दिया गया। फलस्वरूप लोग घर का भारतीय भोजन खाने से बचते है। और लोगों की जुबान पर चाइनीज खाना चढ़ चुका है तभी तो चाइनीज रेस्टोरेंट की अनगिनत श्रृंखला खुल रही है। हाथ से खाना तो हम भूल चुके थे अब अंग्रेजी चम्मच की जगह चॉपस्टिक ने ले लिया। मछली और मुर्गे के साथ-साथ पोर्क, प्रॉन्स और केकड़े का प्रचलन तेजी से बढ़ा। स्टार्टर व मैनकोर्स के साथ शराब का परोसा जाना आम हो गया। चाइनीज व्यंजन का भारत में पहुंचकर बहुत हद तक उसका भारतीयकरण हो गया। सिर्फ नूडल्स को तरह-तरह से खाने में पेश किया जाता है। इनकी संख्या भारतीय अनगिनत व्यंजन के सामने कुछ भी नहीं। मीठे के नाम पर बेकरी और आइसक्रीम के अतिरिक्त कुछ नहीं। हर्बल चाय के चक्कर में दो घूंट की चीनी-चाय के सामने मुंबई की कड़क कट चाय का मजा ही कुछ और है। फिर भी पैन फ्राइड नूडल्स, पैन फ्राइड फिश, हक्का नूडल्स, मोमोस, दो-चार सॉसेश में, का स्वाद दिलोदिमाग पर छा चुका है। बात यहां अच्छे-बुरे की नहीं है। बात सोच की है। यहां नये भोजन के स्वाद से कोई आपत्ति नहीं, तकलीफ है तो इस बात पर कि अपनी संस्कृति व खान-पान को एक दृष्टि से अनदेखा किया जाता है। पढ़ा-लिखा युवा वर्ग जब इन चाइनीज और फास्ट-फूड के शारीरिक दुष्प्रभाव को जानते हुए भी अनजान बना रहता है तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। पश्चिमी संस्कृति में डूबा भारतीय समाज अपनी पहचान के अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ता महसूस होता है। ऊपर से खान-पान का नया प्रचलन एक तरह का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर सिर्फ ताकत से ही हुकूमत नहीं करता। भाषा, रहन-सहन, भोजन इसके अन्य हथियार हैं। अंग्रेज कई वर्षों से विश्व में सिर्फ अंग्रेजी के कारण राज कर रहे हैं। और उसी संदर्भ में देखें तो चीन हमारे रसोईघर में प्रवेश कर चुका है और हमारी पत्तल की जगह चाइनीज बोल्‌ (कटोरा) ने ले लिया। यूं तो चाइनीज व्यंजन पश्चिम में पहुंचकर यूरोपियन हो चुका है। मगर उससे अधिक पश्चिम का मेकडोनेल्ड, केएफसी एवं पिज्जा-हट चीन में घुसपैठ कर चुका है। यह एक तरह का संतुलन है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि चीनी व्यंजन जिस तेजी से हमारे भोजन में घुस रहा है, क्या ऐसी ही दिलचस्पी चीन में भी भारतीय खानपान को लेकर दिखाई देती है? या नहीं?